रोने को लेकर तमाम फ़लसफ़े बने लेकिन 'दिल जलता है तो जलने दे, आंसू न बहा फ़रियाद न कर ..' का ज़माना अब लद गया है. हां, एक फ़लसफ़ा महान कवि जयशंकर प्रसाद ने भी बयां किया था और आज उसे ही आत्मसात करने की महती आवश्यकता है चूंकि वही सत्य है, शिव है, सुंदर है - 'जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तिष्क में स्मृति सी छायी,दुर्दिन पर आंसू बनकर, वह आज बरसने आयी !' रोने पर लड़कियों का कॉपीराइट है, इस मान्यता के पीछे गहरी साजिश थी मर्दों के खिलाफ जिसने जन्म दिया एक छलावे को कि मर्द को दर्द नहीं होता. और हम मर्द इस छलावे में आ गए और ना रोकर किले फतह करने का मुगालता पालते रहे. हमें समझा दिया गया कि हमारे भीतर महिलाओं वाली कमजोरियां नहीं है. तो गम गलत करना भी सीख लिया मधुशाला से ( दिवंगत हरिवंश राय बच्चन से क्षमा याचना सहित)! दम भरने लगे अपुन कभी रोते नहीं और रिएक्शन में अशिष्ट घटनाओं, निकृष्ट चुटकुलों और वीभत्स दुर्घटनाओं पर हंसना सीख लिया मानों यही मर्द होने की पहचान है.
नतीजा क्या हुआ ? हमने पीड़ाओं को दबाना शुरू कर दिया तो कहा जाने लगा डिप्रेशन में है, साइको है और हमारी विपदा में अवसर खोज लिए मनोरोग चिकित्सकों ने.पता नहीं क्या क्या नाम दे दिया हमें ? बाइपोलर है, एंग्जायटी डिसऑर्डर है, सिज़ोफेरनिया(Schizophernia) है ! खैर ! उनकी भी तो दुकानदारी है. रोने से मन हल्का होता है. रोने के तुरंत बाद नींद भी आती है.
सोकर उठने के बाद आदमी अपने आपको तरोताजा महसूस करता है.वो सुसाइडल थॉट वाला क्रिटिकल पल एक बारी निकल जाता है. कुछेक नए विचार जन्म लेते हैं संभलने के लिए. इन सारी बातों में कोई दार्शनिकता नहीं है, रोकर ही आप एहसास कर सकते हैं और यक़ीनन सबने कभी ना कभी महसूस किया भी है. रोना एक...
रोने को लेकर तमाम फ़लसफ़े बने लेकिन 'दिल जलता है तो जलने दे, आंसू न बहा फ़रियाद न कर ..' का ज़माना अब लद गया है. हां, एक फ़लसफ़ा महान कवि जयशंकर प्रसाद ने भी बयां किया था और आज उसे ही आत्मसात करने की महती आवश्यकता है चूंकि वही सत्य है, शिव है, सुंदर है - 'जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तिष्क में स्मृति सी छायी,दुर्दिन पर आंसू बनकर, वह आज बरसने आयी !' रोने पर लड़कियों का कॉपीराइट है, इस मान्यता के पीछे गहरी साजिश थी मर्दों के खिलाफ जिसने जन्म दिया एक छलावे को कि मर्द को दर्द नहीं होता. और हम मर्द इस छलावे में आ गए और ना रोकर किले फतह करने का मुगालता पालते रहे. हमें समझा दिया गया कि हमारे भीतर महिलाओं वाली कमजोरियां नहीं है. तो गम गलत करना भी सीख लिया मधुशाला से ( दिवंगत हरिवंश राय बच्चन से क्षमा याचना सहित)! दम भरने लगे अपुन कभी रोते नहीं और रिएक्शन में अशिष्ट घटनाओं, निकृष्ट चुटकुलों और वीभत्स दुर्घटनाओं पर हंसना सीख लिया मानों यही मर्द होने की पहचान है.
नतीजा क्या हुआ ? हमने पीड़ाओं को दबाना शुरू कर दिया तो कहा जाने लगा डिप्रेशन में है, साइको है और हमारी विपदा में अवसर खोज लिए मनोरोग चिकित्सकों ने.पता नहीं क्या क्या नाम दे दिया हमें ? बाइपोलर है, एंग्जायटी डिसऑर्डर है, सिज़ोफेरनिया(Schizophernia) है ! खैर ! उनकी भी तो दुकानदारी है. रोने से मन हल्का होता है. रोने के तुरंत बाद नींद भी आती है.
