गृहलक्ष्मी मैग्जीन ने एक कवर फोटो छापा था. ये मार्च का कवर फोटो था जिसमें एक एक्ट्रेस अपने छोटे बच्चे को स्तनपान करवा रही थी. इस फोटो के खिलाफ एडवोकेट विनोद मैथ्यू ने एक केस रजिस्टर किया था जिसमें इनडीसेंट रीप्रेजेंटेशन ऑफ वुमेन (प्रोहिबिटेशन) एक्ट 1986 के तहत केस किया था और इसपर हाल ही में फैसला आया है. जज का कहना है कि उन्होंने भी इस फोटो को उसी तरह से देखा जैसे बाकियों ने देखा, लेकिन उन्हें कहीं भी अभद्रता नजर नहीं आई.
वाकई तस्वीर को देखें तो कहीं अभद्रता नहीं दिखेगी. तस्वीर में सिर्फ एक मां अपने बच्चे को दूध पिला रही है. जज का कहना था कि, "तस्वीर किसी को अभद्रता लग रही है वो किसी और के लिए कला भी हो सकती है. कई महिलाओं ने शिकायत की कि वो शांति से अपने बच्चे को स्तनपान भी नहीं करवा सकतीं क्योंकि कोई न कोई घूरता दिखेगा. राजा रवि वर्मा की तस्वीरें भी किसी को कला लगेंगी और किसी को अभद्रता. ये एक प्राकृतिक चीज़ है जो मां अपने बच्चे के साथ करती है अगर किसी को इसमे समस्या दिखती है तो उसकी आंखों में समस्या है."
पर इस बात को लेकर जो बहस शुरू हुई है वो बड़ी ही अजीब सी है. सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर बहस शुरू हो गई कि पब्लिक में स्तनपान करवाया जाना चाहिए या नहीं? बात ये कि ब्रेस्टफीडिंग को सार्वजनिक तौर पर परमीशन दे देनी चाहिए या नहीं?
मेरा सवाल है.. क्या इसके लिए किसी मां को परमीशन की जरूरत है? जब जहां उसके बच्चे को जरूरत होती है क्या तब वो उपलब्ध करवाने में असमर्थ होती है? हमेशा तो ऐसा मामला नहीं हो सकता. यकीनन इस मैग्जीन में जो तस्वीर है उसे बहुत सही कैप्शन के साथ शेयर किया गया है और वाकई कोई महिला जब स्तनपान करवा रही हो तो उसे घूरने वाले भारतीय सड़कों पर टहलने वाले ही होंगे.
अगर हम इसे दूसरी तरह से देखें तो पाएंगे कि हमारे देश में वैसे भी कई ऐसी महिलाएं हैं जो सड़कों...
गृहलक्ष्मी मैग्जीन ने एक कवर फोटो छापा था. ये मार्च का कवर फोटो था जिसमें एक एक्ट्रेस अपने छोटे बच्चे को स्तनपान करवा रही थी. इस फोटो के खिलाफ एडवोकेट विनोद मैथ्यू ने एक केस रजिस्टर किया था जिसमें इनडीसेंट रीप्रेजेंटेशन ऑफ वुमेन (प्रोहिबिटेशन) एक्ट 1986 के तहत केस किया था और इसपर हाल ही में फैसला आया है. जज का कहना है कि उन्होंने भी इस फोटो को उसी तरह से देखा जैसे बाकियों ने देखा, लेकिन उन्हें कहीं भी अभद्रता नजर नहीं आई.
वाकई तस्वीर को देखें तो कहीं अभद्रता नहीं दिखेगी. तस्वीर में सिर्फ एक मां अपने बच्चे को दूध पिला रही है. जज का कहना था कि, "तस्वीर किसी को अभद्रता लग रही है वो किसी और के लिए कला भी हो सकती है. कई महिलाओं ने शिकायत की कि वो शांति से अपने बच्चे को स्तनपान भी नहीं करवा सकतीं क्योंकि कोई न कोई घूरता दिखेगा. राजा रवि वर्मा की तस्वीरें भी किसी को कला लगेंगी और किसी को अभद्रता. ये एक प्राकृतिक चीज़ है जो मां अपने बच्चे के साथ करती है अगर किसी को इसमे समस्या दिखती है तो उसकी आंखों में समस्या है."
पर इस बात को लेकर जो बहस शुरू हुई है वो बड़ी ही अजीब सी है. सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर बहस शुरू हो गई कि पब्लिक में स्तनपान करवाया जाना चाहिए या नहीं? बात ये कि ब्रेस्टफीडिंग को सार्वजनिक तौर पर परमीशन दे देनी चाहिए या नहीं?
मेरा सवाल है.. क्या इसके लिए किसी मां को परमीशन की जरूरत है? जब जहां उसके बच्चे को जरूरत होती है क्या तब वो उपलब्ध करवाने में असमर्थ होती है? हमेशा तो ऐसा मामला नहीं हो सकता. यकीनन इस मैग्जीन में जो तस्वीर है उसे बहुत सही कैप्शन के साथ शेयर किया गया है और वाकई कोई महिला जब स्तनपान करवा रही हो तो उसे घूरने वाले भारतीय सड़कों पर टहलने वाले ही होंगे.
