कलम में मुहब्बत भी हो और इंकलाब भी, कैसे कर दूँ इतना घालमेल लेखनी मे आज.......मौका है दस्तूर भी कहना तो पड़ेगा, तुम किस कलम में जिंदा हो आज दुष्यंत कुमार.
"शर्त थी लेकिन यह बुनियाद हिलनी चाहिए......."
पर आज यह दिवार पर्दों की तरह नही हिलती, बल्कि परदे भी दिवार की तरह जड़ हो गए है.
इतना आसान नहीं है दुष्यंत को लिखना मगर उतना ही आसान है उनको समझना, पिता चाहते थे कि दुष्यंत कुमार कलेक्टर बने सिविल सर्विसेज ज्वॉइन करें मगर दुष्यंत को तो शायरी रास आ रही थी. 70 का दौर था जब देश मे राजनैतिक और सामाजिक उथल पुथल का दौर एक अजीब सी बैचेनी महसूस करने लगा, तब एक युवा एकांत मे बैठकर अपने लेखन मे बदलाव की स्याही भरने लगा. विचार एक नई करवट ले रहे थे. 1974 जय प्रकाश नारायण आंदोलन क्रांति लिखने की तैयारी कर रहा था. आवश्यकता थी एक बेहतर राजनैतिक व्यवस्था के निर्माण की. एक शब्द इंकलाब बनकर सामने आया.
" संपूर्ण क्रांति "
मत कहो कोहरा घना हैयह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है...
उस वक्त आम जनता की जुबान पर जो नारे मचल रहे थे वो एक इंकलाबी कवि की कलम से निकल रहे थे, जो जनता की घुटन की आवाज़ बन रहा था, नाम था दुष्यंत कुमा. गज़ल को कथनी, करनी और क्रांति बना देने वाले दुष्यंत कुमार, वो दुष्यंत था जिसने गूंगे देश की बैचेनी को आवाज़ दी. लाशों के हाथ हिलाकर चलने की बात की, आसमां के सीने मे पत्थर तबियत से उछालने की हिम्मत की. ये कवि लिख नहीं रहा था बल्कि अपनी कलम को हथियार बनाकर लड़ रहा था. गज़ल नहीं हथियार है. उससे पहले गज़ल महबूबा की जुल्फों मे उलझी शाम लिख रही थी, महबूबा की तड़प और विरह बन रही थी, दुष्यंत ने उसे हथियार बना दिया.
1970 मे जय प्रकाश नारायण...
कलम में मुहब्बत भी हो और इंकलाब भी, कैसे कर दूँ इतना घालमेल लेखनी मे आज.......मौका है दस्तूर भी कहना तो पड़ेगा, तुम किस कलम में जिंदा हो आज दुष्यंत कुमार.
"शर्त थी लेकिन यह बुनियाद हिलनी चाहिए......."
पर आज यह दिवार पर्दों की तरह नही हिलती, बल्कि परदे भी दिवार की तरह जड़ हो गए है.
इतना आसान नहीं है दुष्यंत को लिखना मगर उतना ही आसान है उनको समझना, पिता चाहते थे कि दुष्यंत कुमार कलेक्टर बने सिविल सर्विसेज ज्वॉइन करें मगर दुष्यंत को तो शायरी रास आ रही थी. 70 का दौर था जब देश मे राजनैतिक और सामाजिक उथल पुथल का दौर एक अजीब सी बैचेनी महसूस करने लगा, तब एक युवा एकांत मे बैठकर अपने लेखन मे बदलाव की स्याही भरने लगा. विचार एक नई करवट ले रहे थे. 1974 जय प्रकाश नारायण आंदोलन क्रांति लिखने की तैयारी कर रहा था. आवश्यकता थी एक बेहतर राजनैतिक व्यवस्था के निर्माण की. एक शब्द इंकलाब बनकर सामने आया.
" संपूर्ण क्रांति "
मत कहो कोहरा घना हैयह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है...
