मेरे प्रिय,
आज Coronavirus लॉकडाउन तीसरा दिन भी बीत गया है. चारों और अजीब सी उदासी, डरावना सन्नाटा अपने पांव पसारता ही जा रहा है. मौत और मरीज़ों के आंकडें दुनियाभर में बढ़ते ही जा रहे हैं. धरती की सतह पर एक साथ इतना सन्नाटा शायद ही पहले कभी रहा हो. ये और बात है कि इससे न तो धरती ने धुरी बदली ना ही प्रकृति ने सांसे रोकीं. उल्टा मुझे तो लगता है अब मुझे दूर-दराज के इलाकों से भी पेड़ों की सरसराहट साफ़ सुनाई देती है. मेरे चारों और पक्षी रहते हैं. सैंकड़ों पक्षी. यूं इनकी आवाज़ सुबह शाम ही आती थी. आज मालूम चला कि ये दिन में भी उतने ही प्यार से चहचहाते हैं. बस हम मनुष्य इतने शोर में जीते हैं कि हम तक प्रकृति की आवाज़ पहुंच ही नहीं पाती. सोचती हूं क्या मेरे अलावा खिड़कियों से झांकते इस देश के अन्य कैदी भी प्रकृति के इस संगीत को सुन रहे होंगे?
ये कैदी अपनी बदली दिनचर्या से कुछ ख़ुश हैं, कुछ उदास. हालांकि मेरी दिनचर्या में तनिक भी बदलाव नहीं आया है. उल्टा कामों की फहरिस्त बढ़ गयी है. एक ओर जहां लोग ख़ाली समय कैसे काटें की कुंजियां तलाश रहे हैं वहीं दूसरी ओर मैं समय के होने और ना होने के इस दौर में बहुत ही दुविधा में हूं. जब होना मानती हूँ तो तुम्हें पाने की, तुमसे मिलने की, तुम्हें आलिंगन में भर लेने की, तुम्हें प्रेम कर लेने की इच्छा प्रबल होने लगती है और जो ना होना मानूं तो जीवन उसी तरह घिसटता दिखता है जिस तरह पिछले कुछ वर्षों से घिसट रहा है.
मेरे प्रिय,
आज Coronavirus लॉकडाउन तीसरा दिन भी बीत गया है. चारों और अजीब सी उदासी, डरावना सन्नाटा अपने पांव पसारता ही जा रहा है. मौत और मरीज़ों के आंकडें दुनियाभर में बढ़ते ही जा रहे हैं. धरती की सतह पर एक साथ इतना सन्नाटा शायद ही पहले कभी रहा हो. ये और बात है कि इससे न तो धरती ने धुरी बदली ना ही प्रकृति ने सांसे रोकीं. उल्टा मुझे तो लगता है अब मुझे दूर-दराज के इलाकों से भी पेड़ों की सरसराहट साफ़ सुनाई देती है. मेरे चारों और पक्षी रहते हैं. सैंकड़ों पक्षी. यूं इनकी आवाज़ सुबह शाम ही आती थी. आज मालूम चला कि ये दिन में भी उतने ही प्यार से चहचहाते हैं. बस हम मनुष्य इतने शोर में जीते हैं कि हम तक प्रकृति की आवाज़ पहुंच ही नहीं पाती. सोचती हूं क्या मेरे अलावा खिड़कियों से झांकते इस देश के अन्य कैदी भी प्रकृति के इस संगीत को सुन रहे होंगे?
ये कैदी अपनी बदली दिनचर्या से कुछ ख़ुश हैं, कुछ उदास. हालांकि मेरी दिनचर्या में तनिक भी बदलाव नहीं आया है. उल्टा कामों की फहरिस्त बढ़ गयी है. एक ओर जहां लोग ख़ाली समय कैसे काटें की कुंजियां तलाश रहे हैं वहीं दूसरी ओर मैं समय के होने और ना होने के इस दौर में बहुत ही दुविधा में हूं. जब होना मानती हूँ तो तुम्हें पाने की, तुमसे मिलने की, तुम्हें आलिंगन में भर लेने की, तुम्हें प्रेम कर लेने की इच्छा प्रबल होने लगती है और जो ना होना मानूं तो जीवन उसी तरह घिसटता दिखता है जिस तरह पिछले कुछ वर्षों से घिसट रहा है.
प्रेम पा लेने और प्रेम जी लेने का अहसास इतना सुखद लग रहा है कि मैं समय के इस बदलाव में मेरे हिस्से कुछ ना आने के बावजूद भी यह मान लेती हूं कि मुझे चंद क्षण मिले हैं जिनमें मैं तुम्हारे सामने अपने प्रेम की वह गुल्लक फोड़ सकूं जिसे मैं इतने वर्षों से ‘चाहत’ के सिक्कों से भरती आई हूं.
