क्या सनातनी जनता अन्य मजहबियों से नफ़रत करती है?
हां?
मैं अपना सवाल फिर दोहराता हूं. क्या सनातनी किसी अन्य मजहब के लोगों से नफ़रत करते हैं?
जवाब है नहीं!
सनातन में यूं तो नफ़रत जैसी किसी चीज़ का कांसेप्ट ही नहीं था. सनातन धर्म का अर्थ है – एटर्नल लॉ, वो धर्म जो आदि अंत से परे है. वो धर्म, वो लॉ जो अमर है. ये मनुष्य धर्म है. मनुष्य जो जानवरों का ही विकसित रूप है. पीक ऑफ एवोलुशन है. यह मनुष्य उस धर्म को मानता है जिसमें नाम की नहीं, काम की वैल्यू होती है. कर्म ही सबकुछ है. यह वह धर्म है जिसका पालन करने से मुक्ति मिलती है. यहां मुक्ति का दर्जा भगवान से भी ऊंचा है, सनातन धर्मी भगवान से ढेर सारी वर्जिन लड़कियां या कई लीटर वाइन नहीं, मोक्ष मांगता है. इस जन्म-मृत्यु के चक्र से पार लगने का मोक्ष. एटर्नल होने का मोक्ष.
ऐसे में किसी का नाम देखकर उससे नफ़रत की ही नहीं जा सकती. लेकिन अभी, हाल ही में सनातनियों ने नफ़रत या मैं लिखूं घृणा करनी भी सीख ली है. हां, सच में!
बीते 200-250 सालों में घृणा करनी तो ज़रूर सीखी है, पर किसी के मजहब से नहीं, बल्कि उससे जिसे थूक कर खाना देने में मज़ा आता है. उससे भी जो सफाई नहीं रखना चाहता, जो पूरे गली-मोहल्ले-शहर को कूड़ेदान समझने लगता है. और उससे जो नियम कानून को ताक पर रख सिर्फ अपने मन की, 1500 साल पहले की ज़िंदगी जीना चाहता है.उससे जिसका एक ही मकसद नज़र आता है कि जैसे-भी करके उसकी आबादी सबसे ज़्यादा हो, भले ही वो आबादी सड़कों पर नंगी घूमे या जेब काटे या किसी का गला रेते.
सनातनियों को उनसे भी नफ़रत होने लगी है जो बिना किसी शर्म के, किसी से असहमत होकर उसकी गर्दन उड़ा देने की सुपारी लगा दें. उनसे भी नफ़रत जो...
क्या सनातनी जनता अन्य मजहबियों से नफ़रत करती है?
हां?
मैं अपना सवाल फिर दोहराता हूं. क्या सनातनी किसी अन्य मजहब के लोगों से नफ़रत करते हैं?
जवाब है नहीं!
सनातन में यूं तो नफ़रत जैसी किसी चीज़ का कांसेप्ट ही नहीं था. सनातन धर्म का अर्थ है – एटर्नल लॉ, वो धर्म जो आदि अंत से परे है. वो धर्म, वो लॉ जो अमर है. ये मनुष्य धर्म है. मनुष्य जो जानवरों का ही विकसित रूप है. पीक ऑफ एवोलुशन है. यह मनुष्य उस धर्म को मानता है जिसमें नाम की नहीं, काम की वैल्यू होती है. कर्म ही सबकुछ है. यह वह धर्म है जिसका पालन करने से मुक्ति मिलती है. यहां मुक्ति का दर्जा भगवान से भी ऊंचा है, सनातन धर्मी भगवान से ढेर सारी वर्जिन लड़कियां या कई लीटर वाइन नहीं, मोक्ष मांगता है. इस जन्म-मृत्यु के चक्र से पार लगने का मोक्ष. एटर्नल होने का मोक्ष.
ऐसे में किसी का नाम देखकर उससे नफ़रत की ही नहीं जा सकती. लेकिन अभी, हाल ही में सनातनियों ने नफ़रत या मैं लिखूं घृणा करनी भी सीख ली है. हां, सच में!
