ज़िंदगी की सबसे आखिरी सीढ़ी का नाम मौत है. मौत हर किसी को आती है औऱ आनी है. मौत के बाद भी एक परंपराएं हैं. शोक मनाए जाने की रस्में हैं. मरने वाला किसी भी धर्म का हो किसी भी जाति का हो, मगर उसके मरने के बाद के कुछ उसूल हैं कुछ दस्तूर हैं. मौत के बाद रोने-धोने का चलन है, शोक सांत्वनाओं का दौर है, मातम है. तरीके ज़रूर अलग-अलग हैं लेकिन ग़म का माहौल हर जगह है. यह एक ऐसा समय होता है जब मरने वाले के परिवार के लोगों को ज़रूरत होती है उनके साथ खड़े होकर उनके दुख को हल्का करने की. मरने वाले लोगों के लिए उनके परिवार वाले कफन का इंतज़ाम करते हैं, शमशान से लेकर कब्रिस्तान तक का सफर तय कराते हैं. अंतिम संस्कार की रस्मों में किसी भी तरह की कमी को कोई भी परिवार बर्दाश्त नहीं करता है. और खासतौर पर भारतीय संस्कृति में रहने वाला इंसान तो कतई नहीं. आप सोच सकते हैं कि किसी के परिवार में किसी की मृत्यु हो जाए औऱ वह उसका अंतिम संस्कार बिना रस्मों के कर डाले. ऐसा भारतीय संस्कृति में तो बिल्कुल भी मुमकिन नहीं है. लेकिन वक्त ने हमें ये दर्दनाक तस्वीर दिखा डाली है.
आमतौर पर ऐसी मुसीबत युद्ध के समय आती है या नरसंहार के समय देखने को मिलती है, या फिर किसी बड़े प्राकृतिक आपदाओं के समय देखी जाती है. उसमें तो शव तक नसीब नहीं होता है, अंतिम संस्कार करना तो दूर की बात होती है. उसमें अपनों को खो देने वाले लोगों को अफसोस होता है कि उन्हें शव तक नहीं मिल सका है. वह रोते हैं, बिलखते हैं, चीखते हैं, मातम करते हैं सिर्फ इसलिए कि वह लोग अपनों का आखिरी बार दीदार तक नहीं कर सके हैं. लेकिन ज़रा सा अभी के हालातों पर नज़र डालिए. आप बिलख उठेंगें, दर्द से कराह उठेंगें, और रोने लगेंगें अगर सही मायनों में आपने इस दर्द को महसूस कर लिया.
ज़िंदगी की सबसे आखिरी सीढ़ी का नाम मौत है. मौत हर किसी को आती है औऱ आनी है. मौत के बाद भी एक परंपराएं हैं. शोक मनाए जाने की रस्में हैं. मरने वाला किसी भी धर्म का हो किसी भी जाति का हो, मगर उसके मरने के बाद के कुछ उसूल हैं कुछ दस्तूर हैं. मौत के बाद रोने-धोने का चलन है, शोक सांत्वनाओं का दौर है, मातम है. तरीके ज़रूर अलग-अलग हैं लेकिन ग़म का माहौल हर जगह है. यह एक ऐसा समय होता है जब मरने वाले के परिवार के लोगों को ज़रूरत होती है उनके साथ खड़े होकर उनके दुख को हल्का करने की. मरने वाले लोगों के लिए उनके परिवार वाले कफन का इंतज़ाम करते हैं, शमशान से लेकर कब्रिस्तान तक का सफर तय कराते हैं. अंतिम संस्कार की रस्मों में किसी भी तरह की कमी को कोई भी परिवार बर्दाश्त नहीं करता है. और खासतौर पर भारतीय संस्कृति में रहने वाला इंसान तो कतई नहीं. आप सोच सकते हैं कि किसी के परिवार में किसी की मृत्यु हो जाए औऱ वह उसका अंतिम संस्कार बिना रस्मों के कर डाले. ऐसा भारतीय संस्कृति में तो बिल्कुल भी मुमकिन नहीं है. लेकिन वक्त ने हमें ये दर्दनाक तस्वीर दिखा डाली है.
आमतौर पर ऐसी मुसीबत युद्ध के समय आती है या नरसंहार के समय देखने को मिलती है, या फिर किसी बड़े प्राकृतिक आपदाओं के समय देखी जाती है. उसमें तो शव तक नसीब नहीं होता है, अंतिम संस्कार करना तो दूर की बात होती है. उसमें अपनों को खो देने वाले लोगों को अफसोस होता है कि उन्हें शव तक नहीं मिल सका है. वह रोते हैं, बिलखते हैं, चीखते हैं, मातम करते हैं सिर्फ इसलिए कि वह लोग अपनों का आखिरी बार दीदार तक नहीं कर सके हैं. लेकिन ज़रा सा अभी के हालातों पर नज़र डालिए. आप बिलख उठेंगें, दर्द से कराह उठेंगें, और रोने लगेंगें अगर सही मायनों में आपने इस दर्द को महसूस कर लिया.
