कोरोना वायरस का संक्रमण सिर्फ इंसानों तक ही सीमित नहीं रह गया है. इस वायरस ने अब इंसानियत, मानवीयत और तमाम रिश्ते नातों को भी संक्रमित करके रख दिया है. इंसान इतना कठोर हो चुका है कि आज अगर आस-पड़ोस में कोई मौत हो जा रही है तो वह मौत में शामिल होना तो दूर अपनी खिड़की और दरवाजे को खोलना भी गवारा नहीं कर रहा है. रिश्तेदार हों या फिर समाज, हर कोई ऐसा जता देता है कि उन्हें तो पता ही नहीं हुआ, और अगर पता भी हुआ तो नजरअंदाज करता हुआ दिखाई पड़ रहा है. जिस घर में कोरोना से मौत हुई हो उस परिवार को न तो मौके पर दिलासा देने वाला कोई मौजूद होता है और न ही मरने वाले की अंतिम क्रिया को अंजाम देने में उस परिवार का कोई साथ देने वाला होता है. हताश परिवार तब और भी टूट जाता है जब शव को कांधा देने को चार लोग भी नहीं नसीब हो पाते हैं. जब कांधा भी नसीब न हो तो एम्बुलेंस का सहारा रह जाता है जो शव को श्मशान घाट या फिर कब्रिस्तान तक की दहलीज तक पहुंचा सकता है, लेकिन हाय रे अफसोस कि एम्बुलेंस भी नदारद हैं. अगर है भी तो उसकी कीमत इतनी अधिक है कि उसका किराया वहन कर पाना भी एक नई कुर्बानी है. मौत उस इंसान की तो होती ही है जिसने इस संक्रमण का शिकार होकर अपनी आखिरी सांस ले ली और इस बीमारी के मुंह का निवाला बन गया, लेकिन इसके साथ ही मौत होती है रिश्तों की, मौत होती है इंसानियत की.
हम लड़ रहे हैं, हर कदम पर लड़ रहे हैं. कभी अस्पतालों में बेड के लिए लड़ रहे हैं, कभी दवाओं के लिए लड़ रहे हैं, कभी इंजेक्शन के लिए लड़ रहे हैं तो कभी ऑक्सीजन के लिए लड़ रहे हैं. मौत से लड़ रहे हैं ज़िंदगी से लड़ रहे हैं और उनसे लड़ रहे हैं जो इंसान के नाम पर कलंक बन चुके है. जमाखोरी के खिलाफ लड़ रहे हैं,...
कोरोना वायरस का संक्रमण सिर्फ इंसानों तक ही सीमित नहीं रह गया है. इस वायरस ने अब इंसानियत, मानवीयत और तमाम रिश्ते नातों को भी संक्रमित करके रख दिया है. इंसान इतना कठोर हो चुका है कि आज अगर आस-पड़ोस में कोई मौत हो जा रही है तो वह मौत में शामिल होना तो दूर अपनी खिड़की और दरवाजे को खोलना भी गवारा नहीं कर रहा है. रिश्तेदार हों या फिर समाज, हर कोई ऐसा जता देता है कि उन्हें तो पता ही नहीं हुआ, और अगर पता भी हुआ तो नजरअंदाज करता हुआ दिखाई पड़ रहा है. जिस घर में कोरोना से मौत हुई हो उस परिवार को न तो मौके पर दिलासा देने वाला कोई मौजूद होता है और न ही मरने वाले की अंतिम क्रिया को अंजाम देने में उस परिवार का कोई साथ देने वाला होता है. हताश परिवार तब और भी टूट जाता है जब शव को कांधा देने को चार लोग भी नहीं नसीब हो पाते हैं. जब कांधा भी नसीब न हो तो एम्बुलेंस का सहारा रह जाता है जो शव को श्मशान घाट या फिर कब्रिस्तान तक की दहलीज तक पहुंचा सकता है, लेकिन हाय रे अफसोस कि एम्बुलेंस भी नदारद हैं. अगर है भी तो उसकी कीमत इतनी अधिक है कि उसका किराया वहन कर पाना भी एक नई कुर्बानी है. मौत उस इंसान की तो होती ही है जिसने इस संक्रमण का शिकार होकर अपनी आखिरी सांस ले ली और इस बीमारी के मुंह का निवाला बन गया, लेकिन इसके साथ ही मौत होती है रिश्तों की, मौत होती है इंसानियत की.
हम लड़ रहे हैं, हर कदम पर लड़ रहे हैं. कभी अस्पतालों में बेड के लिए लड़ रहे हैं, कभी दवाओं के लिए लड़ रहे हैं, कभी इंजेक्शन के लिए लड़ रहे हैं तो कभी ऑक्सीजन के लिए लड़ रहे हैं. मौत से लड़ रहे हैं ज़िंदगी से लड़ रहे हैं और उनसे लड़ रहे हैं जो इंसान के नाम पर कलंक बन चुके है. जमाखोरी के खिलाफ लड़ रहे हैं, चरमराई हुई व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं. हमारा अपना लड़ कर हार मान जा रहा है, दुनिया को अलविदा कह दे रहा है, मगर हम फिर भी लड़ रहे हैं. अबतक हम जिसकी जान बचाने के लिए लड़ रहे थे अब उसके आखिरी सफर के लिए लड़ रहे हैं.
