लॉकडाउन (lockdown) के इस समय में आज पहली बार घर से बाहर निकली. यूं दूध-सब्ज़ी वग़ैरह के लिए कुछ क़दमों तक चलना हुआ है बीच में पर पक्षियों के favourite दाने दो दिन में ख़त्म होने को हैं. सो उसे लेने थोड़ा आगे गाड़ी से ही जाना था. जाते समय भी मन कोई ख़ास उत्साह से भरा तो नहीं था लेकिन लौटते समय एक अजीब सी निराशा ने घेर लिया हो जैसे. सड़कों पर ऐसी मुर्दानगी छायी हुई है जैसे कि इनका कोई अपना मर गया हो. बंद दुकानों के बाहर पसरा सन्नाटा देख अब आसपास के पक्षियों और जानवरों का हौसला भी टूट सा गया दिखता है. सामान्य दिनों में कबूतरों के कई झुण्ड इस समय दाना चुगते नज़र आते थे, वे डरते नहीं थे लोगों से, बस क़दम साधकर वहां से निकलो और वे चुपचाप चुगते रहते. स्लेटी कबूतरों के बीच कभी-कभी एकाध सफ़ेद या भूरा कबूतर भी होता था और मेरी आंखें उसी पर अक़्सर टिकी रहतीं कि पूछूं, यार तुम भी माइग्रेंट हो क्या?
सीमेंट की छोटी-छोटी टंकियां जो गुजरते गाय-भैंस या कुत्तों के लिए पानी से भरी रखी रहती थीं वो इस क़दर सूख चुकी हैं कि बस चटकने भर की देर है. मैं यह मान लेना चाहती हूं कि इन सब पशु-पक्षियों ने अपने भोजन-पानी की व्यवस्था ख़ुद कर ही ली होगी. पर ये भी सोच रही हूं कि न जाने इन्हें ये कैसे समझ आया होगा कि इनका ख़्याल रखने वाले वो सभी दुकानदार ख़ुद अपने दाना-पानी की तलाश में सिर को पकड़े बैठे हैं.
सड़कों के किनारे लगे खोमचे, ठेले और फुटपाथ पर सामान बेचते लोग सब नदारद हैं. मृत्यु का भय जो छा गया है. वे सभी कलाकार जो गर्मियों के दिनों में बच्चों को अपनी कला सिखा साल भर की क़माई इन्हीं दो-चार महीनों में कर लिया करते थे, आजकल भूख से लड़ रहे हैं. वे नहीं जानते ऑनलाइन काम कैसे किया जाता है. वे ही क्यों, उन जैसा कोई भी नहीं जानता कि इंटरनेट क्या होता है?
लॉकडाउन (lockdown) के इस समय में आज पहली बार घर से बाहर निकली. यूं दूध-सब्ज़ी वग़ैरह के लिए कुछ क़दमों तक चलना हुआ है बीच में पर पक्षियों के favourite दाने दो दिन में ख़त्म होने को हैं. सो उसे लेने थोड़ा आगे गाड़ी से ही जाना था. जाते समय भी मन कोई ख़ास उत्साह से भरा तो नहीं था लेकिन लौटते समय एक अजीब सी निराशा ने घेर लिया हो जैसे. सड़कों पर ऐसी मुर्दानगी छायी हुई है जैसे कि इनका कोई अपना मर गया हो. बंद दुकानों के बाहर पसरा सन्नाटा देख अब आसपास के पक्षियों और जानवरों का हौसला भी टूट सा गया दिखता है. सामान्य दिनों में कबूतरों के कई झुण्ड इस समय दाना चुगते नज़र आते थे, वे डरते नहीं थे लोगों से, बस क़दम साधकर वहां से निकलो और वे चुपचाप चुगते रहते. स्लेटी कबूतरों के बीच कभी-कभी एकाध सफ़ेद या भूरा कबूतर भी होता था और मेरी आंखें उसी पर अक़्सर टिकी रहतीं कि पूछूं, यार तुम भी माइग्रेंट हो क्या?
सीमेंट की छोटी-छोटी टंकियां जो गुजरते गाय-भैंस या कुत्तों के लिए पानी से भरी रखी रहती थीं वो इस क़दर सूख चुकी हैं कि बस चटकने भर की देर है. मैं यह मान लेना चाहती हूं कि इन सब पशु-पक्षियों ने अपने भोजन-पानी की व्यवस्था ख़ुद कर ही ली होगी. पर ये भी सोच रही हूं कि न जाने इन्हें ये कैसे समझ आया होगा कि इनका ख़्याल रखने वाले वो सभी दुकानदार ख़ुद अपने दाना-पानी की तलाश में सिर को पकड़े बैठे हैं.
