Delhi Riots: 1998 में आई दीपा मेहता (Deepa Mehta) की फ़िल्म '1947 अर्थ' का एक दृश्य है. लाहौर (Lahore) में दंगाइयों की भीड़ (Mob of rioters) ने दूसरे पक्ष के एक लड़के को पकड़ लिया है. पकड़ा गया लड़का बमुश्किल 16 साल का है. दहशत के मारे चीख रहा है, लेकिन भीड़ को कुछ सुनाई नहीं दे रहा. उस लड़के के दोनों पैर दो अलग-अलग रस्सियों से बांधे जा रहे हैं, जिन्हें दो अलग-अलग दिशाओं में खड़ी गाड़ियों से बांधा गया है. गाड़ियां स्टार्ट होती हैं, तेजी से विपरीत दिशाओं में भागती हैं और... खच्चाक! लड़का दो टुकड़ों में फट जाता है और उसकी अंतड़ियां बाहर सड़क पर फैल जाती हैं. बचपन में देखी गयी इस फ़िल्म का ये दृश्य आज भी मेरे ज़हन में ताजा है. मैं सालों तक सोचता रहा कि उन दंगाइयों (Rioters) को उस बच्चे की चीख क्यों नहीं सुनाई दी? ये समझने में मुझे सालों लग गए कि उस भीड़ के पास दरअसल उस बच्चे की चीख सुनने और उस पर दया करने का विकल्प ही नहीं था.
उस बच्चे की हत्या करने वाले लोग वही लोग थे जिनके अपने बच्चों और बाकी परिवारजनों की दूसरे पक्ष ने इसी तरह हत्या कर दी थी. ऐसे में दंगाइयों की वो भीड़ सिर्फ हिंसा नहीं कर रही थी, बल्कि अपनों की मौत का मातम भी मना रही थी. वो वक़्त ही फ़सादी था, जब पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के दंगाई एक दूसरे को ट्रेन भर-भर कर लाशें भेज रहे थे.
उस दौर का हर इंसान अपनी-अपनी भूमिका से बंधा हुआ था. भारत में मौजूद मुसलमान अल्पसंख्यक रहे हों, चाहे पाकिस्तान में मौजूद हिन्दू और सिख अल्पसंख्यक.दोनों के लिए पीड़ित की भूमिका में होना तय था. डरा हुआ होना और अपनों की मौत का मातम मनाना उनके हिस्सों में आये अन्य काम थे. ठीक इसी तरह पाकिस्तान के बहुसंख्यक...
Delhi Riots: 1998 में आई दीपा मेहता (Deepa Mehta) की फ़िल्म '1947 अर्थ' का एक दृश्य है. लाहौर (Lahore) में दंगाइयों की भीड़ (Mob of rioters) ने दूसरे पक्ष के एक लड़के को पकड़ लिया है. पकड़ा गया लड़का बमुश्किल 16 साल का है. दहशत के मारे चीख रहा है, लेकिन भीड़ को कुछ सुनाई नहीं दे रहा. उस लड़के के दोनों पैर दो अलग-अलग रस्सियों से बांधे जा रहे हैं, जिन्हें दो अलग-अलग दिशाओं में खड़ी गाड़ियों से बांधा गया है. गाड़ियां स्टार्ट होती हैं, तेजी से विपरीत दिशाओं में भागती हैं और... खच्चाक! लड़का दो टुकड़ों में फट जाता है और उसकी अंतड़ियां बाहर सड़क पर फैल जाती हैं. बचपन में देखी गयी इस फ़िल्म का ये दृश्य आज भी मेरे ज़हन में ताजा है. मैं सालों तक सोचता रहा कि उन दंगाइयों (Rioters) को उस बच्चे की चीख क्यों नहीं सुनाई दी? ये समझने में मुझे सालों लग गए कि उस भीड़ के पास दरअसल उस बच्चे की चीख सुनने और उस पर दया करने का विकल्प ही नहीं था.
उस बच्चे की हत्या करने वाले लोग वही लोग थे जिनके अपने बच्चों और बाकी परिवारजनों की दूसरे पक्ष ने इसी तरह हत्या कर दी थी. ऐसे में दंगाइयों की वो भीड़ सिर्फ हिंसा नहीं कर रही थी, बल्कि अपनों की मौत का मातम भी मना रही थी. वो वक़्त ही फ़सादी था, जब पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के दंगाई एक दूसरे को ट्रेन भर-भर कर लाशें भेज रहे थे.
उस दौर का हर इंसान अपनी-अपनी भूमिका से बंधा हुआ था. भारत में मौजूद मुसलमान अल्पसंख्यक रहे हों, चाहे पाकिस्तान में मौजूद हिन्दू और सिख अल्पसंख्यक.दोनों के लिए पीड़ित की भूमिका में होना तय था. डरा हुआ होना और अपनों की मौत का मातम मनाना उनके हिस्सों में आये अन्य काम थे. ठीक इसी तरह पाकिस्तान के बहुसंख्यक मुसलमान रहे हों, चाहे हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक हिन्दू और सिख रहे हों. दूसरे देश में अपनी कौम के लोगों पर हो रहे जुल्मों का बदला लेने के बहाने अपने यहां के अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करना उनके हिस्से का काम था, और इस भूमिका से बच पाना उनके वश में भी नहीं था.
न मरने वाले अपनी मौत को टाल सकते थे, न मारने वाले अपने कत्लों की फेहरिस्त घटा सकते थे. दोनों ओर के कातिलों पर कत्ल से इनकार करने के बदले कौम का गद्दार समझे जाने का जोखिम था. मर जाना और मार देना ही उस वक़्त धर्म-मज़हब बन चुका था. फिर भी, मुझे पूरा विश्वास है कि दोनों ओर के कातिलों में कुछ ऐसे लोग भी जरूर रहे होंगे, जो मन ही मन कत्ल के खिलाफ़ रहे होंगे.
आज, सात दशक बाद, जब दिल्ली दंगों की चपेट में है, तब भी मैं यही कहूंगा कि हालात बहुत अलग नहीं हैं. आम शहरी डरा हुआ है, क्योंकि दंगों की स्क्रिप्ट में उसकी यही भूमिका तय है. बाकी संवेदनशील इलाकों में लोग दंगा करने और दंगों की चपेट में आने के लिए अभिशप्त हैं. कहना ये भी चाहता हूं कि धर्म के नाम पर दंगा करना शक्ति-प्रदर्शन का सबसे आदिम तरीका है. ऐसे नाजुक वक़्त में हमें धैर्य से काम लेना होगा और यथासंभव अपनी भूमिका को सकारात्मक बनाना होगा. हमें डरने और डराने से इनकार करना होगा.
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