कफन के लिए लड़ रहे हैं, श्मशान में चिता के लिए लड़ रहे हैं, लकड़ी के लिए लड़ रहे हैं, कब्रिस्तानों में दो गज ज़मीन के लिए लड़ रहे हैं. बदहाल सिस्टम और विकलांग व्यवस्थाओं के बीच हम लड़ ही तो रहे हैं. शवदाहों का वो हाल है कि पूछिए ही मत, लकड़ी से लेकर कर्मकांड और मुक्तिधाम तक के सारे खर्चे ठेकेदारी और मुनाफा-गिरी की भेंट चढ़ गए हैं, हर चीज़ की कीमत आसमान की बुलंदी को छू रही है. सब अपनी झोली को भर लेना चाह रहे हैं और भरें भी क्यों न क्योंकि श्मशानों में पहली बार तो इतनी लंबी कतार लगी है.
अब भला आपदा में इस तरह के अवसर से वह दूर क्यों भागते.श्मशानों और कब्रिस्तानों में लगा यह मेला और वहां ऊंची ऊंची कुर्सी पर बैठे बेरहम और अमानवीय चेहरा लिए हुए ठेकेदार हर एक लाश की कीमत लगाने में जुटे हुए हों तो ऐसे में एक साधारण से मनुष्य के पास विकल्प ही क्या बचता है. वह या तो लाश को अपनी किसी ज़मीन में दफ़न कर दे या फिर नदी में प्रवाहित कर दे या फिर ऐसे ही जानवरों को नोचकर खाने के लिए फेंक दे.
न जाने कौन सी लाश को किस तरह का अंतिम सफर नसीब हो रहा है, हर तरह की खबरें सामने आ चुकी हैं. घरों में लाश सड़ने तक की खबर आ चुकी है. कितना वीभत्स नज़ारा है आप सोचकर ही दहल सकते हैं. इंसान के कल्पनाओं से भी बाहर है ये घटनाएं. हर रिश्ते मर चुके हैं, सारी संवेदनाएं शहीद हो चुकी हैं. सहारा और दिलासा सिर्फ एक शब्द ही बनकर रह गए हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार से जो खबर सामने आई उसने मनुष्य की कीमत और आज की सच्चाई को सामने ला दिया है.
गंगा और यमुना नदी में सैकड़ों लाशें तैर रही हैं. उत्तर प्रदेश का प्रशासन कह रहा लाशें हमारी नहीं है बिहार का प्रशासन कह रहा है लाशें हमारी नहीं उत्तर प्रदेश के जिलों से बहकर आ रही हैं. लाश की कोई कीमत नहीं है हमारी और तुम्हारी लाश कहकर लाशों का मजाक बनाया जा रहा है. नदी के पास रहने वाले लोग जो नदी में लाश देखने के आदी थे वह भी सहम गए हैं. कभी भी इतनी लाशें नहीं देखी थी. हैरानी तब और ज्यादा हुई जब उन्होंने नदी में बहती हुई केवल लाश देखी जिसपर न तो कफन थे और न ही अन्य कोई आखिरी सफर से जुड़ी चीज़ें.
यह लाश कहां से आयी इसका कुछ अता पता नहीं है. प्रशासन जांच में जुटा हुआ है लेकिन जो हाल है वह सबके सामने है. कुछ शव का ये हाल है कि वह इतने सड़ गल चुके हैं कि उनका पोस्टमार्टम हो पाना भी संभव नहीं है. जो भी शव प्रशासन ने पाए सबको नदी के किनारे ही जेसीबी से गड्ढा खोदकर दफन कर दिया गया है. मगर शव अभी भी मिल रहे हैं. ये शव कहां से आ रहे हैं इसपर सिर्फ आरोप प्रत्यारोप ही जारी है.
शव किस जिले के हैं यह तो जांच के बाद मालूम हो सकेगा लेकिन शव का नदी में बहाया जाना ये साफ कर दे रहा है कि न तो हमारे श्मशान के हालात सही हैं और न ही कब्रिस्तान के. हर जगह लूट मार जारी है. खबरें खून के आंसू रुलाती है, व्यवस्थाएं कब दुरुस्त होंगी मालूम नहीं, एक महामारी ने हम सबको अपाहिज बना कर छोड़ दिया है. इंसानियत दुनिया की एक बीमारी के आगे ही दम तोड़ चुकी है. शर्म से सिर झुके हैं रास्ता सुझाए नहीं सूझता है. इस महामारी ने हमारी संवेदनाओं की हत्या कर दी है.
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