सांवली लड़कियों के पीछे घर की बूढ़ी अम्माएं बचपन से एक ही रोना रोतीं कि 'उबटन लगाया करो, कल को शादी भी नहीं होगी'. बचपन से ही लड़कियों के दिमाग में ये बात फीड कर दी जाती है कि अगर तुम अच्छी (मतलब गोरी) नहीं दिखोगी तो तुम्हारी शादी नहीं होगी.
मेट्रीमोनियल साइट्स पर सांवली लड़कियां कहां मांगी जाती हैं? एक ही योग्यता होनी चाहिए कि लड़की का रंग गोरा हो. दुर्भाग्य है कि समाज गोरे रंग को ही द बेस्ट समझता है. और इस मानसिकता का अगर किसी ने भरपूर फायदा उठाया है तो वो है फेयरनेस क्रीम कंपनियां.
सांवले रंग को खूब भुना रही हैं फेयरनेस क्रीम कंपनियां |
ये फेयरनेस क्रीम कंपनियों के विज्ञापन उन तानों को और भी मजबूती देते हैं जो लड़कियों को उनके घर में ही दिए जाते हैं. जब भी टीवी खोलो तो हर दस मिनट में ये विज्ञापन लड़कियों को उनकी कमी का अहसास कराते हैं. उनके मनोबल को तोड़ने में आखिरी कील का काम यही तो करते हैं.
लड़कियों को बेहद बेवकूफ और बददिमाग समझने वाली ये फेयरनेस क्रीम कंपनियां मेकअप की भयंकर मोटी परत चढ़ाकर आई मॉडल को सामने खड़ा कर देती हैं, जिससे लड़कियां कमतर महसूस करें, उन्हें बुरा लगे और वो इस फेयरनेस क्रीम पर टूट पड़ें. आजकल के विज्ञापनों में तो मॉडल इतनी ज्यादा गोरी दिखा दी जाती है कि आंखे ही चौंधिया जाएं. अब तो दो हफ्तों में फेयरनेस क्रीम गोरेपन के साथ-साथ आत्मविश्वास और नौकरियां भी दिलाने लग गई हैं.
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सांवली लड़कियों के पीछे घर की बूढ़ी अम्माएं बचपन से एक ही रोना रोतीं कि 'उबटन लगाया करो, कल को शादी भी नहीं होगी'. बचपन से ही लड़कियों के दिमाग में ये बात फीड कर दी जाती है कि अगर तुम अच्छी (मतलब गोरी) नहीं दिखोगी तो तुम्हारी शादी नहीं होगी.
मेट्रीमोनियल साइट्स पर सांवली लड़कियां कहां मांगी जाती हैं? एक ही योग्यता होनी चाहिए कि लड़की का रंग गोरा हो. दुर्भाग्य है कि समाज गोरे रंग को ही द बेस्ट समझता है. और इस मानसिकता का अगर किसी ने भरपूर फायदा उठाया है तो वो है फेयरनेस क्रीम कंपनियां.
सांवले रंग को खूब भुना रही हैं फेयरनेस क्रीम कंपनियां |
ये फेयरनेस क्रीम कंपनियों के विज्ञापन उन तानों को और भी मजबूती देते हैं जो लड़कियों को उनके घर में ही दिए जाते हैं. जब भी टीवी खोलो तो हर दस मिनट में ये विज्ञापन लड़कियों को उनकी कमी का अहसास कराते हैं. उनके मनोबल को तोड़ने में आखिरी कील का काम यही तो करते हैं.
लड़कियों को बेहद बेवकूफ और बददिमाग समझने वाली ये फेयरनेस क्रीम कंपनियां मेकअप की भयंकर मोटी परत चढ़ाकर आई मॉडल को सामने खड़ा कर देती हैं, जिससे लड़कियां कमतर महसूस करें, उन्हें बुरा लगे और वो इस फेयरनेस क्रीम पर टूट पड़ें. आजकल के विज्ञापनों में तो मॉडल इतनी ज्यादा गोरी दिखा दी जाती है कि आंखे ही चौंधिया जाएं. अब तो दो हफ्तों में फेयरनेस क्रीम गोरेपन के साथ-साथ आत्मविश्वास और नौकरियां भी दिलाने लग गई हैं.
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लेकिन ये बहुत दुख की बात है कि पढ़ी-लिखी होने के बावजूद भी लड़कियां इन विज्ञापनों के झांसे में आ जाती हैं. इन विज्ञापनों में शब्दों का इतनी खूबसूरती से इस्तेमाल किया जाता है कि लड़कियों को खुदपर शर्म भी आए और वो हारकर ये प्रोडक्ट खरीदने पर मजबूर भी हो जाएं.
मसलन एक खिलाड़ी को भी जलील किया जाता है कि वो कितनी भी अच्छी प्लेयर हो, लेकिन अगर गोरी नहीं तो वो बेकार है. 'टीम के लिए इतने मैच जीते लेकिन डॉर्क स्पॉट्स ने हरा दिया'. लड़की कितना ही पढ़ लिख जाए लेकिन गोरी नहीं तो सब बेकार 'एग्जाम में इतनी मेहनत करो, और मिलते हैं ये डार्क सर्कल्स'
काला रंग और दाग धब्बे असलियत में लड़कियों को इतना परेशान नहीं करते जितना कि ये विज्ञापन उन्हें अहसास करवाते हैं. इस गोरखधंधे के खिलाफ बॉलीवुड एक्ट्रेस एश्वर्या राय ने फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन करने से सिर्फ इसीलिए मना कर दिया क्योंकि वो असलियत में गोरा नहीं बनातीं. सच्चाई भी यही है कि कोई भी कंपनी किसी काले इंसान को गोरा बना ही नहीं सकती, लेकिन बजाए लड़कियों को ये बताने के ये विज्ञापन ये जताते हैं कि लड़कियां अगर गोरी नहीं तो उनका जीवन व्यर्थ है.
लेकिन अब लगता है कि ये फेयरनेस क्रीम लड़कियों को और भ्रमित नहीं कर सकेंगी. राज्यसभा में शून्य काल के दौरान कई महिला सांसदों ने फेयरनेस क्रीम के विज्ञापनों पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि विज्ञापनों की भाषा महिलाओं के सम्मान के खिलाफ है. ऐसी क्रीम महिलाओं में हीन भावना पैदा करती हैं. उन्होंने सरकार से फेयरनेस क्रीम के विज्ञापनों पर रोक लगाने की मांग की है.
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कांग्रेस सांसद रेणुका चौधरी ने इस मुद्दे पर कहा कि 'सफलता के लिए इंसान का रंग नहीं बल्कि उसके दिमाग की जरूरत होती है और इसके उदहारण है मिशेल ओबामा और बराक ओबामा, जिनका पूरी दुनिया सम्मान करती है. पूरी दुनिया उन्हें उनके रंग कें लिये नहीं उनके काम के लिए जानती हैं.'
सरकार लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए नए-नए अवसर प्रदान कर रही है, लेकिन ये फेयरनेस कंपनियां उनके आत्मविश्वास को कमजोर करने का काम कर रही हैं. बेहतर तो यही है कि इन कंपनियों पर लगाम कसी जाए और ये मुद्दा सिर्फ विपक्ष का मुद्दा बनकर न रह जाए. लड़कियां जैसी हैं, वैसी ही आगे बढ़ती चली जाएं. हर ताने का जवाब अपने हुनर से दें. और रही बात मेट्रीमोनल्स की तो काबिलियत के आगे कोई रंग टिकता है भला.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.