दरअसल लड़ाई इस बात की है कि दंड देने की शक्ति किसके पास रहेगी ? इसीलिए दंडाधिकारियों की नियुक्ति पर बवाल है. हर बात में हर मामले में हर पक्ष के पूर्वाग्रह रहित, पारदर्शी और निष्पक्ष होने की मांग होती है लेकिन स्वयं को परहेज है तभी तो कॉलेजियम चाहिए. जिस प्रकार कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका घमासान मचा हुआ है, निश्चित ही संविधान शर्मसार हो रहा है. इसके साथ ही थोड़ी सी भी समझ रखने वाले लोग निराश हैं. इस भारी भरकम 'तू तू मैं मैं' से. चूंकि दोनों ही पक्ष अतिरिक्त सफेदपोश हैं तो शब्दों की मर्यादा का ख्याल अवश्य रखा जा रहा है, लेकिन वार प्रतिवार सीमा लांघते प्रतीत हो रहे हैं. न्यायालयों में जजों के तबादले और नियुक्ति पर होने वाली सियासत कोई नई नहीं है.
आखिर कॉलेजियम सिस्टम है क्या? 1993 तक सभी न्यायाधीशों, जजों की नियुक्ति सरकार करती थी. सिर्फ भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श होता था. संविधान में लिखा है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करेंगे. यानी विधि मंत्री पूरी फाइल पर काम करते हैं, पीएम की अनुमति से राष्ट्रपति के पास भेजते हैं. मुख्य न्यायाधीश के पास सिर्फ परामर्श के लिए भेजते थे. 1993 के बाद सबसे पहले जब न्यायाधीश की नियुक्ति का मामला आया, उसमें सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में लिखे 'परामर्श' शब्द को 'सहमति' के रूप में परिभाषित कर दिया. न्यायपालिका और सरकार के बीच तनाव की शुरुआत तभी से हो गई थी.
इसके बाद कॉलेजियम सिस्टम का 1998 में विस्तार किया गया. आज उच्च/उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम से फाइल विधि मंत्री के पास आती है. इसके बाद इसमें प्रक्रिया पूरी की जाती है. अंग्रेजी की कहावत है, ''Absolute Power Corrupts Absolutely'' और वही इसी सिस्टम में होने भी लगा. कॉलेजियम की तरफ से अगर किसी का नाम सुझाया गया है, तो केंद्र सरकार केवल एक बार उसे वापस कर सकती है, लेकिन दूसरी बार अगर संबंधित व्यक्ति के...
दरअसल लड़ाई इस बात की है कि दंड देने की शक्ति किसके पास रहेगी ? इसीलिए दंडाधिकारियों की नियुक्ति पर बवाल है. हर बात में हर मामले में हर पक्ष के पूर्वाग्रह रहित, पारदर्शी और निष्पक्ष होने की मांग होती है लेकिन स्वयं को परहेज है तभी तो कॉलेजियम चाहिए. जिस प्रकार कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका घमासान मचा हुआ है, निश्चित ही संविधान शर्मसार हो रहा है. इसके साथ ही थोड़ी सी भी समझ रखने वाले लोग निराश हैं. इस भारी भरकम 'तू तू मैं मैं' से. चूंकि दोनों ही पक्ष अतिरिक्त सफेदपोश हैं तो शब्दों की मर्यादा का ख्याल अवश्य रखा जा रहा है, लेकिन वार प्रतिवार सीमा लांघते प्रतीत हो रहे हैं. न्यायालयों में जजों के तबादले और नियुक्ति पर होने वाली सियासत कोई नई नहीं है.
आखिर कॉलेजियम सिस्टम है क्या? 1993 तक सभी न्यायाधीशों, जजों की नियुक्ति सरकार करती थी. सिर्फ भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श होता था. संविधान में लिखा है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करेंगे. यानी विधि मंत्री पूरी फाइल पर काम करते हैं, पीएम की अनुमति से राष्ट्रपति के पास भेजते हैं. मुख्य न्यायाधीश के पास सिर्फ परामर्श के लिए भेजते थे. 1993 के बाद सबसे पहले जब न्यायाधीश की नियुक्ति का मामला आया, उसमें सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में लिखे 'परामर्श' शब्द को 'सहमति' के रूप में परिभाषित कर दिया. न्यायपालिका और सरकार के बीच तनाव की शुरुआत तभी से हो गई थी.
इसके बाद कॉलेजियम सिस्टम का 1998 में विस्तार किया गया. आज उच्च/उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम से फाइल विधि मंत्री के पास आती है. इसके बाद इसमें प्रक्रिया पूरी की जाती है. अंग्रेजी की कहावत है, ''Absolute Power Corrupts Absolutely'' और वही इसी सिस्टम में होने भी लगा. कॉलेजियम की तरफ से अगर किसी का नाम सुझाया गया है, तो केंद्र सरकार केवल एक बार उसे वापस कर सकती है, लेकिन दूसरी बार अगर संबंधित व्यक्ति के नाम को सुझाया जाता है तो सरकार उसे स्वीकार करने के लिए बाध्य होती है. कॉलेजियम व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के साथ ही अन्य 4 जज भी शामिल होते हैं. सो कॉलेजियम की सूरत 'एक जस्टिस का बेटा पैदाइशी जस्टिस' सरीखी हो ही सकती थी और ऐसा हुआ भी. जान पहचान वाले के नामों की सिफारिश होने लगी और फिर ऐसा होना स्वाभाविक भी था.
