कोरोना महामारी (Covid-19) की वजह से लगे लॉकडाउन (Lockdown) ने अचानक से लोगों की जिंदगियों को थाम दिया था. कोरोना विभीषिका का नजारा ये था कि महानगरों और शहरों से बड़ी संख्या में लोगों ने सैकड़ों किलोमीटर दूर के अपने गांव-जोहार की ओर पैदल ही कूच कर दिया था. कोरोनाकाल में लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं और जिनकी बच गई, वहां सैलरी में कटौती हुई. कम आय वाले और रोजाना कमाने-खाने वाले लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया. लॉकडाउन से उपजे वित्तीय संकट (आर्थिक मंदी) ने भारतीय मध्यम वर्ग, निम्न वर्ग और गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों की कमर तोड़ दी है. लॉकडाउन का एक साल बीत जाने पर भी स्थितियां बदली नहीं हैं, बल्कि यह वित्तीय संकट और गहराता जा रहा है. 2008 में आई वैश्विक आर्थिक मंदी का असर भारत पर नहीं बल्कि 'इंडिया' पर पड़ा था. उस दौरान शेयर बाजार, इम्पोर्ट और एक्सपोर्ट, आउसोर्सिंग व्यापार पर ही इसका असर पड़ा था. लेकिन, 2020 में कोरोना महामारी के बाद आई मंदी ने इस बार कोई भेदभाव नहीं किया और सभी की आर्थिक स्थितियों पर बुरा प्रभाव डाला है.
कोरोना महामारी की वजह से बीता एक साल भारतीयों के लिए बहुत कठिन रहा है और आने वाले समय में इसका भयावहता और बढ़ने की संभावना है. लगातार सामने आ रही तमाम रिपोर्ट्स और सर्वे इस बात की तस्दीक कर रहे हैं. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) के हालिया जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, परिवारों पर कर्ज बढ़ गया है और बचत घट गई है. लोगों ने परिवार के खर्चे पूरे करने के लिए बड़ी मात्रा में कर्ज लिया, बावजूद इसके की वह इसे चुका पाने की हालत में नहीं आए हैं. लोगों ने अपनी बचत के पैसों से भी अपने खर्चों को पूरा किया. कोरोनाकाल में 1.25 करोड़ लोगों ने अपने पीएफ खातों से रकम निकाली और लॉकडाउन के बाद गोल्ड लोन वगैरह में उछाल आने के आंकड़े इसकी गवाही देते हैं. यह वो आंकड़े हैं, जो सामने आ सकते हैं. एक गरीब आदमी ने महाजन से कितना कर्ज लिया होगा, इसका आंकड़ा सामने नहीं आ सकता है. कोरोनाकाल में देश की बड़ी आबादी को आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा और इस दौरान मिली यह चोट आसानी से भरती दिख नहीं रही है. क्रेडिट कार्ड और लोन लेने वालों के सामने EMI की किस्त भरने की चिंता बढ़ गई है. नौकरियां मिल नहीं रही हैं, तो इनका निपटारा जल्द होता दिख भी नहीं रहा...
कोरोना महामारी (Covid-19) की वजह से लगे लॉकडाउन (Lockdown) ने अचानक से लोगों की जिंदगियों को थाम दिया था. कोरोना विभीषिका का नजारा ये था कि महानगरों और शहरों से बड़ी संख्या में लोगों ने सैकड़ों किलोमीटर दूर के अपने गांव-जोहार की ओर पैदल ही कूच कर दिया था. कोरोनाकाल में लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं और जिनकी बच गई, वहां सैलरी में कटौती हुई. कम आय वाले और रोजाना कमाने-खाने वाले लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया. लॉकडाउन से उपजे वित्तीय संकट (आर्थिक मंदी) ने भारतीय मध्यम वर्ग, निम्न वर्ग और गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों की कमर तोड़ दी है. लॉकडाउन का एक साल बीत जाने पर भी स्थितियां बदली नहीं हैं, बल्कि यह वित्तीय संकट और गहराता जा रहा है. 2008 में आई वैश्विक आर्थिक मंदी का असर भारत पर नहीं बल्कि 'इंडिया' पर पड़ा था. उस दौरान शेयर बाजार, इम्पोर्ट और एक्सपोर्ट, आउसोर्सिंग व्यापार पर ही इसका असर पड़ा था. लेकिन, 2020 में कोरोना महामारी के बाद आई मंदी ने इस बार कोई भेदभाव नहीं किया और सभी की आर्थिक स्थितियों पर बुरा प्रभाव डाला है.
