दिल्ली की रिया की उड़ान बहुत ऊंची थी, और यही कारण है वह उन उड़ानों को पूरा करने के लिए जी जान से लगी हुई थी. मगर उसकी उड़ान रोक दी गयी. उसकी उड़ान एक सनक की बलि चढ़ गयी. लड़की की न का कोई महत्व नहीं है, अगर लड़की से प्यार है, तो प्यार है, अब लड़की को प्यार नहीं तो उसमें लड़के का कोई दोष नहीं.. रिया अकेली नहीं है, गांवों से लेकर शहर तक ऐसी कई रियाएं हैं. ऐसा नहीं कि आदिल जैसे अनपढ़ ही रिया जैसी लड़कियों पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए छुरे से वार करते रहते हैं, बल्कि यह तो वह मानसिकता है जो लड़की को अपनी विरासत समझती है.
इस कहानी में कोई कह रहा है आदिल ने मुस्लिम नाम छुपाया था और हिन्दू नाम से रिया से दोस्ती की थी, आदिल की असलियत सामने आने पर रिया ने उससे रिश्ता तोड़ लिया था, और वहीं आज की खबर के अनुसार आदिल के रिश्तेदार ने कहा कि रिया के शौक बहुत बढ़ गए थे और आदिल जब उसकी ख्वाहिशें पूरी नहीं कर पाया तो रिया ने उससे रिश्ता तोड़ लिया. कहानी कई हैं, कहानी कई हो सकती हैं. मगर जो मुख्य बात यहां पर है, वह है बीच सड़क पर लड़की पर चाकू से ताबड़तोड़ वार का होना और उधर से गुजरने वालों का शांत होकर गुजरना जैसे कुछ हुआ ही नहीं. सामूहिक संवेदनहीनता की यह परमकाष्ठा है.
रिया की इस कहानी में कई तरह के कोण भी आएंगे, जैसे निर्भया की कहानी में आए थे, यही कि आखिर वह इतनी रात में क्या कर रही थी? क्या बैकसीट पर बैठना जरूरी था? जैसे ही लड़की के साथ कुछ होता है वैसे ही उसके चरित्र की सीवन उधेड़ने की शुरुआत हो जाती है.
जी हुजूरी करते हुए समाज में अपनी पहचान बनाती लड़कियों को आज भी न जाने कितनी अग्निपरीक्षाओं से गुजरना पड़ता है, इसका आंकलन ही लगाना मुश्किल है. थोड़े ही दिनों में रिया को हर तरफ से दोषी ठहराया जाने लगेगा. जो लव जिहाद की थ्योरी पर काम कर रहे हैं, वे रिया को इस बात के लिए कोसेंगे कि आखिर लड़की ने मुसलमान लड़के से प्यार क्यों किया और जो इस थ्योरी पर भरोसा नहीं करते हैं, वे इस बात के लिए रिया को दोषी ठहराएंगे कि उसने आदिल का दुरूपयोग क्यों...
दिल्ली की रिया की उड़ान बहुत ऊंची थी, और यही कारण है वह उन उड़ानों को पूरा करने के लिए जी जान से लगी हुई थी. मगर उसकी उड़ान रोक दी गयी. उसकी उड़ान एक सनक की बलि चढ़ गयी. लड़की की न का कोई महत्व नहीं है, अगर लड़की से प्यार है, तो प्यार है, अब लड़की को प्यार नहीं तो उसमें लड़के का कोई दोष नहीं.. रिया अकेली नहीं है, गांवों से लेकर शहर तक ऐसी कई रियाएं हैं. ऐसा नहीं कि आदिल जैसे अनपढ़ ही रिया जैसी लड़कियों पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए छुरे से वार करते रहते हैं, बल्कि यह तो वह मानसिकता है जो लड़की को अपनी विरासत समझती है.