पर, चाहत की इस खनक के बीच और भी ना जाने क्या-क्या कानों में पड़ता रहता है. लोग कह रहे हैं कि यह विषाणु मानवजनित ही है. इसे दुनिया में फैलाया गया है. कहते हैं कि भविष्य के युद्ध हथियारों से नहीं विषाणुओं से लड़े जाएंगे. ताकि मनुष्य मर जाए संसाधन बचे रहें. संसाधनों की लालसा ही तो है कि आज हम सब कुछ भूलकर जो मिल जाए हथियाने की कोशिश करते हैं. पर क्या जीवन संसाधनों से बड़ा है? जो होता तो आज दुनिया के कई देशों में लोग क्वारेंटाइन में ना बैठे होते.
जब जान पर बनी तो चादर ओढ़कर दुपक गए, किन्तु सबक अब भी नहीं लिया. जेल का कैदी अनुभव करते हुए वक़्त काटने को क्या सबक कहोगे तुम? जिस दिन यह कैद ख़त्म होगी मनुष्य फिर टूट पड़ेगा प्रकृति का बलात्कार करने. फिर हवा में ज़हर होगा. फिर सड़कों, नदियों, तालाबों में पसरी गंदगी की मात्रा में इज़ाफा होगा.
फिर सरकारें आएंगी और हमें हमारी ही भलाई के लिए सफ़ाई करना सिखाएंगी. किन्तु हम नहीं सीखेंगे. इन इक्कीस दिनों में हम कुछ नहीं सीखेंगे. हम ढूंढेंगे मनोरंजन और गुज़ार देंगे वक़्त उसी में. क्योंकि हमने यह मान लिया है कि प्रकृति पर हमारा अधिकार है, हम उसे कैसे भी रखें. ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुस्तान में सात फेरे लेते ही ससुराल वाले मान लेते हैं कि लड़की पर उनका अधिकार है वह उसे कैसे भी रखें.
कितना स्वार्थी और मूर्ख है ना मनुष्य. यह धरती जिस पर वह अपना एकाधिकार समझता है, उसे हथियाने के कितने टुच्चे उपाय अपनाता है. एक-दूजे को मारने के, जीतने के. वह भूल जाता है कि प्रकृति सजीव है. उसमें भी प्राण हैं. वह भी अपना अस्तित्व बचाने के लिए मनुष्यों को उसी तरह कुचल सकती है जिस तरह मनुष्य उसे वर्षों से कुचलता आ रहा है. मैं इस कल्पना से भी दहल उठती हूं.
मेरे पास उपाय ही क्या हैं, सिवाय कल्पना के. प्रेम की कल्पना. भय की कल्पना. तुम्हारे होने की कल्पना. तुमसे विछोह की कल्पना. पर, यह भी तो सत्य है ना कि कल्पना हो तो उसे यथार्थ में बदला जा सकता है. यदि कल्पना ही ना हो, कोई चाहत ही ना हो तो उसे साकार करने की दिशा में कोशिश होगी भला?
तो मैं भी डूब जाती हूँ कल्पना के उस लोक में जहां पानी पर तैरते उस प्रेम शहर में तुम और मैं देखेंगे एक चमकता सूरज. यह विश्व इतना कमज़ोर नहीं, मेरा देश और यहां के वासी इतने कमज़ोर नहीं कि एक विषाणु से हार जाएं. वे इसे हराएंगे, और अपनी हर उस सुंदर कल्पना को साकार करेंगे जिसे उन्होंने अब तक बुना या दुनिया से मिली विरक्तता के इन इक्कीस दिनों में बुनेंगे. अकेलापन सुन्दर कल्पनाओं को बुनने के लिए सुयोग्य होता है ना.
तो चलो फिर तुम्हारे साथ, मैं बुन लेती हूँ कुछ और कल्पनाएं. और यह मान लेती हूँ कि प्रेम ही इस दुनिया को बचा पाएगा. दुनिया के हर हिस्से में बिखरे हुए अनेकों प्रेमियों से निकलती सकारात्मक ऊर्जा इस विश्व को बचाएगी.
तुम्हारी,
प्रेमिका
पिछले दोे लव-लेटर्स पढ़ें-
Love letter 1: लॉकडाउन का पहला दिन और प्रेम की गुल्लक
Love letter 2: बंदी का दूसरा दिन और समंदर पर तैरता ‘प्रेम-शहर’
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