कोरोना महामारी की वजह से बीता एक साल भारतीयों के लिए बहुत कठिन रहा है और आने वाले समय में इसका भयावहता और बढ़ने की संभावना है. लगातार सामने आ रही तमाम रिपोर्ट्स और सर्वे इस बात की तस्दीक कर रहे हैं. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) के हालिया जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, परिवारों पर कर्ज बढ़ गया है और बचत घट गई है. लोगों ने परिवार के खर्चे पूरे करने के लिए बड़ी मात्रा में कर्ज लिया, बावजूद इसके की वह इसे चुका पाने की हालत में नहीं आए हैं. लोगों ने अपनी बचत के पैसों से भी अपने खर्चों को पूरा किया. कोरोनाकाल में 1.25 करोड़ लोगों ने अपने पीएफ खातों से रकम निकाली और लॉकडाउन के बाद गोल्ड लोन वगैरह में उछाल आने के आंकड़े इसकी गवाही देते हैं. यह वो आंकड़े हैं, जो सामने आ सकते हैं. एक गरीब आदमी ने महाजन से कितना कर्ज लिया होगा, इसका आंकड़ा सामने नहीं आ सकता है. कोरोनाकाल में देश की बड़ी आबादी को आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा और इस दौरान मिली यह चोट आसानी से भरती दिख नहीं रही है. क्रेडिट कार्ड और लोन लेने वालों के सामने EMI की किस्त भरने की चिंता बढ़ गई है. नौकरियां मिल नहीं रही हैं, तो इनका निपटारा जल्द होता दिख भी नहीं रहा है. गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोग भी कर्ज के जाल में फंस चुके हैं.
अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर (Pew Research Center) के अनुसार, वित्तीय संकट की वजह से बीते साल तकरीबन 3.2 करोड़ भारतीय, मध्यम वर्ग से बाहर हो गए हैं. प्रतिदिन 10 डॉलर से 20 डॉलर (700 रुपये से 1500 रुपये) के बीच कमाने वाले ये लोग मध्यम वर्ग से बाहर हो चुके हैं. देश में गरीबों की संख्या में भी 7.5 करोड़ लोग और जुड़ गए हैं. इसका कारण सीधे तौर पर कोरोना महामारी की वजह से उपजी बेरोजगारी ही मानी जा सकती है. उद्योग-धंधे अभी भी पूरी क्षमता के साथ नहीं चल पा रहे हैं. रोजाना काम करने वाले वर्ग के सामने भी आय का साधन सीमित हो गए हैं. लोगों के पास खर्चे पहले जैसे ही हैं, लेकिन हाथ में पैसा नही हैं. ये आंकड़े चिंताजनक है, लेकिन भारत सरकार के हिसाब से अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही है.
महंगाई की वजह से भारत का तकरीबन हर वर्ग (उच्च और उच्च-मध्यम वर्ग को छोड़कर) बुरे हाल से गुजर रहा है. मार्च 2020 में 87 रुपये प्रति लीटर (थोक भाव) के करीब मिलने वाला खाद्य तेल (रिफाइंड) आज करीब 135 रुपये प्रति लीटर पर पहुंच गया है. पेट्रोल-डीजल के दामों में तेजी के साथ ही खाने-पीने का सामान और सब्जियों के दामों में आग लगी हुई है. कोरोना महामारी की दूसरी लहर आने से पहले ही बाजारों की हालत खराब चल रही थी. लॉकडाउन के व्यापक असर की वजह से मध्यम वर्ग के छोटे व्यापारी कर्ज में लदते जा रहे हैं और नौकरीपेशा लोगों का भी कमोबेश यही हाल है. लोवर क्लास और गरीबों की स्थिति और बुरी होती जा रही है. हाल के समय में सामने आए सरकारी आंकड़े आने वाले बुरे वक्त की ओर एक इशारा मात्र हैं.
भारत में कोरोनारोधी टीकाकरण का काम बहुत धीमे चल रहा है. कोरोना प्रोटोकॉल्स के सहारे लोग खुद को बचा तो सकते हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था पर भी इसका अप्रत्यक्ष तौर से असर पड़ेगा. कोरोना के खिलाफ जारी वैश्विक लड़ाई में भारत के योगदान को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने सराहा है. दूसरे देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराने में भारत अव्वल है. लेकिन, भारत में टीकाकरण व्यापक स्तर से नहीं हो पा रहा है. कोरोना महामारी फिर से कुछ राज्यों में पैर पसार रही है और इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. आने वाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था का हाल और बुरा हो सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. कोरोना महामारी ने जो दर्द लोगों को दिया है, वह लंबे समय तक रहने वाला है.
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