घर मे एक बच्चे का आना उस आंगन को गुलज़ार करता है. यकीनन किसी भी परिवार के लिए बेहद खुशी का मौका होता है. भारत में परिवार इकाई में एक दूसरे से जुड़ाव के कारण बच्चे के जन्म को सिर्फ माता पिता नहीं बल्की पूरा परिवार एक उत्सव के रूप मे देखता है. ज़ाहिर सी बात है उत्सव की खुशी में बहुत कुछ ऐसा होता है जो निगाह से छूट जाता है और जब तक सामने आता है देर हो चुकी होती है. वही देर शायद यहां भी हुई. भाजपा के वरिष्ठ नेता बी एस येदियुरप्पा की पोती की आत्महत्या और वजह पोस्ट पार्टम डिप्रेशन.
पेशे से खुद एक डॉक्टर और 4 माह के बच्चे की मां. मोह का ऐसा बंधन तोड़ कर जाने का जिगर कैसे हुआ होगा? लेकिन ये सवाल अवसाद के आगे बेमानी है. क्योंकि अवसाद में मोह प्रेम ज़िम्मेदारी - ऐसा कोई एहसास महसूस नहीं होता.
पोस्ट पार्टम अवसाद क्या है?
पोस्ट पार्टम डिप्रेशन या बच्चे के होने के बाद मां को होने वाला अवसाद .आप मे से बहुतों ने नहीं सुना होगा.यकीन भी नही होगा कि बच्चे के पैदा होने की खुशखबरी भला किसी को डिप्रेशन में कैसे डाल सकती है वो भी मां को. एक मां नौ माह में केवल शारीरिक तौर पर ही नहीं बदलती अपितु उसके भीतर हार्मोन्स के उलट फेर चल रहे होते है.
मातृत्व के इन नौ महीनो के दौर में एक होने वाली मां के शरीर में हार्मोन दस गुना बढ़ चुके होते है जो बच्चे के पैदा होते ही 3 से 7 दिन के भीतर बड़ी तेज़ी से गिरते हुए अपने साधारण स्तर पर आ जाते हैं. हार्मोन के इस उतार चढ़ाव का डिप्रेशन से लेना देना क्यों है इसका पता भले न लग पाया हो लेकिन कारण यही है ये हम जानते है.
इस तरह के डिप्रेशन को काउंसलिंग और दवाओं से ठीक किया जा सकता है ,लेकिन इसे स्वीकारना इसके इलाज का पहला...
घर मे एक बच्चे का आना उस आंगन को गुलज़ार करता है. यकीनन किसी भी परिवार के लिए बेहद खुशी का मौका होता है. भारत में परिवार इकाई में एक दूसरे से जुड़ाव के कारण बच्चे के जन्म को सिर्फ माता पिता नहीं बल्की पूरा परिवार एक उत्सव के रूप मे देखता है. ज़ाहिर सी बात है उत्सव की खुशी में बहुत कुछ ऐसा होता है जो निगाह से छूट जाता है और जब तक सामने आता है देर हो चुकी होती है. वही देर शायद यहां भी हुई. भाजपा के वरिष्ठ नेता बी एस येदियुरप्पा की पोती की आत्महत्या और वजह पोस्ट पार्टम डिप्रेशन.
पेशे से खुद एक डॉक्टर और 4 माह के बच्चे की मां. मोह का ऐसा बंधन तोड़ कर जाने का जिगर कैसे हुआ होगा? लेकिन ये सवाल अवसाद के आगे बेमानी है. क्योंकि अवसाद में मोह प्रेम ज़िम्मेदारी - ऐसा कोई एहसास महसूस नहीं होता.
पोस्ट पार्टम अवसाद क्या है?
पोस्ट पार्टम डिप्रेशन या बच्चे के होने के बाद मां को होने वाला अवसाद .आप मे से बहुतों ने नहीं सुना होगा.यकीन भी नही होगा कि बच्चे के पैदा होने की खुशखबरी भला किसी को डिप्रेशन में कैसे डाल सकती है वो भी मां को. एक मां नौ माह में केवल शारीरिक तौर पर ही नहीं बदलती अपितु उसके भीतर हार्मोन्स के उलट फेर चल रहे होते है.
मातृत्व के इन नौ महीनो के दौर में एक होने वाली मां के शरीर में हार्मोन दस गुना बढ़ चुके होते है जो बच्चे के पैदा होते ही 3 से 7 दिन के भीतर बड़ी तेज़ी से गिरते हुए अपने साधारण स्तर पर आ जाते हैं. हार्मोन के इस उतार चढ़ाव का डिप्रेशन से लेना देना क्यों है इसका पता भले न लग पाया हो लेकिन कारण यही है ये हम जानते है.
