उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में कुछ लोग एक प्रीमैच्योर बेबी को कपड़े में लपेट कर पहुंचे. बताया गया कि छठे महीने में ही डिलीवरी होने की वजह से प्रीमैच्योर बेबी हुआ. लेकिन, डॉक्टर की जांच में सामने आया कि ये प्लास्टिक का पुतला है. जिसे प्रीमैच्योर बेबी की तरह दिखाने के लिए रंगने से लेकर तमाम तरह के जतन किए गए थे. मामला खुला, तो जानकारी सामने आई कि बढ़पुरा विकासखंड के एक गांव की महिला ने बांझपन के तानों से आजिज आकर ये स्वांग रचा था. उस महिला ने प्रेग्नेंसी का नाटक रचने के लिए हर महीने अस्पताल जाकर चेकअप कराया. लेकिन, 6 महीने में ही पेटदर्द का बहाना बनाकर गर्भपात की बात कही. और, घर वालों के सामने प्लास्टिक का प्रीमैच्योर बेबी रख दिया. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, महिला अस्पताल में पेट में इंफेक्शन का इलाज कराने आती थी. और, उसकी प्रेग्नेंसी से जुड़े सभी कागजात भी प्लास्टिक के बच्चे की तरह ही नकली हैं. खैर, यहां सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर महिला ने ये स्वांग क्यों रचा?
मुझे फिल्म पीपली लाइव का एक सीन याद आ रहा है. जहां नत्था की आत्महत्या की खबर को कवर करने पहुंची मीडिया उसकी मां से बात करती है. रिपोर्टर सवाल पूछता है कि 'माता जी, आपका बेटा नत्था आत्महत्या की कगार पर खड़ा है. कैसा महसूस कर रही हैं आप?' जिस पर नत्था की मां कहती है कि 'नत्था काहे जान दे. अरे खुदकुशी करे ओखरी जोरू. उ धनिया. कुलटा. अभगपौरी. उ नागिन.' आप सोच रहे होंगे कि इस खबर का फिल्म पीपली लाइव के इस सीन से क्या लेना देना है? तो, जान लीजिए कि हमारे समाज में हर चीज का दोष महिलाओं पर ही डाल दिया जाता है. समाज में महिलाओं को घर के...
उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में कुछ लोग एक प्रीमैच्योर बेबी को कपड़े में लपेट कर पहुंचे. बताया गया कि छठे महीने में ही डिलीवरी होने की वजह से प्रीमैच्योर बेबी हुआ. लेकिन, डॉक्टर की जांच में सामने आया कि ये प्लास्टिक का पुतला है. जिसे प्रीमैच्योर बेबी की तरह दिखाने के लिए रंगने से लेकर तमाम तरह के जतन किए गए थे. मामला खुला, तो जानकारी सामने आई कि बढ़पुरा विकासखंड के एक गांव की महिला ने बांझपन के तानों से आजिज आकर ये स्वांग रचा था. उस महिला ने प्रेग्नेंसी का नाटक रचने के लिए हर महीने अस्पताल जाकर चेकअप कराया. लेकिन, 6 महीने में ही पेटदर्द का बहाना बनाकर गर्भपात की बात कही. और, घर वालों के सामने प्लास्टिक का प्रीमैच्योर बेबी रख दिया. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, महिला अस्पताल में पेट में इंफेक्शन का इलाज कराने आती थी. और, उसकी प्रेग्नेंसी से जुड़े सभी कागजात भी प्लास्टिक के बच्चे की तरह ही नकली हैं. खैर, यहां सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर महिला ने ये स्वांग क्यों रचा?
मुझे फिल्म पीपली लाइव का एक सीन याद आ रहा है. जहां नत्था की आत्महत्या की खबर को कवर करने पहुंची मीडिया उसकी मां से बात करती है. रिपोर्टर सवाल पूछता है कि 'माता जी, आपका बेटा नत्था आत्महत्या की कगार पर खड़ा है. कैसा महसूस कर रही हैं आप?' जिस पर नत्था की मां कहती है कि 'नत्था काहे जान दे. अरे खुदकुशी करे ओखरी जोरू. उ धनिया. कुलटा. अभगपौरी. उ नागिन.' आप सोच रहे होंगे कि इस खबर का फिल्म पीपली लाइव के इस सीन से क्या लेना देना है? तो, जान लीजिए कि हमारे समाज में हर चीज का दोष महिलाओं पर ही डाल दिया जाता है. समाज में महिलाओं को घर के कामकाज, व्यवहार से लेकर तकरीबन हर चीज के लिए ही ताने दिए जाते हैं. दरअसल, भारतीय समाज में स्त्रियों के अधिकारों और सम्मान की सिर्फ बातें ही होती हैं. और, महिला ने प्लास्टिक के नकली बच्चे का स्वांग इसी तरह के तानों और बातों से उकता कर रचा होगा.
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, 40 वर्षीय इस महिला ने शादी के 18 साल बीत जाने के बावजूद किसी बच्चे को जन्म नहीं दिया था. और, इतने सालों से लगातार घर-परिवार के तानों और बांझ जैसे शब्दों से हर रोज ही दो-चार होती थी. और, इन्हीं रोज-रोज के तानों और बातों से तंग आकर महिला ने गर्भवती होने से लेकर गर्भपात तक का नाटक रचा. दरअसल, भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में आज भी संतान न होने या बेटा न होने पर महिलाओं को लगातार परिजनों से लेकर बाहरी लोगों तक की बुरी और भद्दी बातों को सुनना पड़ता है. जबकि, भले ही पुरुष में लाख कमियां हों या फिर वो खुद ही बच्चे पैदा करने के काबिल न हो. इसके बावजूद पितृसत्तात्मक समाज की वजह से सारा दोष महिलाओं के माथे ही आता है.
ये महिला भी बीते 18 सालों से यही दोष अपने सिर पर उठाए घूम रही थी. और, जब उसे इससे छुटकारे का कोई उपाय नहीं सूझा. तो, उसने नकली बच्चे का स्वांग रचकर इस अपमान और घुटन भरी रोज-रोज की जिंदगी से पीछा छोड़ने के बारे में सोच लिया. वैसे, यहां उस महिला के साहस की प्रशंसा जरूर की जानी चाहिए. आप सोच रहे होंगे कि साहस की तारीफ का क्या तुक बनता है? तो, जान लीजिए कि भारत में ही बांझ शब्द के तानों से उकताकर न जाने कितनी महिलाएं आत्महत्या जैसा कदम उठाने तक से परहेज नहीं करती हैं. वहां इस महिला ने ऐसा विचार अपने दिमाग में रखा ही नहीं. बल्कि, परिवार वालों का बच्चे के लिए उस पर बनाया जा रहा दबाव ही उसने बेनकाब कर दिया.
खुद ही सोचिए कि एक मृत प्रीमैच्योर बेबी को चेक करवाने के लिए कोई अस्पताल ले जाता है क्या? जबकि, उस महिला ने बच्चे को मृत ही बताया होगा. और, अगर अस्पताल पहुंच भी गए थे. तो, प्लास्टिक का खिलौना होने की बात सामने आने पर कोई अस्पताल से भागता है क्या? वैसे, उस महिला पर हर रोज बनने वाले दबाव और तनाव को शायद ही कोई समझ सकेगा. क्योंकि, उसे तो अब बच्चे न होने के तानों के साथ परिवार के साथ धोखा करने की बातें भी हमारे और आप जैसे लोगों द्वारा ही खूब चटकारे लगाकर सुनाई जाएगी. क्योंकि, हमारे समाज में पुरुषों का तो दोष कभी होता ही नहीं है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.