मेरे प्रिय,
आज लॉकडाउन का दूसरा दिन है. कैद में होना क्या होता है यह शायद अब हम समझ पाएं. या शायद नहीं भी क्योंकि आसानी से आसान बातें समझ लेना मनुष्य की फ़ितरत ही कहां है. अब देखो ना, तुमने भी अक्सर सुना होगा व्यस्तता में भागते-दौड़ते लोगों को कहते हुए, 'मरने की भी फुरसत नहीं है यार' किन्तु आज देखो! मृत्यु जब दुनिया के चक्कर लगाते हुए धरा के कोने-कोने में तांडव कर रही है तो मनुष्य दुपककर बैठ गया. वैसे दुपकने से याद आया तुम भी तो यही करते हो. जब चाहती हूं कि साथ रहो तो मन की परतों के नीचे दुपकते जाते हो. कल्पनाओं में दुपककर ठिठोली करना तुम्हें ख़ूब आता है. पर, मैं चाहती हूं कि अब तुम्हें यथार्थ में पाऊं. आज में जी लेना और कल की चिंता ना करना यही तो सिखाते आए हो तुम. समय भी वैसा ही है फ़िलहाल तो. जो कहना है करना है आज ही कर लें. कौन जाने आगे और कितना कठिन समय देखना पड़े.
मैं जब-जब तुम्हारे बारे में सोचती हूं वेनिस की गलियां मेरी आंखों के आगे चमकने लगती हैं. उन गलियों में सजी गुलाबी, नारंगी, नीली, हरी इमारते मेरी आंखों को सतरंगी बना देती हैं. उन दीवारों पर, उनमें बने झरोखों पर रखे नन्हे-नन्हे मन मोहने वाले फूलों से सजे गमले मेरा जी मचला जाते हैं कि कभी तुम और मैं भी इन झरोखों में से झांके.
हम देखें साथ दुनिया के इस ख़ूबसूरत शहर को जिसे ‘प्रेम का शहर’ भी कहा जाता...
मेरे प्रिय,
आज लॉकडाउन का दूसरा दिन है. कैद में होना क्या होता है यह शायद अब हम समझ पाएं. या शायद नहीं भी क्योंकि आसानी से आसान बातें समझ लेना मनुष्य की फ़ितरत ही कहां है. अब देखो ना, तुमने भी अक्सर सुना होगा व्यस्तता में भागते-दौड़ते लोगों को कहते हुए, 'मरने की भी फुरसत नहीं है यार' किन्तु आज देखो! मृत्यु जब दुनिया के चक्कर लगाते हुए धरा के कोने-कोने में तांडव कर रही है तो मनुष्य दुपककर बैठ गया. वैसे दुपकने से याद आया तुम भी तो यही करते हो. जब चाहती हूं कि साथ रहो तो मन की परतों के नीचे दुपकते जाते हो. कल्पनाओं में दुपककर ठिठोली करना तुम्हें ख़ूब आता है. पर, मैं चाहती हूं कि अब तुम्हें यथार्थ में पाऊं. आज में जी लेना और कल की चिंता ना करना यही तो सिखाते आए हो तुम. समय भी वैसा ही है फ़िलहाल तो. जो कहना है करना है आज ही कर लें. कौन जाने आगे और कितना कठिन समय देखना पड़े.
मैं जब-जब तुम्हारे बारे में सोचती हूं वेनिस की गलियां मेरी आंखों के आगे चमकने लगती हैं. उन गलियों में सजी गुलाबी, नारंगी, नीली, हरी इमारते मेरी आंखों को सतरंगी बना देती हैं. उन दीवारों पर, उनमें बने झरोखों पर रखे नन्हे-नन्हे मन मोहने वाले फूलों से सजे गमले मेरा जी मचला जाते हैं कि कभी तुम और मैं भी इन झरोखों में से झांके.
हम देखें साथ दुनिया के इस ख़ूबसूरत शहर को जिसे ‘प्रेम का शहर’ भी कहा जाता है. जो तैर रहा है पानी पर. जहां गलियां मिट्टी से नहीं पानी से पटी हैं और उनमें तफ़रीह करने के लिए एक नन्हा सा शिकारा लेकर तुम और मैं भटकते रहें. ओह! अब क्या हम कभी देख भी पाएंगे ‘ग्रैंड कनाल’ के किसी पुल पर खड़े होकर दूर क्षितिज से आते किसी जहाज को? क्या हम बैठ पाएंगे किसी चर्च के आगे देर रात जहां लगा रहता है झुरमुट और बिखरी रहती है ऊष्मा युवा देहों की.