इस तरह के डिप्रेशन को काउंसलिंग और दवाओं से ठीक किया जा सकता है ,लेकिन इसे स्वीकारना इसके इलाज का पहला कदम है.
हर बार सुसाइडल नहीं होता
ऐसा नहीं की ये अवसाद हर बार किसी को आत्महत्या तक ले जाए शायद यही वजह है की लोगो का ध्यान भी कम ही जाता है जब कोई मां मदद की अनसुनी सी गुहार लगाती है. हम मान की कहां पते है की किलकारी की आवाज़ सुन अवसाद भी हो सकता है. मां तो सारे दुख दर्द भूल कर अब केवल उस बच्चे की देखभाल करने और उसके भविष्य के सुनहरे सपने देखेगी. उसके डायपर बदलने से लेकर उसके फीड तक मे उलझी मां को डिप्रेस होने का समय ही कहां मिलेगा.
ऐसा सोचने की वजह ये है कि मां के मां बनने के बाद उसकी परिधि बच्चे तक सीमित मान ली जाती है. ऐसे में अगर कोई नई मां पोस्ट पार्टम डिप्रेशन का शिकार होती है तो अमूमन तो वह कह नहीं पाती और अगर कहती है तो उसकी बातों को नज़रंदाज़ किया जाता है.
कभी न कभी सुना ही होगा की फलां मां बच्चे को दूध पिलाने से, पास लिटाने से मालिश करने से इंकार कर रही है. पहले दो चार दिन वो अपने दर्द और खीज में ऐसा व्यवहार करती है मानो बच्चे से ज़्यादा नागवार और कुछ नहीं.
ये सभी अवसाद की निशानियां है और ऐसे में मां को, 'कैसे निष्ठुर मां हो?' 'हमने तो चार ठईं जन दिए और ये रोना पिटना कब्बो न मचा!', 'आजकल की लड़कियों के नखरे. फिगर न खराब हो तो बच्चे को दूध न पिलायेंगी. बताओ भला!, कुछ ऐसा ही सुनने को मिलता है.
जबकि ऐसे ताने नहीं चाहिए बल्कि साथ चाहिए घरवालों और जीवनसाथी का. हर नई मां बेबी ब्लूज का सामना करती है, एक नन्हीं सी जान की ज़िम्मेदारी का डर होता है लेकिन 10 में से 1 महिला अवसाद के लक्षण दिखाती है और 1000 में से 1 लम्बे समय तक इस अवसाद से लड़ती है.
बच्चा किसकी ज़िम्मेदारी?
जहां एक बच्चे के आने की खुशी पूरे खानदान की होती है वहीं देर रात तक जग कर उसके लालन पालन की ज़िम्मेदारी केवल मां की. हालात बदल रहे इस पर बहस अलग मुद्दा है, लेकिन नकारा नहीं जा सकता कि ज्यादातर ज़िम्मेदारी मां की ही होती है और अपने करियर और अपनी मर्ज़ी की ज़िंदगी मे बच्चे की भारी ज़िम्मेदारी नई मां को अक्सर परेशान करता है.
भारतीय समाज में मां की बढ़ी हुई ज़िम्मेदारी से अकेले जूझती और स्वयं को भूलती मां को 'आखिर मां है!', का तमगा पहनाया जाता है. मां और मातृत्व को एक ऊंचे पायदान पर रख हम नई मांओं को एक रेस का हिस्सा बना कर टारगेट दे देते हैं. बच्चे के रोने से ले कर उसके वज़न तक, उसकी त्वचा से ले कर उसे बकैयां चलने तक सब कुछ मां को एक टेस्ट सा मालूम होता है.
बच्चे के बड़े होने तक मां परखी जाती है बिना ये जाने की वो मानसिक तौर पर किन उतार चढ़ाव से गुज़र रही है. एक खुश मिजाज़ मां एक खुशमिजाज़ परिवार बना सकती है ये छोटी सी बात बार बार दोहराने की ज़रूरत है. धन सम्पदा नौकर चाकर कुछ भी अवसाद से नहीं बचा सकता. अवसाद से लड़ने की ताकत केवल अपनों के साथ और प्यार से ही मिलती है. मां को ऊंचे पायदान पर बिठा कर अकेला मत छोड़िये बल्कि उसके साथ रहिये.
ये भी पढ़ें -
बॉयज़ स्कूल में हुआ सैनिटरी पैड्स का घपला और ये मजाक बिलकुल नहीं है!
यहां 'वर्जिनिटी रिपेयर सर्जरी' पर लगी रोक, क्या कौमार्य की चाह सिर्फ लड़कियों को है?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.