हम बात कर रहे हैं कोरोना वायरस से हुयी मौतों की. कितने दस्तूर बनाए थे हमने और हमारे धर्मों ने. मुर्दे को कैसे कफन पहनाना है और कैसे उसकी अंतिम सस्ंकार की क्रिया को करना है, कैसे उसकी शव को आखिरी दहलीज़ तक पहुंचाना है. कितने नियम थे कितने कानून थे, एक महामारी ने हमसे वो सारे अधिकार छीन लिए. अपनों की मौत के बाद रोने से दिल हल्का हो जाता है, रोना प्राकृतिक है आंसू आते ही हैं, दुख को हल्का करने के लिए रोना ज़रूरी भी है. अपनों का पास होना भी ज़रूरी है जो सहारा देते हैं दुख को हल्का करते हैं.
लेकिन अफसोस इस बीमारी ने हमें इतना कमज़ोर और इतना असहाय बना दिया है कि हम चाह कर भी किसी के दुख में खड़े होने से कतराते हैं. हम समाज के दर्द की बातें नहीं करेंगें, हम बात करेंगें उन बेचारों की, उन गम के मारों की, जिन पर ये बीमारी एक पहाड़ बनकर टूटी है. वह लोग जब तक इस ज़मीन पर रहेंगें इस बीमारी को आखिरी सांस तक याद रखेंगें और इस मनहूस घड़ी को हमेशा कोसेंगें.
बात शुरू करते हैं बीमारी से यानी संक्रमित होने से. घर का कोई भी सदस्य बीमार पड़ता है तो उसकी तीमारदारी की जाती है. मरीज़ अस्पताल मे हो या फिर घर में उसकी खातिरदारी को परिवार का कोई न कोई सदस्य मौजूद ही रहता है. लेकिन कोरोना एक ऐसी बीमारी है जिसने इस तीमारदारी के दस्तूर का भी गला घोंट डाला है. संक्रमित मरीज़ को एंबुलेंस आकर ले जाती है लेकिन साथ में कोई भी खातिरदारी के लिए नहीं जाता है. घर के लोग न तो खाना खिला सकते हैं न तो पानी पिला सकते हैं.
हद तो यह है कि वह मरीज़ को करीब से देख भी नहीं सकते हैं उनसे उनकी परेशानियां तलक नहीं पूछ सकते है न ही उनको दवा तक खिला सकते हैं. एक बार में घर का एक ही सदस्य उनका दीदार कर सकता है वह भी दूर से एक खिड़की से. आमतौर पर जब हमारा कोई मरीज़ अस्पताल में सीरियस होता है तो हम मिनट टू मिनट उसकी ओर टकटकी लगाए हुए होते हैं. उसकी हरेक हरकत पर निगाह रखते हैं उसकी थोड़ी सी भी परेशानी पर दौड़ उठते हैं डाक्टर साहब या सिस्टर के पास. देखिये हमारे मरीज़ को ये तकलीफ हो रही है, लेकिन कोरोना ऩे यह चलन भी छीन लिया है.
अब हमारा मरीज़ किस हाल में है हमें नहीं मालूम होता है. जब उसे सांस लेने में तकलीफ होती है तो ईश्वर जाने अस्पताल का स्टाफ कितनी तेज़ उसे वेंटीलेटर का सहारा देता होगा.परेशानियों में रह रहे मरीज़ के परिवार वालों के पास अचानक से फोन आता होगा और बताया जाता होगा आपके मरीज़ को सांस लेने में परेशानी हो रही है वेंटीलेटर का सहारा दिया गया है तो उस परिवार के सदस्यों पर क्या बीतती होगी. हरेक चाहता होगा जल्द से जल्द उनके पास चले जाएं उनसे मिल लें, लेकिन अफसोस परिवार के लोग कुछ नहीं कर सकते हैं, कुछ नहीं कर सकते हैं.
फिर जब खबर मिलती होगी कि आपका मरीज़ अब नहीं रहा तो वह किस तरह से उस दर्द को बर्दाश्त करते होंगें. अपने घर का वो करीबी मरीज़ जिसको घर से हफ्तों पहले ले जाया गया होगा उसके लौट आने की दुआ और उम्मीद सबने की रही होगी, वह मरीज़ तो पलटकर नहीं आता है लेकिन उसकी मौत की खबर ज़रूर आती है. हमारी संस्कृति में जब मौत की खबर सुनी जाती है तो लोग मरने वाले के घर पर एकठ्ठा होते हैं, दिलासा देते हैं, दर्द को कम करते हैं लेकिन इस महामारी ने जब लोगों को निगला तो दिलासा देने वाला भी कोई न रहा, सब फोन पर ही दिलासा दे देना चाहते हैं करीब आने से हर कोई डरता है वह अपना सगा ही क्यों न हो.
