मेरे प्रिय,
यथार्थ के धरातल से भागकर कल्पना के समंदर में गोते लगाने की इच्छा इतनी प्रबल हुई कि आज तुम्हें यह ख़त लिखने बैठ गई. यूं लगता है कि अनंत काल से इस कार्य को करना चाहती थी किन्तु समय के अभाव में तो कभी उदासी की गहनता में कर नहीं पाई. अब जबकि चारों ओर से आवाज़ें आ रही हैं कि लोग ख़ाली हैं, घरों में कैद हैं, समय ही समय है तो मैं भी यह मान बैठी हूं कि मेरे पास भी समय है. अन्यथा मेरा जीवन तो ‘लॉकडाउन’ (Lockdown) कहलाने वाली इस विषम परिस्थिति में भी बिल्कुल वैसा ही चल रहा है जैसा पिछले कुछ वर्षों से चलता आया है. महीनों घर की दहलीज़ ना लांघने वाली कस्बाई भद्र परिवार की बहुओं के जीवन में ये लॉकडाउन कोई बदलाव लाया होगा, मुझे नहीं लगता. हैं ‘हाउसहेल्प’ के ख़त्म होने से संभवतः हम इन इक्कीस दिनों में वजन घटाने में कुछ सफलता ज़रूर पा जाएंगे. लॉकडाउन...लॉकडाउन के कोलाहल के बीच मैं बस यही सोच रही हूं कि सर्वव्यापी इस परस्थिति को अपने लिए हमेशा से अलग कैसे मान लूं ? यह विचार जब मन में घूमने लगा तो सोचा तुम्हें ख़त लिखूं.
प्रेम से ज्यादा अलग और क्या हो सकता है भला? मनुष्य प्रेम को तब-तब ही तो याद करता है जब वह अपनी सामान्य दिनचर्या से इतर कुछ चाहता है. जैसे भोजन के बाद स्वाद बदलने को मीठा वैसे ही रोज़मर्रा के जीवन में स्वाद बदलने को ‘प्रेम’. थके हारे मस्तिष्क को बहलाने, सुख की अनुभूति, देने जैसे मनोरंजन, वैसे ही थकी हुई आत्मा को, मन को बहलाने, सुख के रस में डुबोने को ‘प्रेम’.
कल अपने आसपास कई लोगों को कैद होने की पीर से कराहते देखा. वे इस दर्द से छटपटा रहे थे कि अगले...
मेरे प्रिय,
यथार्थ के धरातल से भागकर कल्पना के समंदर में गोते लगाने की इच्छा इतनी प्रबल हुई कि आज तुम्हें यह ख़त लिखने बैठ गई. यूं लगता है कि अनंत काल से इस कार्य को करना चाहती थी किन्तु समय के अभाव में तो कभी उदासी की गहनता में कर नहीं पाई. अब जबकि चारों ओर से आवाज़ें आ रही हैं कि लोग ख़ाली हैं, घरों में कैद हैं, समय ही समय है तो मैं भी यह मान बैठी हूं कि मेरे पास भी समय है. अन्यथा मेरा जीवन तो ‘लॉकडाउन’ (Lockdown) कहलाने वाली इस विषम परिस्थिति में भी बिल्कुल वैसा ही चल रहा है जैसा पिछले कुछ वर्षों से चलता आया है. महीनों घर की दहलीज़ ना लांघने वाली कस्बाई भद्र परिवार की बहुओं के जीवन में ये लॉकडाउन कोई बदलाव लाया होगा, मुझे नहीं लगता. हैं ‘हाउसहेल्प’ के ख़त्म होने से संभवतः हम इन इक्कीस दिनों में वजन घटाने में कुछ सफलता ज़रूर पा जाएंगे. लॉकडाउन...लॉकडाउन के कोलाहल के बीच मैं बस यही सोच रही हूं कि सर्वव्यापी इस परस्थिति को अपने लिए हमेशा से अलग कैसे मान लूं ? यह विचार जब मन में घूमने लगा तो सोचा तुम्हें ख़त लिखूं.
प्रेम से ज्यादा अलग और क्या हो सकता है भला? मनुष्य प्रेम को तब-तब ही तो याद करता है जब वह अपनी सामान्य दिनचर्या से इतर कुछ चाहता है. जैसे भोजन के बाद स्वाद बदलने को मीठा वैसे ही रोज़मर्रा के जीवन में स्वाद बदलने को ‘प्रेम’. थके हारे मस्तिष्क को बहलाने, सुख की अनुभूति, देने जैसे मनोरंजन, वैसे ही थकी हुई आत्मा को, मन को बहलाने, सुख के रस में डुबोने को ‘प्रेम’.
कल अपने आसपास कई लोगों को कैद होने की पीर से कराहते देखा. वे इस दर्द से छटपटा रहे थे कि अगले कुछ दिन कैसे एक ही कमरे में कैद होकर बिताएंगे? आश्चर्य हुआ यह देखकर कि वे जिनका अधिकांश समय मोबाइल और लैपटॉप पर गुज़रता है, वे जिन्होंने अपने जीवन में, मोहल्ले में खेलना, बैठना, गप्पें मारना, चौराहों पर खड़े होकर यारों के संग ठिठोली करना, नानी-दादी की छतों पर पतंगे उड़ाना, चपेटे खेलना, और गांव में रातभर लाईट गुल रहने की स्थिति में अन्ताक्षरी और पत्ते खेलना कबका छोड़ दिया वे परेशान हैं कि अकेले कैसे रहेंगे.