दुनिया का सबसे सुन्दर शहर इन दिनों वीराने को भुगतने के लिए मजबूर है. वह शहर जहां पानी पर तैरती नौकाओं से दो घड़ी के लिए भी लहरें शांत नहीं होतीं, उस शहर में आज इतना सन्नाटा व्याप्त है कि मनुष्य का ख़ात्मा जान डोल्फिन और बतखें सीना तान कर अठखेलियां कर रही हैं.
सोचती हूं क्या उस शहर में रेलवे स्टेशन के पास लगी उस बड़ी सी घड़ी में आज भी शाम 7 बजे धूप पड़ती देख दूर देशों के यात्री चहकेंगे या वह शहर अगले कुछ वर्षों तक एक विषाणु के विष से अभिशप्त मान लिया जाएगा. क्या वहां आजीविका पुनः अपना दम भरने लायक सांसें ले पाएगी या पर्यटकों की आवाजाही कुछ वर्षों तक ठंडी पड़ी रहेगी.
दुनिया की जिह्वा पर पिज़्ज़ा और पास्ता का स्वाद चढ़ा देने वाला यह देश क्या फिर से उस स्वादिष्ट भोजन को परोस पाएगा? कौन जानता था, एक पिद्दी सा विषाणु भी इतना ताकतवर हो सकता है कि दिनरात समंदर में गोता लगाते जहाजों के हॉर्न से गूंजते रहने वाले तटों को यूं सुसुप्त बना दे. विशेषज्ञ कहते हैं कि यह शहर एक दिन पूरा डूब जाएगा.
पर मुझे यकीन है कि इसके डूबने से पहले मैं तुम्हें लेकर इसकी गलियों में चक्कर ज़रूर लगा लूंगी. शीत से जमते दिनों में, फूलों से सजे किसी झरोखे से बढ़ाउंगी अपना हाथ जिस पर गिरती धूप पर लिखोगे तुम कुछ तराने. जिन्हें गाते हुए मैं ना जाने फिर कितने वर्ष बिता दूंगी तुम्हारी गर्माहट में. मैं चाहती हूँ कि प्रेम के लिए, सुन्दरता के लिए और आश्चर्य के लिए जाना-जाने वाला यह शहर फिर जी उठे एक नयी ऊर्जा के साथ.
ताकि फिर कई युगल यहां आने का, इसकी गलियों में एक दूसरे को चूम लेने का, आलिंगन में भर लेने का सपना देख सकें. मैं तो सोचती थी, जैसे ही तुम कल्पना लोक से बाहर निकलोगे तुम्हें दिखाने ले जाउंगी वह शहर जहां की गलियों में भी इमारतों के बीच रस्सियां बांध कपड़े सुखाए जाते हैं. मैं तब मुस्कराऊंगी, क्योंकि तुम ठहाका लगा रहे होगे यह कहते हुए कि 'देखो, सीमाओं से परे बस तरीका बदलता है, वरना मनुष्य तो वही है जो तुम्हारे-मेरे देश में हैं. देसी, सादा, और जुगाड़ू”.
तब मेरा हाथ खींचते हुए तुम ले जाकर खड़ा कर दोगे मुझे कांच से बने आभूषणों की दूकान में.पहना दोगे मेरे कानों में कुछ अतरंगी से बूंदे और गले में इंद्रधनुषी माला. रंग तुम्हें बहुत पसंद जो हैं. और मैं कहूंगी, तुम इतने दिलदार कबसे हुए जी, कि इसका हूबहू डुप्लीकेट भारत के हर चोर बाज़ार में मिलते हुए भी मुझे यह दिलाओ, दुनिया के सबसे महंगे बाज़ारों में से? तुम तब कुछ कहोगे नहीं.
तुम कहना जानते ही कहां हो. तुम तो बस चूम लोगे मेरी उघड़ी-सकुचाती पीठ को उस इंद्रधनुषी माला पहनाने के बहाने. थाम लोगे मेरा हाथ अपना ही एक हिस्सा जान और चल पड़ोगे अगली गली कुछ और नया-निराला देखने.
यह महामारी जिस दिन अपनी अंतिम सांसें लेगी उस दिन से फिर एक बार तुम्हारे साथ दुनिया के इस सुन्दर शहर को देखने की इच्छा प्रबल हो उठेगी. तब तक के लिए कल्पनाओं में ही तुमसे जीभरकर प्रेम कर लेती हूं. और यह मान लेती हूं कि इस समय इस देश के हर घर के कैद मनुष्य/जोड़े भी प्रेम में डूबकर अनंत में लीन होने का सुख भोग रहे होंगे या भोगने की चेष्ठा भर ही कर लेंगे. अब अगली सुबह के इंतज़ार में.
तुम्हारी
प्रेमिका
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