मौत की खबर आती है तो तैयारियां शुरू होती है, शव को लाना है, स्नान कराना है, कफन देना है, अर्थी उठानी है, कंधा देना है, कब्र खुदवानी है, शमशान घाट में तैयारी करनी है. ये तो मौत की परंपराएं हैं जो होती ही हैं वह कैसे भी हालात में हों, कोरोना ने इसका निज़ाम भी बदल डाला है, इसमें न तो शव घर आता है न शव को स्नान कराया जाता है, न कफन दिया जाता है, न अर्थी उठती है, न कांधा दिया जाता है. परंपरांए चकनाचूर हो जाती हैं, शव सीधे शमशान या कब्रिस्तान ले जाया जाता है, भीड़ में केवल घर के ही पांच सदस्य होते हैं जो एक दूरी से अंतिम संस्कार की क्रिया को देखते हैं.
उनको आखिरी दीदार तक नहीं हो पाता है. उनको उऩके अपने का शव छूने तक नहीं दिया जाता है. कोई अपना सदा के लिए दूर जा रहा होता है और उसे दूर से देखना जब वह किसी पन्नी जैसे चीज़ में लिपटा हुआ हो न तो उसका चेहरा दिखता है न ही उसकी कोई आवाज़. ये कितना दर्दनाक मंज़र रहता होगा, कैसे सह लेते होंगें वो लोग जिनके सामने ये सब होता होगा. ये घुटन भरा लम्हा लिखा नहीं जा रहा है जबकि मैंने सिर्फ सुना है देखा नहीं है. जो अभी चंद घंटे पहले तक मरीज़ रहा हो वह आखिरी सांस गिनते हुए ज़रूर चाह रहा होगा कि कोई उसका उसके अपने पास हो लेकिन वह आखिरी चाह सिर्फ चाह ही रह जाती है, अकेले में आखिरी सांस लेते हुए दम तोड़ देने वाला मरीज़ किस हाल में रहा होगा ये सोचते हुए भी रूह कांप उठती है.
मौत आनी है सबको आनी है, लेकिन ये मौत ईश्वर किसी दुश्मन को भी न दे, जो दर्द के नाम पर ज़िंदगी भर साथ बनी रहे. एक हादसा पढ़ा जिससे दिल बेचैन हो उठा इसे हादसा ही लिखुंगा. मात्र 14 साल का एक बच्चा गुजरात में संकृमित हुआ और फिर वह मौत की आगोश में चला गया, मां बाप दोनों थे लेकिन अपने बेटे को न तो आखिरी बार देख सकते थे न ही छू सकते थे. सोचिये कितना डरावना रहा होगा वह क्षण कैसे बर्दाश्त किया होगा. क्या ये सब इंसान के बर्दाश्त कर लेने की क्षमता है.
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में ऐसा हो रहा है कोई कुछ नहीं कर पा रहा है इस वायरस ने सबको पत्थर बना दिया है सबकी परीक्षा ले रहा है. 3 दिन के बच्चे से लेकर 103 साल के बूढ़े तक की जानें गई हैं. हर कोई मजबूर है बेबस है और हालात के आगे दम तोड़ चुका है. बहुत कम ही हुआ जब किसी अपने ने कब्र पर मिट्टी डाली हो या फिर शव को मुखाग्नि दी हो, कितने शव लावारिस रह गए उनका कोई अपना उन तक पहुंचा भी नहीं, सोचिए इस बीमारी ने लोगों को कितना बेरहम बना दिया कितना सख्त बना दिया है.
हम उस तकलीफ का अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते हैं जो संक्रमण से मरने वालों के परिवार के सदस्य उठा रहे हैं. उनकी पीणा उनके दर्द को महसूस भी नहीं किया जा सकता है. समाज के सारे नियम कानून की धज्जियां उड़ गई है. एक बीमारी ने हमें सिखा दिया है कि न कोई अपना होता है न ही कोई रस्म हमेशा रहती है.
इस बीमारी ने करोड़ों परिवार को वह ज़ख्म दे दिया है जो हमेशा के लिए रहने वाला है. हम उन उजड़े हुए परिवारजनों की तकलीफ को तो दूर नहीं कर सकते हैं लेकिन उनकी ढ़ारस ज़रूर बंधा सकते हैं, उनकी हिम्मत को ज़रूर दाद दे सकते हैं और उनकी इस मुसीबत भरी घड़ी के टल जाने की ज़रूर दुआ करते हैं.
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