आप न्यायाधीश हैं और अगले न्यायाधीश को मनोनीत करना है तो आप तो वही न्यायाधीश चुनेंगे जिसे आप जानते हैं. आप ऐसा व्यक्ति तो नहीं चुनेंगे जिसे आप नहीं जानते. लॉजिक भी होगा कि आप जानते हैं, तभी तो सिफारिश करते हैं. तो आप आ गए ना कार्यपालिका की प्रक्रिया में; तो आप जिसे जानते हैं, जो करीबी हैं या परिवार से जुड़े हैं, उसी को आप मनोनीत करेंगे और इसलिए आरोप भी लगेंगे. आलोचना भी होगी. चूंकि न्यायाधीश ही अगले न्यायाधीश की नियुक्ति करता है, ट्रांसफर करता है. दरअसल न्यायपालिका के भीतर की राजनीति दिखती नहीं है. वहां चयन प्रक्रिया में इतनी गहन बहस होती है कि गुटबाजी तक हो जाती है. स्पष्ट है किसे अगला न्यायाधीश बनाना है, उसकी प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है.
तो महसूस क्यों न हो कि न्यायाधीशों का दिमाग और आधा समय अगला न्यायाधीश किसे बनाना है, इस पर खर्च हो रहा है, न कि पूरा समय न्याय करने में. बहुत बड़ा एक कारण यही तो है और यदि न्यायाधीश की कोई निर्णायक भूमिका न हो आगामी न्यायाधीश के चुनने में तो आलोचना खुद ब खुद बंद न होगी क्या? इसी वजह से 2014 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने ही जजों की नियुक्ति से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए कॉलेजियम की जगह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया था. नतीजन पुरानी कॉलेजियम व्यवस्था बदस्तूर कायम रही. हालांकि सुप्रीम पीठ के एक न्यायाधीश माननीय चेलमेस्वर आयोग के पक्षधर थे.
निष्कर्ष यही है कि कॉलेजियम प्रणाली में योग्य उम्मीदवारों के बीच श्रेष्ठता परीक्षण वास्ते प्रतियोगिता नहीं होती बल्कि अनुशंसा के आधार पर नियुक्ति होती है. ऐसे में भ्रष्टाचार तो नहीं, लेकिन पक्षपात जरूर हो सकता है. क्योंकि नियोक्ता पैनल अपने परिचितों और रिश्तेदारो को नियुक्ति में तरजीह देते हैं. हां, बात सिर्फ उच्च और उच्चतम न्यायालय की हो रही है, निचली अदालतों में तो नियुक्ति प्रवेश परीक्षा द्वारा होती है. वर्तमान स्थिति विकट है. इसमें निःसंदेह न्याय और विधि मंत्री किरण रिजिजू मुखरता से लक्ष्मण रेखा पार कर गए जब उन्होंने सरकार की ओर से अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जांच का कहे जाने पर कह दिया कि कॉलेजियम के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति की भी इसी तरह की जांच की जा सकती है. वे इतने पर भी नहीं रुके और सुप्रीम कोर्ट की धारणा पर तीखी प्रतिक्रिया दे दी कि केंद्र सरकार कॉलेजियम द्वारा की गई सिफारिशों को दबाये बैठा है.
उन्होंने कहा, ''ऐसा मत कहिए कि हम फाइलों को दबाए बैठे हैं, लेकिन अगर आप ऐसा कहना ही चाहते हैं, तो अपने दम पर जज नियुक्त करें और सारा काम चलाएं.'' हो गई ना सर्वशक्तिमान की हस्ती को चुनौती देने वाली बात. वह चुप कैसे रह सकती थी, सो न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति ए.एस. ओका की पीठ ने कहा कि 'उन्हें' हमें यह शक्ति देने दीजिये और फिर हम ऐसा ही करेंगे. कुल मिलाकर टकराव की स्थिति स्पष्ट दृष्टिगोचर है. वैसे देखा जाए तो सर्वोच्च सत्ता भी समझती है कॉलेजियम व्यवस्था के वाजिब विरोध को. वरना वह धैर्य ना रखती और अवमानना का नोटिस जारी कर सकती थी. उलटे पीठ ने माना कि नियुक्ति कानून को लेकर कई लोगों को आपत्ति हो सकती है, लेकिन जब तक यह कायम है, यही देश का कानून है. जस्टिस कौल का सवाल था, ''तथ्य यह है कि एनजेएसी के पास संवैधानिक अधिकार नहीं है, पर यह देश के कानून का पालन नहीं करने का कोई कारण नहीं हो सकता है. आइए इसके दुष्परिणामों को देखते हैं. कभी-कभी, सरकार द्वारा बनाए गए किसी कानून को सुप्रीम कोर्ट द्वारा बरकरार रखा जाता है. समाज का एक वर्ग हमेशा ऐसा हो सकता है जो नाखुश होगा. क्या समाज का वह वर्ग कह सकता है कि हम कानून का पालन नहीं करेंगे.''
वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे भी मानते हैं कि 'एजेएसी' को लेकर दिया गया सुप्रीम कोर्ट का निर्णय त्रुटिपूर्ण है. उन्होंने इस दावे से असहमति जताई है कि संस्थागत प्रक्रिया में न्यायाधीशों की नियुक्ति में राजनीतिक कार्यपालिका की भूमिका नहीं होनी चाहिए. उनका सुझाव है कि संसद न्यायाधीशों की नियुक्ति के साथ न्यायाधीशों के चयन प्रक्रिया की समिति की संरचना पर पुनर्विचार कर इसे एक अधिक प्रतिनिधि निकाय के रूप में डिज़ाइन करें. उन्होंने आगे कहा कि न्यायाधीश सार्वजनिक रूप से नियुक्तियों या तबादलों पर मतभेद प्रदर्शित करते हैं तो उनका सम्मान कम होता है.
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