मेरे प्रिय,
लॉकडाउन का आख़री हफ़्ता आज से शुरू हो गया है. अब तक हताशापूर्ण समय बिता रहे लोगों के मन में एक उम्मीद जागी है कि यह सप्ताहांत उन्हें कैद से मुक्त कर देगा. हालांकि अभी बहुत कशमकश से जूझ रही है सरकार. क्या किया जाए? ख़त्म किया जाए या आगे बढ़ाया जाए? लेकिन फिर भी एक सकारात्मक रवैया मैंने सोशल मीडिया पर लोगों में देखा. वे उम्मीद से बंध गए हैं कि जल्दी ही घरों से बाहर निकलेंगे. इस सबसे इतर एक तबका ऐसा भी है जिसे शायद ही बंदी के इन दिनों में कुछ अलग महसूस हुआ हो. आदिवासी ग्रामीण इलाके के वे लोग जिनका जीवन गांव तक ही सिमटा रहता है. वे जो घर से खेत, और खेत से घर तक में ही जीवन काट देते हैं, या काम करने जाते भी हैं तो आसपास के ही शहरी इलाके में, उन लोगों का जीवन अलग ही रूप दिखाता है. उनकी समस्याएं भी अलग हैं.
आज सुबह एक तस्वीर देखी. मिट्टी से बने अपने घर की टूटी दीवार के बाहर खड़ी एक औरत की. बीती रात जब हाथी ने उसका घर तोड़ा होगा तो वह किस भय से गुज़री होगी. उसकी जान भी जा सकती थी. उसे अपने पड़ोसी के घर रात बितानी पड़ी. सुविधायुक्त घरों में बंद हम क्या इनके भय को महसूस कर पाएंगे? मैं मजबूर हूं इस सबके बीच भी तुम्हें सोचने पर बाध्य हूँ. हालातों को तुमसे जोड़ने पर बाध्य हूं.
हर बरस मेरे गांव से होकर कुछ हाथी गुज़रते हैं. कुछ जो सभ्य होते हैं अपनी राह निकल जाते हैं. कुछ खुराफ़ाती गांव में घुस जाते हैं. गांव वाले रात में मचान बनाकर, मशालें लेकर उन हाथियों को भगाते हैं, ताकि खुराफ़ाती हाथियों के उत्पात से अपनी दुनिया तहस-नहस होने से बचा...
मेरे प्रिय,
लॉकडाउन का आख़री हफ़्ता आज से शुरू हो गया है. अब तक हताशापूर्ण समय बिता रहे लोगों के मन में एक उम्मीद जागी है कि यह सप्ताहांत उन्हें कैद से मुक्त कर देगा. हालांकि अभी बहुत कशमकश से जूझ रही है सरकार. क्या किया जाए? ख़त्म किया जाए या आगे बढ़ाया जाए? लेकिन फिर भी एक सकारात्मक रवैया मैंने सोशल मीडिया पर लोगों में देखा. वे उम्मीद से बंध गए हैं कि जल्दी ही घरों से बाहर निकलेंगे. इस सबसे इतर एक तबका ऐसा भी है जिसे शायद ही बंदी के इन दिनों में कुछ अलग महसूस हुआ हो. आदिवासी ग्रामीण इलाके के वे लोग जिनका जीवन गांव तक ही सिमटा रहता है. वे जो घर से खेत, और खेत से घर तक में ही जीवन काट देते हैं, या काम करने जाते भी हैं तो आसपास के ही शहरी इलाके में, उन लोगों का जीवन अलग ही रूप दिखाता है. उनकी समस्याएं भी अलग हैं.
आज सुबह एक तस्वीर देखी. मिट्टी से बने अपने घर की टूटी दीवार के बाहर खड़ी एक औरत की. बीती रात जब हाथी ने उसका घर तोड़ा होगा तो वह किस भय से गुज़री होगी. उसकी जान भी जा सकती थी. उसे अपने पड़ोसी के घर रात बितानी पड़ी. सुविधायुक्त घरों में बंद हम क्या इनके भय को महसूस कर पाएंगे? मैं मजबूर हूं इस सबके बीच भी तुम्हें सोचने पर बाध्य हूँ. हालातों को तुमसे जोड़ने पर बाध्य हूं.
हर बरस मेरे गांव से होकर कुछ हाथी गुज़रते हैं. कुछ जो सभ्य होते हैं अपनी राह निकल जाते हैं. कुछ खुराफ़ाती गांव में घुस जाते हैं. गांव वाले रात में मचान बनाकर, मशालें लेकर उन हाथियों को भगाते हैं, ताकि खुराफ़ाती हाथियों के उत्पात से अपनी दुनिया तहस-नहस होने से बचा सकें.