बीते 200-250 सालों में घृणा करनी तो ज़रूर सीखी है, पर किसी के मजहब से नहीं, बल्कि उससे जिसे थूक कर खाना देने में मज़ा आता है. उससे भी जो सफाई नहीं रखना चाहता, जो पूरे गली-मोहल्ले-शहर को कूड़ेदान समझने लगता है. और उससे जो नियम कानून को ताक पर रख सिर्फ अपने मन की, 1500 साल पहले की ज़िंदगी जीना चाहता है.उससे जिसका एक ही मकसद नज़र आता है कि जैसे-भी करके उसकी आबादी सबसे ज़्यादा हो, भले ही वो आबादी सड़कों पर नंगी घूमे या जेब काटे या किसी का गला रेते.
सनातनियों को उनसे भी नफ़रत होने लगी है जो बिना किसी शर्म के, किसी से असहमत होकर उसकी गर्दन उड़ा देने की सुपारी लगा दें. उनसे भी नफ़रत जो सरेराह गर्दन काट भी दें और इस बात पर फख्र भी महसूस करें. हर उस शख्स से नफ़रत होने लगी है जो बहन-बहु और बीवी में फ़र्क नहीं समझता. नफ़रत है उससे भी जो अपने ही पड़ोसी को कटवाकर, उसके घर पर कब्ज़ा करके कहने लगता है कि ये ज़मीन हमारी है.
एक वो भी है जो महीनों मोटर साइकल घुमाकर, बहला-फुसलाकर, ब्याह जैसे पवित्र बंधन में किसी कन्या को सिर्फ इसलिए बांध लेता है कि कुछ लाख-डेढ़ लाख रुपियों मिलते हैं, और उससे होने वाली अगली पीढ़ी से अपना मजहब बढ़ता है. फिर वही जब उस विवाह बंधन को खत्म करने से पहले एक पल नहीं सोचता, जो प्रेम की मासूमियत के टुकड़े-टुकड़े कर सूटकेस में भरकर नदी में बहा देता है तो उससे घृणा होने लगती है.
और हां, उस पापी से भी नफ़रत है स्कूल के मासूम बच्चों को गोलियों से भून देता है या ट्रेन में बैठे यात्रियों को ज़िंदा जला देता है. नफ़रत तो उनसे भी होती है जिनकी वजह से हमारे देश के 19-20 साल के जवान अपनी जान न्योछावर कर देते हैं. अंत में, ज़रा बहुत नफ़रत, या नफ़रत नहीं निराशा, हां निराशा सही शब्द है; ज़रा बहुत निराशा तो उनसे भी होती है जो ऐसे कुकर्मियों को ‘भाईचारा’ बनाए रखने के लिए डिफेंड भी करते हैं.
बाकी किसी से नफ़रत नहीं होती. या ऐसे हर एक से होती है, फिर चाहें वो किसी धर्म का हो. नफ़रत नाम देखकर नहीं होती, पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो सकते हैं कुछ, पर सिर्फ इसलिए किसी से नफ़रत नहीं होती कि वो फलाने मजहब का है. जैसा मैंने पहले भी लिखा, हमारे यहां जन्म से ज़्यादा कर्म की वैल्यू है, जिनके कर्म किसी को दुख नहीं दे रहे हैं, उनसे सौहार्द ही सौहार्द है.
जिन देशों में जन्म और नाम ही सब कुछ है, वहां के हाल देखिए आप, अन्य धर्म के लोग या तो मार दिए जाते हैं या कन्वर्ट कर दिए जाते हैं. पर ये भारतवर्ष है, यहां अतिथि देवो भवः कहा जाता है. अतिथि अगर अपने घर को उजाड़कर, हमारे घर-खेत-खलिहान को देख लालायित हो यहीं बसना चाहे, तब भी हम, अनमने भाव से ही सही स्वागत ही करते हैं. बस तब अतिथि अतिथि न होकर घर का हो जाता है, कोई घर का होकर, जब घर को गंदा करे, तब उससे घृणा होनी लाज़मी हो जाती है.बादबाकी –
धर्म की जय हो
अधर्म का नाश हो
प्राणियों में सद्भावना हो
विश्व का कल्याण हो
हर हर महादेव!
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.