उस वक्त आम जनता की जुबान पर जो नारे मचल रहे थे वो एक इंकलाबी कवि की कलम से निकल रहे थे, जो जनता की घुटन की आवाज़ बन रहा था, नाम था दुष्यंत कुमा. गज़ल को कथनी, करनी और क्रांति बना देने वाले दुष्यंत कुमार, वो दुष्यंत था जिसने गूंगे देश की बैचेनी को आवाज़ दी. लाशों के हाथ हिलाकर चलने की बात की, आसमां के सीने मे पत्थर तबियत से उछालने की हिम्मत की. ये कवि लिख नहीं रहा था बल्कि अपनी कलम को हथियार बनाकर लड़ रहा था. गज़ल नहीं हथियार है. उससे पहले गज़ल महबूबा की जुल्फों मे उलझी शाम लिख रही थी, महबूबा की तड़प और विरह बन रही थी, दुष्यंत ने उसे हथियार बना दिया.
1970 मे जय प्रकाश नारायण आंदोलन अपनी जमीन तलाश रहा था और जेपी की छत्रछाया में कुछ नई पौध अंकुरित हो रही थी और उन युवाओं की जुबान पर जो अफसाने मचल रहे थे अंगार बनकर वो दुष्यंत की कलम के शोले थे. वो दौर ऐसा था जहां भी सभा हो वही हर भाषण मे शब्द दुष्यंत की गज़लें थी. मंच चाहे जो भी हो आवाज़ दुष्यंत कुमार ही थे. आंदोलन की आवाज़ दुष्यंत बनने लगे.
दुष्यंत त्यागी "विकल" उनका पूरा परिचय, पर उसमे से विकल जरूर गायब हो गया पर यह विकलता धूप मे साये और साये में धूप मे बनकर बखूबी दिखने लगी.
1974 के आसपास यह विकलता विकराल हो गई; और लिख दिया अपनी कलम से.......
" कहां तो तय था चरागां हरेक घर के लिए, कहाँ चरागां मयस्सर नही शहर के लिए "
कमाल है न ! सत्तर के दशक का चिराग आज तक मयस्सर नहीं घर के लिए !!
यह शायरी जब कलम से निकली तो उस समय की राजनैतिक सामाजिक परिस्थितियों से मोहभंग हो रहा था, गरीबी, मंहगाई और राजनेताओं के झूठे वादे घुटन पैदा कर रहे थे और दुष्यंत कुमार बस कलम से लड़ रहे थे एक पूरी हुकूमत के खिलाफ़.
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए...
एक ऐसा कवि जिसने आम लोगों की जुबान में बात की, एक आम सी शायरी की. तरिका इतना सरल सहज जिसे महसूस किया जा सके, आवाज़ इतनी बुलंद जो लाखों लहू की नसों में उबाल ला सके. दुष्यंत इंकलाब लिख रहे थे.
देखिए मैं तो गज़ल सुनाता हूँ, जिसे मे ओढ़ता और बिछाता हूँ ।।
अल्लड़ फक्कड़ फ़कीर थे दुष्यंत जो लिखते थे वो ही ओढ़कर सुनाते जाते थे.......वर्तमान की तकलीफ़ थी और भविष्य की कोई फिक्र नहीं । वो भी एक दौर थाये भी एक दौर है,
"एक कलम सत्ता से भिड़ गई और आज हजारों कलमों के सरकलम है"......बोलों न कैसे लिख दूँ दुष्यंत तुम्हें ।।
तुम न अपनी बात उर्दू मे कह रहे थे और न अपनी बात हिन्दी में, वो तो अपनी बात हिंदुस्तानी मे कह रहे थे. भाषा का घालमेल सम्पूर्ण क्रांति कह रहा था, लिख रहा था.
दुष्यंत कुमार को लिखने के लिए साहेब !!! दिल में बेइंतहा मुहब्बत और कलम मे इंकलाब चाहिए.
" एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहां राह भूल जाता हूँ । तू किसी रेल सी गुजरती हैं, मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ ।। "
मेरी यही बातसपाट इस देश को एक दुष्यंत कुमार चाहिए..
लिखते लिखते कितना लिखूँ आपको, कलम है, आपकी लेखनी का कायल मन है......
आपको श्रद्धांजलि.....
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,आजकल नेपथ्य में संभावना है ।
--दुष्यंत कुमार
पुण्यतिथि पर आपकी कालजयी कलम को सलाम....
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.