अगर हम इसे दूसरी तरह से देखें तो पाएंगे कि हमारे देश में वैसे भी कई ऐसी महिलाएं हैं जो सड़कों पर अपने बच्चों को पालती हैं. वो महिलाएं जो स्तनपान भी बच्चों को सड़कों पर ही करवाती हैं. उन्हें सड़कों पर ही सब कुछ करना होता है. वो भी स्तनपान करवाती हैं और उन्हें भी किसी की अनुमति नहीं चाहिए अपने बच्चे को स्तनपान करवाने के लिए.
अगर कोई महिला अपने बच्चे को ऑफिस ले जाती है तो उसे भी चुनरी ढककर स्तनपान करवाती है. अस्पताल में, ट्रेनों में, सड़कों पर ऐसी कई महिलाएं मिल जाएंगी जो अपना आंचल फैलाकर बच्चों को स्तनपान करवा रही हैं. ये बहस की स्तनपान को पब्लिक में करवाने की अनुमति दे देनी चाहिए ये तो बेमानी सी लगती है क्योंकि हमारे देश में कोई ऐसा कानून ही नहीं है जो ये कह सके कि बच्चों को सड़क पर स्तनपान नहीं करवाया जा सकता.
जहां तक उस मैग्जीन का सवाल है एक तरह से मैं ये कहूंगी कि वो कैंपेन से थोड़ा आगे जाकर ऑब्जेक्टिफिकेशन पर आ गई है. वहां मां को मां की तरह नहीं बल्कि मॉडल की तरह दिखाया गया है. यकीनन ये मेरा मानना है, लेकिन ब्रेस्टफीडिंग को पोज करते हुए फोटो खिंचवाना फेमिनिज्म नहीं हो सकता.
मिडिल क्लास महिलाओं की दिक्कत...
लड़ाई तो उन महिलाओं की है जो वाकई ऐसी परिस्थितियों से गुजरती हैं. वाकई वो इसी समाज का हिस्सा हैं. ये बात उन्हें भलीभांति पता है कि जब वो अपने बच्चे को दूध पिला रही थीं तब कोई न कोई उन्हें देख रहा था. ये खीज, ये असंतोष मिडिल क्लास महिलाओं के मन में दिख जाएगा, लेकिन उन्हें जागरुक करने की जरूरत नहीं है. जागरुक उन लोगों को करने की जरूरत है जिन्हें दूध पिलाती हुई महिला एक मां के रूप में नजर नहीं आती. पर इन महिलाओं को भी रोज़ाना शायद इस परिस्थिती से दोचार न होना पड़ता हो.
असल औरतें जिन्हें वाकई दिक्कत होती है..
यहां बात उन महिलाओं की जिनके लिए ये समस्या बहुत विकराल है. ये वो महिलाएं हैं जिन्हें नहाने से लेकर बच्चे को पालने, कपड़े बदलने, खाना खाने तक के लिए सभी की नजरों से गुजरना पड़ता है. स्तनपान उनके लिए कितना खतरनाक होता है क्या कभी सोचा है आपने? ये वो महिलाएं हैं जो सड़कों पर काम करती हैं, जिनके अपने पक्के घर नहीं होते. वो महिलाएं अपने हिसाब से ही बच्चों को पालती हैं और उनको स्तनपान करवाती हैं. सड़कों पर ही रहती हैं और आम जिंदगी का हिस्सा हैं.
कुछ आंकड़े जानने भी जरूरी हैं..
फेमिनिज्म और ब्रेस्टफीडिंग की डिबेट अगर सिर्फ मैग्जीन के कवर तक ही है और जागरुकता सिर्फ मैग्जीन के कवर पर ही दी जा रही है तो ये यकीनन गलत बात है. भारत में 42% महिलाएं प्रेग्नेंसी के दौरान कम वजन वाली रहती हैं और ये आंकड़ा 2016 के इकोनॉमिक सर्वे का है. वो महिलाएं काम करती हैं, अपने बच्चों को पालती हैं. ये वो महिलाएं नहीं हैं जिन्हें अपने बच्चे क्रच में छोड़ने की सुविधा है. ये वो महिलाएं नहीं हैं जो अपने बच्चों को घर की चार दीवारी में स्तनपान करवा सकती हैं. ये तो वो महिलाएं हैं जिन्हें यकीनन किसी भी तरह से सुविधा उपलब्ध नहीं है.
ये वो महिलाएं हैं जो असल में पब्लिक में स्तनपान करवा रही हैं. तो इनपर ये बहस होना कि जनाब इन महिलाओं को कैसे सशक्त किया जाए. ये बहस कि क्या पब्लिक में ब्रेस्टफीड करवाना चाहिए. ये तो पूरी तरह से ही बेमानी है.
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