अतिशयोक्ति न मानना गर मैं कहूं कि ये उत्पाती हाथी उन ख़यालों से लगते हैं जो मेरे चैन-सुकून के लुटेरे हैं. और तुम उन लुटेरों के मुखिया. रात होते-होते ये ख़याल भी हाथी जैसा विशाल, श्यामल-भयावह रूप धर लेते हैं. मैं घबराती हूं कि कहीं ये मचल गए तो मेरी दुनिया तहस-नहस कर देंगे. जब-जब ये आते हैं तब-तब मेरा ऊर्जस्वी मन मशाल लिए डटा रहता है कि इन्हें मचलने से रोके.
ना जाने कब मेरे गांव में, कांपते मिट्टी के वे घर इतने मजबूत होंगे कि फिर किसी हाथी का भय ना व्यापे और ना जाने कब मेरा डूबता मन इतना मजबूत होगा कि उसमें तुम्हारे ख़याल ना व्यापें. गांव वालों को सरकार का भरोसा है लेकिन मेरे पास तो भरोसे के लिए भी एक अदद छलावा भी नहीं.
ना जाने कितनी बार मैंने ख़ुद से वादा किया कि अब और नहीं, अब और तुम्हारे नज़दीक रहने की कोशिश नहीं करूंगी. जब हम दो अलग-अलग रास्तों पर चल ही पड़े हैं तो अब इस नज़दीकी का क्या फायदा? पर जाने क्यों मैं बेबश हो जाती हूं जब भी दिल में ज़िक्र तुम्हारा उठता है. तुम रह-रहकर उठने वाली टीस हो. किसी ऐसे ज़ख्म की जो जीवनभर दर्द देता है. जब-जब बादल उमड़ते हैं. जब-जब ठंड बढ़ने लगती है. तब-तब ऐसे ज़ख्म मीठा दर्द बन जगह-जगह अंगड़ाई लेते हैं. ऐसे ज़ख्मों के लिए क्या कोई दवा, कोई डॉक्टर नहीं बना?
एक दशक बीत गया. हम से तुम और मैं बने हुए. मुझे याद है वह महल जिसकी चढ़ाई चढ़ते हमारी हथेलियां जुड़ी हुई थीं. जिसके झरोखे के पीछे छुपकर, सैलानियों से नज़र बचाकर तुमने छोड़ दिए थे कुछ मीठे फाहे मेरे होठों पर. गर्दन पर जगह-जगह मिश्री के दाने. और कमर पर अपनी अंगुलियों से फिरा दिए थे जाने कितने ही लट्टू. जिनकी फिरनी आज भी रह-रहकर तुम्हारी याद लिए झूम उठती है.
याद हो आती है वह तूफ़ानी रात. जब बस की खिड़कियों पर पड़ते बूदों के थपेड़े मुझे एहसास दिला रहे थे कि आज यह बस और मैं अंधेरी रात में ही विलीन हो जाएंगे. लेकिन उस रात की भी सुबह हुई. उम्मीद की सुबह. तुम्हारी बाहों में मचलती सुबह. मेरे तुम्हारे साथ की आख़री सुबह.
कितना कुछ बदल गया इतने वर्षों में. ज़िन्दगी इस क़दर भागी कि अब हांफने लगी है. जब-तक थककर, घुटनों पर हाथ रखे खड़ी मिलती है. आगे ना बढ़ने की गुहार लगाती, कि अब बस और नहीं भागा जाता. मन कहता है एक लंबी नींद की दरकार है. इस उम्मीद में कि फिर जब जागूं तो तुम्हारे ख़याल भी वैसे ही धूमिल हो चुके हों जैसे तुम हो चुके जीवन की सत्यता से. तुमसे बात करने की बेचैनी वैसे ही बुझकर धुआं हो चुकी हो जैसे तुम्हारे ख़यालों में मेरा अस्तित्व.
सुनो, मैं थककर चूर हो जाउं उससे पहले मेरे भीतर बिखरी अपनी याद समेट ले जाओ...हमेशा के लिए. उन हाथियों की तरह नहीं जो हर बार भगाने से चले तो जाते हैं लेकिन छोड़ जाते हैं लौट आने भय. मुझे उस भय से मुक्ति देदो, अपनी राह बदल लो.
तुम्हारी
प्रेमिका
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