इस कहानी में कोई कह रहा है आदिल ने मुस्लिम नाम छुपाया था और हिन्दू नाम से रिया से दोस्ती की थी, आदिल की असलियत सामने आने पर रिया ने उससे रिश्ता तोड़ लिया था, और वहीं आज की खबर के अनुसार आदिल के रिश्तेदार ने कहा कि रिया के शौक बहुत बढ़ गए थे और आदिल जब उसकी ख्वाहिशें पूरी नहीं कर पाया तो रिया ने उससे रिश्ता तोड़ लिया. कहानी कई हैं, कहानी कई हो सकती हैं. मगर जो मुख्य बात यहां पर है, वह है बीच सड़क पर लड़की पर चाकू से ताबड़तोड़ वार का होना और उधर से गुजरने वालों का शांत होकर गुजरना जैसे कुछ हुआ ही नहीं. सामूहिक संवेदनहीनता की यह परमकाष्ठा है.
रिया की इस कहानी में कई तरह के कोण भी आएंगे, जैसे निर्भया की कहानी में आए थे, यही कि आखिर वह इतनी रात में क्या कर रही थी? क्या बैकसीट पर बैठना जरूरी था? जैसे ही लड़की के साथ कुछ होता है वैसे ही उसके चरित्र की सीवन उधेड़ने की शुरुआत हो जाती है.
जी हुजूरी करते हुए समाज में अपनी पहचान बनाती लड़कियों को आज भी न जाने कितनी अग्निपरीक्षाओं से गुजरना पड़ता है, इसका आंकलन ही लगाना मुश्किल है. थोड़े ही दिनों में रिया को हर तरफ से दोषी ठहराया जाने लगेगा. जो लव जिहाद की थ्योरी पर काम कर रहे हैं, वे रिया को इस बात के लिए कोसेंगे कि आखिर लड़की ने मुसलमान लड़के से प्यार क्यों किया और जो इस थ्योरी पर भरोसा नहीं करते हैं, वे इस बात के लिए रिया को दोषी ठहराएंगे कि उसने आदिल का दुरूपयोग क्यों किया, उसने आदिल से पैसे मांगे आदि आदि! और अंतत: एक दिन रिया को कटघरे में खड़ा करने के बाद उस मनोवृत्ति को अनदेखा कर दिया जाएगा कि आखिर न सुनने की आदत क्यों नहीं हैं?
रोज़ ही समाचार पत्रों में खबरें हमारे सामने अम्बार की तरह सज जाती हैं और हम उन पर एक नजर डालते हैं और वहां से हट जाते हैं, जैसे उस दिन रिया पर चाकू का वार होते देखकर दो लडकियां हट गईं थीं! स्त्री के प्रति संवेदनहीनता की उस स्थिति में हम हैं जिसमें हर घटना में हम स्त्री को ही दोषी ठहराना चाहते हैं. कई बार कितना सरल हो जाता है स्त्री को उसकी हर हालत के लिए जिम्मेदार ठहरा देना और सामूहिक जिम्मेदारी से हाथ खींच लेना. फेसबुक पर कई लोगों के पोस्ट इस विषय पर थे कि सड़क से गुजर रही लड़कियों ने रिया को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की? सवाल उठना ही चाहिए! यह सवाल बहुत ही वाजिब है कि आखिर उन लड़कियों ने ऐसा क्यों नहीं किया? क्या उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था? जरूर करना चाहिए था, हर हाल में लड़कियों को एक दूसरे का साथ देना चाहिए. यदि एक लड़की पर हमला हो रहा है तो दूसरी लड़की को आगे आना चाहिए. मगर ऐसे में दूसरी लड़की की मदद कौन करेगा?
मुझे याद है ओडिशा में एक लड़की के बलात्कार और ह्त्या के मामले पर बहुत शोर हुआ था, उस लड़की का कसूर इतना ही था, कि उसने अपनी सहेली के साथ हुए बलात्कार की रिपोर्ट पुलिस में लिखवाई थी और गवाही दी थी. बाद में उस लड़की का भी सामूहिक बलात्कार उन लोगों ने किया और बहुत ही बेरहमी से हत्या की कोशिश की थी, हालांकि लड़की की मृत्यु कई दिन कोमा में रहने के बाद हुई थी. कई उदाहरण हमें मिलेंगे जिनमें लड़की ने अन्याय के खिलाफ खड़े होने की या सड़क पर हो रहे अन्याय को रोकने की कोशिश की, तो उसे ही दंड भुगतना पड़ा.
