बिहारी पैदा होते हैं फिर जैसे तैसे बड़े होते हैं. पढ़ते हैं. ज़्यादातर पढ़ाई पूरी भी नहीं कर पाते और नौकरी के लिए अपना घर-दुआर छोड़ कर छिछियाने निकल पड़ते हैं. कभी दिल्ली में गाली सुनते 'साला बिहारी कहीं का', तो गुजरात से मार-पीट कर भगाए जाते हैं या फिर मुंबई वाले उसकी दुकानें जला डालते हैं. वो दर-दर की ठोकर खाता रहते हैं फिर भी उन्हीं शहरों में रहना नहीं छोड़ते क्योंकि उन्हें दो पैसे कमाने होते हैं, बिहार में रह रहे अपने परिवार के लिए क्योंकि उसके पास ऑप्शन नहीं है बिहार में नौकरी का. बिहारी जानता है कि यदि वो बिहार में रहेगा तो भूख से मर जाएगा और बिहार सरकार को इसके लिए ज़रा भी शर्म नहीं आती है कि उनके राज्य के लोग किसी और राज्य में लात-जूता खा रहें हैं.
ख़ैर, ऐसे ही लात-जूते खाते सब बिहारी पिछले साल लॉक डाउन में घर लौट आए. अब इस साल कोरोना की दूसरी लहर में इलाज के बिना घुट-घुट कर मर रहे हैं. यहां कालाबाज़ारी अपने शबाब पर है. एक ऑक्सीजन सिलेंडर यहां एक लाख में बिक रहा है. जो मर जा रहे हैं उनके दाह-संस्कार के लिए 8 हज़ार से लेकर 25 हज़ार रूपये तक मांगें जा रहें हैं.
अब सोचिए जिसके पास इलाज के लिए सौ रुपया नहीं था वो कहां से लाएगा हज़ारों हज़ार दाह-संस्कार के लिए. क्या विडंबना है कि मरने ले बाद भी उसे न तो लकड़ियां नसीब हो रही हैं, न ही कोई दाह-संस्कार.
भटकता हुआ ये अभागा बिहारी मरने के बाद भी भटकता ही रहेगा. सरकार ने ये तय कर रखा है. इनको मिट्टी नसीब न हो इसकी पूरी तैयारी यहां की जा चुकी है तभी तो बक्सर में गंगा के तट पर 40 लाशें सड़ने के लिए आ लगी हैं. उन लाशों को जलाने वाला कोई नहीं था. उनके घर वाले कितने मजबूर रहें होंगे सोचिए ज़रा लेकिन आप बिहार...
बिहारी पैदा होते हैं फिर जैसे तैसे बड़े होते हैं. पढ़ते हैं. ज़्यादातर पढ़ाई पूरी भी नहीं कर पाते और नौकरी के लिए अपना घर-दुआर छोड़ कर छिछियाने निकल पड़ते हैं. कभी दिल्ली में गाली सुनते 'साला बिहारी कहीं का', तो गुजरात से मार-पीट कर भगाए जाते हैं या फिर मुंबई वाले उसकी दुकानें जला डालते हैं. वो दर-दर की ठोकर खाता रहते हैं फिर भी उन्हीं शहरों में रहना नहीं छोड़ते क्योंकि उन्हें दो पैसे कमाने होते हैं, बिहार में रह रहे अपने परिवार के लिए क्योंकि उसके पास ऑप्शन नहीं है बिहार में नौकरी का. बिहारी जानता है कि यदि वो बिहार में रहेगा तो भूख से मर जाएगा और बिहार सरकार को इसके लिए ज़रा भी शर्म नहीं आती है कि उनके राज्य के लोग किसी और राज्य में लात-जूता खा रहें हैं.
ख़ैर, ऐसे ही लात-जूते खाते सब बिहारी पिछले साल लॉक डाउन में घर लौट आए. अब इस साल कोरोना की दूसरी लहर में इलाज के बिना घुट-घुट कर मर रहे हैं. यहां कालाबाज़ारी अपने शबाब पर है. एक ऑक्सीजन सिलेंडर यहां एक लाख में बिक रहा है. जो मर जा रहे हैं उनके दाह-संस्कार के लिए 8 हज़ार से लेकर 25 हज़ार रूपये तक मांगें जा रहें हैं.
अब सोचिए जिसके पास इलाज के लिए सौ रुपया नहीं था वो कहां से लाएगा हज़ारों हज़ार दाह-संस्कार के लिए. क्या विडंबना है कि मरने ले बाद भी उसे न तो लकड़ियां नसीब हो रही हैं, न ही कोई दाह-संस्कार.
भटकता हुआ ये अभागा बिहारी मरने के बाद भी भटकता ही रहेगा. सरकार ने ये तय कर रखा है. इनको मिट्टी नसीब न हो इसकी पूरी तैयारी यहां की जा चुकी है तभी तो बक्सर में गंगा के तट पर 40 लाशें सड़ने के लिए आ लगी हैं. उन लाशों को जलाने वाला कोई नहीं था. उनके घर वाले कितने मजबूर रहें होंगे सोचिए ज़रा लेकिन आप बिहार सरकार की बेशर्मी देखिए कि ये कह रहें हैं, लाशें यूपी से बह कर आ गयी हैं.
वैसे लोग कहते हैं पॉज़िटीव रहें लेकिन आस-पास में जब ये घट रहा तो पॉज़िटिव नहीं रह पा रही हूं. फूल-पत्ती की फ़ोटो, घटिया रोमांस वाली कविता लिख कर खुद को बहलाने की कोशिश करती हूं लेकिन नहीं हो पा रहा है. मैं आंख मूंद कर नहीं रह पा रही हूं. मैं फेल हो रही हूं. तैरती लाशों की तस्वीर लगा दूंगी तो आप कहेंगे कि ऐसे फ़ोटो पोस्ट नहीं करिए लेकिन लाशें तो फिर भी गंगा में तैरेंगी न? वो अभागे बिहारी जिनको अपने राज्य में रहना नसीब न हुआ उनको मरने के बाद मिट्टी भी नसीब नहीं हुई.
शुक्रिया नीतीश कुमार इसके लिए.
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