सड़कों के किनारे लगे खोमचे, ठेले और फुटपाथ पर सामान बेचते लोग सब नदारद हैं. मृत्यु का भय जो छा गया है. वे सभी कलाकार जो गर्मियों के दिनों में बच्चों को अपनी कला सिखा साल भर की क़माई इन्हीं दो-चार महीनों में कर लिया करते थे, आजकल भूख से लड़ रहे हैं. वे नहीं जानते ऑनलाइन काम कैसे किया जाता है. वे ही क्यों, उन जैसा कोई भी नहीं जानता कि इंटरनेट क्या होता है?
तक़नीक़ ने बड़े लोगों को सहारा दिया, मध्यम वर्ग भी जैसे-तैसे मर कटके जीना सीख ही गया है लेकिन निम्न वर्ग के हिस्से इस लड़ाई में भी हार ही आई है. वे कोरोना से बच भी गए तो क्या? भूख ही मार देगी उन्हें. हम उनके दर्द को समझ सकते हैं. एकाध तक पहुंच भी सकते हैं लेकिन एक बार अपनी गली से मेन चौराहे तक की लॉकडाउन से पहले के समय की, तस्वीर याद कीजिये. सामने सैकड़ों चेहरे आ खड़े होंगे. उनमें से कुछ की अंतड़ियाँ सूखकर चिपक गई होंगी और कुछ कोरोना से परिवार को बचाते-बचाते इस समय ईश्वर की गोदी में सो चुके होंगे.
हम कोरोना से हुई मौत का आंकड़ा गिन रहे हैं और नंगे पैर मीलों पैदल चल दम तोड़ने वालों का कोई हिसाब ही नहीं लगाता. हमें दुनिया को यह दिखाकर खुश भी होना है कि देखो, हमने इन्हें कोरोना से नहीं मरने दिया. मृत्यु का क्या है वो तो सौ बीमारियों से पहले भी होती थी, सड़क पर लोग कुचले जाते थे. हत्याएं होती थीं. मौत कौन सा दस्तक़ देकर आई है कभी! लेकिन उन मौतों के बीच जीवन सलामत तो दिखता था.
इन दिनों जो ख़ामोशी है वो भयावह है. यदि आप दुनिया के ख़त्म होने की तस्वीर समझना चाहते हैं तो सूनी रात के सन्नाटे को घर की खिड़की से महसूस कीजिये. या चार क़दम घर से बाहर चलने की हिम्मत भी इसे समझा देगी. लैम्पपोस्ट की लाइट भी यूँ चुभती है कि जैसे अभी-अभी इसके नीचे कोई बड़ा हादसा हुआ हो. रात भर रोते हुए कुत्तों की आवाजें डराने लगी हैं.
इस पीढ़ी के बच्चों ने यूं भी घर में दुबककर रहना सीख रखा था. अब दोस्तों के साथ की शैतानियां, लड़ाइयां, हारना-जीतना और इन सब बातों से सबक़ लेना गायब है. ऑनलाइन पढ़ाई भी कोई पढ़ाई है भला. वो क्लास ही क्या, जहां बच्चे आंखों-आंखों में सौ कहानियां न रच दें, टीचर के पलटते ही मुंह दबाकर हंसे नहीं.
आप सोचते होंगे कि इतनी निराशा क्यों? ये सब कौन-सा जीवन भर चलने वाला है. मैं भी मानती हूं कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा और गाड़ी भी पटरी पर लौट आएगी लेकिन ये लौट आना उतना आसान नहीं होगा. आने के बाद हमें हर रोज और जूझना होगा. फिर से उठ खड़े होने के लिए जो लड़ाई होगी उसमें कुछ और नहीं बल्कि survival of the fittest और natural selection की थ्योरी ही काम आयेगी. ये बात सुकून न देकर एक बेचैनी पैदा करती है.
स्थिति चिंताजनक होने वाली है. हो सके तो हम इसके लिए मानसिक रूप से तैयार भी रहें. दुनिया यूं कब बदल जायेगी, किसको पता था. एक अदृश्य वायरस ने सबको उलटे पैर घरों में लौटाकर क़ैद कर दिया है और खुद हर तरफ़ नाचता फिर रहा है. इसने दिखा दिया कि चांद-तारों को चूम अपनी पीठ थपथपाने वाले और सारी विलासिताओं से भरपूर जीवन जी ख़ुद को विधाता मान लेने वाले हम मनुष्यों की औक़ात बस इतनी ही है.
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