कभी कभी समाज को यह सवाल खुद से करना चाहिए कि आखिर उसने लड़कियों को इतना कमज़ोर क्यों कर दिया है? आखिर क्यों उसके सामने कमज़ोर या त्यागमयी स्त्रियों के उदाहरण को आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया जाता है? क्या कभी ऐसा हुआ है हमने अपने घर की लड़कियों से कहा हो द्रौपदी की तरह बनना, अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिकार करना! अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ डटकर खड़े होना, फिर चाहे कुछ भी हो? कितनी माओं को हम जीजाबाई बनने के लिए हमारे घरवाले कहते हैं? सवाल लौट फिर कर वहीं आते हैं कि जब आप स्त्री के सामने सीता के रोते हुए रूप का आदर्श प्रस्तुत करेंगे तो उससे द्रौपदी जैसे तेज की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? आत्मरक्षा के स्थान पर उससे सब्र करने के लिए कहेंगे या फिर उससे एक गलती हो जाने पर उसे तमाम बंदिशों में बांधने की धमकी का माहौल देंगे तो कैसे वह कोई कदम उठा पाएगी?
यह प्रश्न आज हम सबके सामने रिया की चीखों के रूप में मुंह बाए खड़ा है, कि हम कब आवाज़ उठाएंगे? हम कब दूसरी स्त्री पर होने वाले अन्याय को अपने साथ होने वाला अन्याय समझ पाएंगे? मुझे नहीं पता. कब हम सहानुभूति से हटकर समानुभूति की जमीन पर खड़े हो पाएंगे?
आज बहुत जरूरत है, स्त्री के लिए आदर्शों के नए प्रतिरूप गढ़ने की! सीता के उस रूप को आदर्श बनाने की जिसमें सीता ने अकेले ही समाज का सामना किया, अपने पुत्रों को स्वाबलंबी बनाया, अपनी पहचान को गुप्त रखा और अपने पुत्रों का पालनपोषण किया. सीता की मानसिक दृढता के उदाहरण होने चाहिए, रजिया सुल्ताना एक आदर्श होनी चाहिए! कितने लोग अपने बच्चों को इतिहास की ऐसी स्त्रियों से प्रेरणा लेने के लिए कहते हैं, जिन्होनें विद्रोह किया, समाज में गलत को गलत कहने की हिम्मत की? नहीं, हम नहीं कहते! हमें हमेशा ही यह शिक्षा मिलती है कि फालतू में किसी से पंगा नहीं लेना, जो हो रहा है होने दो, तुम अपनी राह आगे बढ़ो! कौन सा तुम्हारे घर का मामला है!
मगर अब समय आ गया है जब यह कहना होगा कि यदि किसी लड़की के साथ गलत हो रहा है, तो वह हमारे ही घर का मामला है, हमारा ही मामला है! लड़कियों को बचपन से ही तैयार करना होगा कि किसी भी लड़की के साथ इस तरह गलत होते देखो, तो कम से कम चिली स्प्रे तो कर ही दो! नहीं तो सौ नंबर पर डायल करो, लड़कियों को और कुछ सिखाएं या नहीं पर आत्मरक्षा के लिए जूडो और कराटे तो जरूर ही सिखाए जाएं. सबसे बड़ी बात समाज को अब लड़कियों के साथ खड़ा होना होगा, उनमें यह भरोसा जगाना होगा कि यदि वे सड़क पर किसी लड़की के साथ हो रही दरिंदगी का सामना करती हैं, तो उसमें पूरा समाज और व्यवस्था उनके साथ होगी.
लड़कियों को यह आश्वासन चाहिए ही चाहिए, नहीं तो इस बात के लिए उन्हें ही कोसने से बहुत फायदा नहीं है कि अमुक के साथ यह हो रहा था, उस लड़की ने यह नहीं किया, उसने वह नहीं किया. समाज केवल लड़की पर ही हर असफलता का बोझ नहीं डाल सकता. हर सफल व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है, कहकर हमने पुरुष की असफलता का बोझ तो स्त्री के कन्धों पर डाल ही दिया है, अब समाज के पतन का बोझ भी हम स्त्री के कन्धों पर न डाल दें, यह ध्यान रखें!
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