सोकर उठने के बाद आदमी अपने आपको तरोताजा महसूस करता है.वो सुसाइडल थॉट वाला क्रिटिकल पल एक बारी निकल जाता है. कुछेक नए विचार जन्म लेते हैं संभलने के लिए. इन सारी बातों में कोई दार्शनिकता नहीं है, रोकर ही आप एहसास कर सकते हैं और यक़ीनन सबने कभी ना कभी महसूस किया भी है. रोना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, मस्तिष्क में जब पीड़ा घनी हो जाती है तो रोना जरुरी हो जाता है.
सारा दुःख संताप आंसू के माध्यम से बह जाता है. फिर आज तो जेंडर इक्वलिटी की बात होती है. तो पुरुषों के रोने को सामाजिक कलंक ना समझे। पेट्रियार्की के नाम पर सदियों से चली आ रही दकियानूसी मर्दाना सोच को दरकिनार कर मर्दों को भी रोने का अधिकार दें, रोने की सुविधा दें. हम साथ साथ हैं तो समझें एक जीवित हृदय और दो पारदर्शी पानीदार आंखें पुरुषों की भी हैं.
अमूमन बात हंसने की होती है और कभी कभी हम ऑब्ज़र्व भी करते हैं कि हंसना हरेक के बलबूते की बात नहीं हैं. वैसे कब कौन किस बात पर हंसता है और कितना हंसता है तो वो अंग्रेजी में कहते हैं ना डिग्री ऑफ़ कम्पेरिज़न! इसीलिए लाफिंग थेरेपी को भी हैप्पीनेस टूल के रूप में डिप्रेशन का इलाज करने के लिए किया जाने लगा है. यहीं थोड़ा विरोधाभास है और सहमति होते हुए भी असहमति है.
आदमी खुलकर हंस तो सबों के बीच सकता है लेकिन खुल कर रो दिया तो 'रुदाली' कह दिया जाएगा. कहने का मतलब हंसना और रोना को एक दूसरे का पूरक बनाने की जरुरत है. सामूहिक रोना तो कभी सोशल स्टेटस सिंबल टाइप बन ही नहीं पाया।हसन कमाल ने यूँ ही नहीं रच दिया था - 'चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है !' मतलब रोने की बात हो तो चुप चुप रो लेना है.
लेकिन मर्दानगी के गढ़े गए तमाम फ़लसफ़ों की वजह से और अब तो इक्वालिटी की दुहाई देकर औरतों का भी दुनिया में रोना कठिन होता जा रहा है, लोग रोना भूल रहे हैं. ना रोने के कारण तनाव में घिरते जा रहे हैं तो रोग ग्रस्त होते जा रहे हैं. रोना जीवन के लिए बहुत जरूरी है. यही वजह है कि जापान में एक शख्स लोगों को रोना सिखा रहा है. इसे 'रुई-कात्सु' समारोह कहा जाता है, मायने है आंसू आने वाले समारोह.
हिडिफुमी योशुदा नाम के इस शख्स का कहना है कि वह लोगों को रुलाकर तरोताजा महसूस कराते हैं और अब उनके क्लाइंट्स की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. इनका कहना है कि एक समय जापान में रोना सामान्य था मगर अब लोग रोना भूलते जा रहे हैं. वे अंदर ही अंदर घुटते हैं, इससे मानसिक रूप से भी आदमी प्रभावित होता है तथा शारीरिक रूप से भी.
इसलिए उन्होंने लोगों को रोना सिखाने का बीड़ा उठाया। वे इसके लिए व्यक्ति की भावनाओं को आधार बनाते हैं. जर्रा जर्रा रोने से या आंसुओं को पीकर अंदर ही अंदर रोने से बेहतर होता है आंसुओं से भीग जाने वाला रोना. इससे आदमी बहुत हल्कापन महसूस करता है. तो जिस तरह लाफिंग सेशन पार्कों में हो रहे हैं, घरों में हो रहे हैं, हॉस्पिटल में हो रहे हैं, ठीक उसी प्रकार क्यों ना टेयरिंग(tearing) सेशन भी हों ताकि तमाम पीड़ा, अवसाद, दुःख, संताप आंसुओं में बह जाए.
एक पुराने तराने के बीच की लाइनें याद आ रही हैं, 'दुख सुख की क्या बात है, क्या दिन है क्या रात है, आंसू भी मुस्कान बने, ये तो अपने हाथ हैं.' हां , रोना सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी के कथानक की 'रुदाली' वाला रोना ना बन पाए. शुरुआत देश में भी हो चुकी है क्राइंग क्लबों की.
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