पचास के दशक की हिंदी फिल्म ‘बूट पॉलिश’ का एक गाना 'नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तकदीर हमारी' के बोल न सिर्फ बालश्रम की भट्टियों में धधकते बचपन के प्रति ललकार और संवेदना जगाती है, बल्कि हुकूमतों के लिए बाल समस्याओं पर अंकुश न लगाने व उनसे जुड़े उत्पीड़न और अपराध के प्रति घोर निराशा की अभिव्यक्ति भी है. बचपन उस कच्चे घड़े जैसा होता है जिसे जैसा चाहों बना दो. बच्चों से मजदूरी करवाना कुछ परिवारों की मजबूरी हो सकती है, पर उस दलदल से निकालने की जिम्मेदारी समाज की भी बनती है. इसके लिए हमें अपने भीतर जिद पैदा करनी होगी. ऐसी जिद जो बाल उत्पीड़न और बाल समस्याओं के खिलाफ बिगुल बजाए. जब तक समाज मुखर नहीं होगा, बात नहीं बनेगी. साल दर साल बढ़ती बाल श्रमिकों की संख्या वैसे ही चिंता का विषय बनीं हुई थी. कोरोना संकट ने और हवा दे दी. कोरोनाकाल में अनाथ हुए बच्चों का आंकड़ा भयभीत करता है.
करीब तीन लाख बच्चे अपने मां-बाप के न रहने से अनाथ हुए हैं. गनीमत ये है केंद्र व राज्य सरकारों ने इन अनाथ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और 21 वर्ष आयु पूरे होने तक समुचित देखरेख का जिम्मा अपने पर लिया है. कोई भी बच्चा दर-दर न भटके, मेहनत मजदूरी व बालश्रम से बचे, इसके लिए सरकारों ने जिलाधिकारों को जिम्मेदारी सौंपी है. निश्चित रूप से अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो बाल श्रमिकों की संख्या में और बढ़ोतरी हो सकती थी.
बालश्रम कलंक से कम नहीं? ये कलंक ना सिर्फ हिंदुस्तान के माथे पर है, बल्कि समूचे संसार की वैश्विक समस्या बन गई है. सिर्फ सरकार-सिस्टम पर सवाल उठाने से काम नहीं चलेगा? समाधान के रास्ते सामूहिक रूप से खोजने होंगे. सड़कों पर भीख मांगते बच्चे, ईट भट्टों पर काम...
पचास के दशक की हिंदी फिल्म ‘बूट पॉलिश’ का एक गाना 'नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तकदीर हमारी' के बोल न सिर्फ बालश्रम की भट्टियों में धधकते बचपन के प्रति ललकार और संवेदना जगाती है, बल्कि हुकूमतों के लिए बाल समस्याओं पर अंकुश न लगाने व उनसे जुड़े उत्पीड़न और अपराध के प्रति घोर निराशा की अभिव्यक्ति भी है. बचपन उस कच्चे घड़े जैसा होता है जिसे जैसा चाहों बना दो. बच्चों से मजदूरी करवाना कुछ परिवारों की मजबूरी हो सकती है, पर उस दलदल से निकालने की जिम्मेदारी समाज की भी बनती है. इसके लिए हमें अपने भीतर जिद पैदा करनी होगी. ऐसी जिद जो बाल उत्पीड़न और बाल समस्याओं के खिलाफ बिगुल बजाए. जब तक समाज मुखर नहीं होगा, बात नहीं बनेगी. साल दर साल बढ़ती बाल श्रमिकों की संख्या वैसे ही चिंता का विषय बनीं हुई थी. कोरोना संकट ने और हवा दे दी. कोरोनाकाल में अनाथ हुए बच्चों का आंकड़ा भयभीत करता है.
करीब तीन लाख बच्चे अपने मां-बाप के न रहने से अनाथ हुए हैं. गनीमत ये है केंद्र व राज्य सरकारों ने इन अनाथ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और 21 वर्ष आयु पूरे होने तक समुचित देखरेख का जिम्मा अपने पर लिया है. कोई भी बच्चा दर-दर न भटके, मेहनत मजदूरी व बालश्रम से बचे, इसके लिए सरकारों ने जिलाधिकारों को जिम्मेदारी सौंपी है. निश्चित रूप से अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो बाल श्रमिकों की संख्या में और बढ़ोतरी हो सकती थी.
बालश्रम कलंक से कम नहीं? ये कलंक ना सिर्फ हिंदुस्तान के माथे पर है, बल्कि समूचे संसार की वैश्विक समस्या बन गई है. सिर्फ सरकार-सिस्टम पर सवाल उठाने से काम नहीं चलेगा? समाधान के रास्ते सामूहिक रूप से खोजने होंगे. सड़कों पर भीख मांगते बच्चे, ईट भट्टों पर काम करते नौनिहाल, विभिन्न अपराधों में लिप्त बच्चे व शिक्षा से महरूम बच्चों को देखकर हमें आगे नहीं बढ़ना है, बल्कि पीछे आकर उनके लिए सिस्टम को ललकारना होगा.
उन्हें देखकर मुंह फेरना ही हमारा सबसे बड़ा अपराध है. हमारी चुप्पी ही बालश्रम जैसे कृत्य को बढ़ावा देती है. ऐसे बच्चों के बचपन की तुलना थोड़ी देर के लिए हमें अपने बच्चों से करनी चाहिए, फर्क अपने आप महसूस होगा. ऐसा करने से हमारे भीतर बेगाने बच्चों की प्रति संवेदना जगेगी और उनसे जुड़े जल्मों के खिलाफ अवाज उठाने की हिम्मत जगेगी. क्योंकि हमारे आंखों के सामने किसी भी बच्चे का बचपन खो जाना, शर्म वाली बात है.