कितना अजीब है ना कि अकेले रहने की चाहत करने वालों को जब अकेलापन मिला तो वे तिलमिला उठे. हर समय काम, और छुट्टी ना मिलने की शिकायतें करने वालों को जब पगार समेत छुट्टियां मिलीं तो वे तड़प उठे और अकेलेपन से डरने लगे. हां कई तो वाक़ई परेशान भी हैं कि वर्क फ्रॉम है, छुट्टी नहीं. पर परिवार के साथ तो हैं, या अकेले तो हैं. वैसे ही जैसे अक्सर चाहते थे. प्रेम और साथी को समय ना दे पाने की शिकायतें करने वालों को जब भरपूर समय मिला तो वे उस समय से ही बोरियत महसूस करने लगे.
आज अहसास हुआ कि समय भी प्रेम जैसा ही है. मुफ़्त में मिल जाए तो कीमत नहीं रहती, और जो ना मिले तो इसे पाने की लालसा में मनुष्य तड़पता रहता है. इस संसार में प्रेम अथाह है. हर मनुष्य चाहता है वह हर समय प्रेम के शहद को चाटता रहे. फिर जाने क्यों उसकी नकारात्मकता उसे झूठी अफ़वाहें और छल फैलाने पर मजबूर करती है.
वैसे एक बात कहूं, प्रेम के नाम पर मिल रही डिजिटल ख़ुशी और मानसिक ओर्गाज्म पाने को भी ये मनुष्य इतना लालायित हो उठता है कि दूसरों के प्रेम की झूठी अफ़वाह को सच मानकर ही चंद क्षण ख़ुशी के जी लेता है. कल्पना कर लेता है कि काश उसे भी इतना ही प्रेम मिल सके.
अब देखो ना, कल की ही तो बात है. एक विषाणु से तड़पते इस संसार को, एक प्रेमी युगल की मृत्यु की ख़बर ने भी बस इस कारण ख़ुश कर दिया कि वे लोग अकूट प्रेम को जीते हुए मरे. एक दूसरे के आलिंगन में, एक दूसरे को चूमते हुए मरे. आइसोलेशन नामक पीड़ा से गुज़रते हुए जाने कितने ही प्रेमियों ने इस विषाणु से उपजे मृत्यु के भय के बीच यह चाहत क्षणभर में जी ली होगी कि यदि वे भी इन 21 दिनों में मर गए तो इसी तरह मरें.
अपने साथी को चूमते हुए. उसे आलिंगन में लिए हुए. यह और बात है कि वह एक अफ़वाह थी. फिर भी एक अफ़वाह ने न जाने कितनों के दिल प्रेम से तर कर दिए होंगे. दूसरों का क्या कहूं, मैंने भी तो एक पल के लिए यह सोच लिया था कि और कुछ ना सही तुम्हें ही अपनी कल्पना से बाहर जीवित मनुष्य के रूप में कहीं पा सकूं.
मृत्यु से पहले मनुष्य यही तो चाहता है ना. जीभर कर प्रेम कर लेना. पर क्या वाक़ई इस समय मृत्यु का यह भय जायज़ है? और क्या मृत्यु के भय से यह समय कट भी पाएगा? मुझे नहीं लगता. मैं तो चाहती हूं कि दुनिया का हर मनुष्य इस समय मृत्यु के भय में नहीं, उदासीनता में नहीं बल्कि प्रेम में डूबकर जिए. मेरी तरह. कल्पनाओं में जिए या फिर अपने साथी के साथ मिले क्षणों में जिए.
वह जिए यह सोचकर कि कैसी होगी अगले कुछ दिनों की हर सुबह जब ऑफिस की भागदौड़ के साथ नहीं बल्कि साथी की बाहों में सुबह का सूरज देखने का सुख मिलेगा. कैसा होगा वह दिन जब दिनों तक रहीं शिकायतें पिघलाने के लिए दो प्रेमियों, या पति-पत्नी के बीच भरपूर ताप होगा. क्या वे इस ताप का सदुपयोग ही कर पाएंगे? क्या वे जान पाएंगे कि प्रकृति ने ये वक़्त उन्हें उपहार में दिया है जीवन के चंद अनमोल क्षण लिख देने के लिए, जी लेने के लिए.
बस सुनो तुम हताश मत होना. बहुत कुछ होगा इन दिनों में जो हमें निराश और उदास कर सकता है. पर, वादा करो इस उदासी को हम हरा देंगे और चहकेंगे उन अनेकों पक्षियों की तरह जो इन दिनों मनुष्य के विलुप्त होने की ख़ुशी में चहक रहे होंगे. भ्रम में जीने में जो मज़ा है वह किसी अन्य चीज़ में कहां. है ना
तुम्हारी
प्रेमिका
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