बाल श्रम रोकना केवल सरकारों की ही जिम्मेदारी नहीं है, हमारा भी मानवीय दायित्व है. पर, ये समस्या किसी एक के बूते नहीं सुलझ सकती, इसके लिए सामाजिक चेतना, जनजागरण और जागरूकता की आवश्यकता होगी. बाल मजदूरी और बाल अपराध को थामने के लिए महिला बाल मंत्रालय, श्रम विभाग, समाज कल्याण विभाग व निपसिड सहित इस क्षेत्र में कार्यरत तमाम संस्थाएं, सरकार व गैर सरकारी संगठन, एनजीओ को लगना पडे़गा.
इसके लिए सबसे पहले सामाजिक स्तर पर बाल श्रमिकों के प्रति आम लोगों के जेहन में संवेदना जगानी होगी और बाल श्रम के खिलाफ मन में लड़ाई की प्रवृति पैदा करनी होगी. ताजा आंकड़ा बताता है कि बीते एकाध दशकों से एशिया में सबसे ज्यादा बाल तस्करी हिंदुस्तान में हुई हैं. सिलसिला रूका नहीं, बल्कि तेज गति से जारी है. पिछड़े राज्यों में बाल तस्करों का बड़ा गैंग इस काम में सक्रिय है, जो मासूम बच्चों को किडनैप करके उन्हें कुछ समय बाद भीख मांगने या मजदूरी के काम लगा देते हैं.
कुछ बच्चों को अपराध की दुनिया में भी उतार देते हैं. बंधुआ बाल मजदूरी और बाल तस्करी किसी भी संपन्न या विकसित देश मांथे पर बदनुमा दाग है. बाल मजदूरी व बाल तस्करी दोनों कृत्यों में एक बड़ा गैंग सक्रिय होकर अंजाम देता है. नेशनल क्राइम ब्यूरों के आंकड़े बताते हैं कि तस्कर गिरोह समूचे हिंदुस्तान में रोजाना सैकड़ों बच्चे किडनेप करते हैं जिन्हें बाद में भीख मंगवाने, मजूदरी, बाल अपराध और बाल श्रम की आग में झोंकते हैं.
सड़क, बाजार व अन्य जगहों पर की जाने वाली स्नैचिंग की ज्यातर घटनाओं को कम उम्र के बच्चे ही अंजाम देते हैं. उन्हें बाकायदा पहले प्रशिक्षण दिया जाता है. उद्योग, कल-कारखाने व कंपनियों वाले बच्चों से मजदूरी इसलिए भी कराते हैं क्योंकि इसके एवज में उन्हें कुछ देना नहीं पड़ता, बिना बिना भुगतान के वह बच्चों कुछ थोड़ा खाना चिालाकर ही उनसे शारीरिक कार्य करवा लेते हैं.
बाल श्रम रोकने मेें सरकारी व सामाजिक दोनों के प्रयास नाकाफी न रहें, सभी को ईमानदारी से इस दायित्व में आहूति देनी चाहिए. कानूनों की कमी नहीं है, कई कानून सक्रिय हैं. बाल श्रम अधीनियम 1986 के तहत ढाबों, घरों, होटलों में बाल श्रम करवाना दंडनीय अपराध है. बावजूद इसके लोग बाल श्रम को बढ़ावा देते हैं. बच्चों को वह अपने प्रतिष्ठिनों में इसलिए काम दे देते हैं क्योंकि उन्हें कम मजदूरी देनी पड़ती है. लेकिन वह यह भूल बैठते हैं कि वह कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं.
बाल मजदूरी रोकने के लिए 1979 में बनी गुरुपाद स्वामी समिति ने बेहतरीन काम किया था. उसके बाद अलग मंत्रालय, आयोग, संस्थान और समीतियां बनीं, लेकिन बात फिर वहीं आकर रूक जाती है कि जबतक आमजन की सहभागिता नहीं होगी, सरकारी प्रयास भी नाकाफी साबित होंगे. विश्व भर में 21-22 करोड़ बच्चे आज भी श्रम की भट्टियों में अपना बचपन झोंके हुए हैं.
ये संख्या हिंदुस्तान में करीब पौने दो करोड़ के आसपास है. चाय की दुकानें, ढ़ाबे, छोटे-बड़े होटलों में आज भी आपको छोटू ही मिलेंगे. नहीं कुछ कर सकते तो कम से कम उनके इस हाल का कारण तो जान ही सकते हैं? खुदा ना खास्ता बच्चा किडनैप करके लाया गया हो, तो आपकी मदद से आजाद भी हो सकता है. देहरादून हाईवे पर बीते कुछ महीने पहले ऐसी ही एक घटना घटी. होटल पर एक दंपति चाय पी रहे थे, चाय देने आया वाला बच्चा सिसक-सिसक कर रो रहा.
दंपति ने उनके रोने की वजह पूछी तो उसने सारा हाल बयां कर दिया. बच्चे ने बताया उसे जबरदस्ती झारखंड से लाया गया है. दंपति ने चुपके से स्थानीय पुलिस को फोन कर दिया. पुलिस ने पहुंचकर बच्चे को अपने कब्जे में लिया और थाने ले गई. बाद में पता चला बच्चा वहां से किडनैप करके लाया गया था और ढ़ाबे वाले को पचास हजार में बेच दिया था.
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