दिल्ली का शिव विहार इलाका. काफी देर मशक्कत के बाद गाड़ी कोने की तरफ लगवाई. चाय वाले से पूछा कि राहुल सोलंकी का घर इधर ही है? एक हाथ से उसकी छलनी चाय के पतीले में घूमती रही. दूसरे हाथ से इशारा किया कि गली में अंदर जाकर किसी से भी पूछ लीजिएगा, सब बता देंगे. गली संकरी थी. मैं और मेरे दो साथी पांव-पांव ही अंदर के लिए चल दिए. गली नम्बर 19 के पास कुछ बुजुर्ग बैठे थे. हुक्का सुलगाते. उनसे पूछा, राहुल सोलंकी का घर कहां है? उनके चेहरे पर भी सवाल था. वो नहीं जानते थे कि राहुल सोलंकी का घर कहां हैं. लेकिन वो ‘मुंशी जी बर्तन वाले’ को जानते थे. बोले, आगे जाकर खब्बी की तरफ मुड़ जाइएगा. कोने पर ही एक घर दिखेगा. आप देखते ही पहचान जाएंगे. हम कोने पर पहुंचे. लेकिन देखते ही पहचानने जैसा कुछ था नहीं. पुराना घर. रंग-रोगन हुए भी मानो अरसा हो गया हो. दरवाज़े पर संगल लगी हुई थी. खैर हमने सोचा दरवाज़ा खटकाते हैं और उन्हीं से पूछ लेते हैं. दरवाजे की खटखटाहट से एक बुज़ुर्ग महिला ने बाहर झांककर देखा. पीछे-पीछे एक वृद्ध व्यक्ति भी थे, बनियान और निक्कर पहने. उनके शरीर पर जगह-जगह सफेदी गिरी हुई थी. हमने पूछा, मुंशी जी का घर यही है. बाबा ने मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया, हां मैं ही हूं बताइए.
आगे का सवाल बेहद मुश्किल था. मैंने पूछा, बाबा पिछले साल यहां दंगे हुए थे. काफी नुकसान हुआ था. हमें बताया गया कि आपका तो ऐसा नुकसान हुआ, जिसकी भरपाई कभी हो ही नहीं सकती. बाबा ने सिर हिलाते हुए कहा, हां मेरे बेटे की मौत हो गई थी. ये कहते हुए बाबा की आंखें नम पड़ गईं. उनके साथ खड़ी महिला के चेहरे पर उत्सुकता का भाव था कि हम लोग कौन हैं और...
दिल्ली का शिव विहार इलाका. काफी देर मशक्कत के बाद गाड़ी कोने की तरफ लगवाई. चाय वाले से पूछा कि राहुल सोलंकी का घर इधर ही है? एक हाथ से उसकी छलनी चाय के पतीले में घूमती रही. दूसरे हाथ से इशारा किया कि गली में अंदर जाकर किसी से भी पूछ लीजिएगा, सब बता देंगे. गली संकरी थी. मैं और मेरे दो साथी पांव-पांव ही अंदर के लिए चल दिए. गली नम्बर 19 के पास कुछ बुजुर्ग बैठे थे. हुक्का सुलगाते. उनसे पूछा, राहुल सोलंकी का घर कहां है? उनके चेहरे पर भी सवाल था. वो नहीं जानते थे कि राहुल सोलंकी का घर कहां हैं. लेकिन वो ‘मुंशी जी बर्तन वाले’ को जानते थे. बोले, आगे जाकर खब्बी की तरफ मुड़ जाइएगा. कोने पर ही एक घर दिखेगा. आप देखते ही पहचान जाएंगे. हम कोने पर पहुंचे. लेकिन देखते ही पहचानने जैसा कुछ था नहीं. पुराना घर. रंग-रोगन हुए भी मानो अरसा हो गया हो. दरवाज़े पर संगल लगी हुई थी. खैर हमने सोचा दरवाज़ा खटकाते हैं और उन्हीं से पूछ लेते हैं. दरवाजे की खटखटाहट से एक बुज़ुर्ग महिला ने बाहर झांककर देखा. पीछे-पीछे एक वृद्ध व्यक्ति भी थे, बनियान और निक्कर पहने. उनके शरीर पर जगह-जगह सफेदी गिरी हुई थी. हमने पूछा, मुंशी जी का घर यही है. बाबा ने मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया, हां मैं ही हूं बताइए.
आगे का सवाल बेहद मुश्किल था. मैंने पूछा, बाबा पिछले साल यहां दंगे हुए थे. काफी नुकसान हुआ था. हमें बताया गया कि आपका तो ऐसा नुकसान हुआ, जिसकी भरपाई कभी हो ही नहीं सकती. बाबा ने सिर हिलाते हुए कहा, हां मेरे बेटे की मौत हो गई थी. ये कहते हुए बाबा की आंखें नम पड़ गईं. उनके साथ खड़ी महिला के चेहरे पर उत्सुकता का भाव था कि हम लोग कौन हैं और उनसे ये सब क्यों पूछ रहे हैं.
मैंने बताया कि मेरा नाम रजत है और मैं एक न्यूज़ चैनल से आया हूं, जो 2020 में हुए दिल्ली दंगों पर एक डॉक्यूमेंट्री बना रहा है. उसी सिलसिले में आपसे बात करना चाहता हूं. बाबा बोले, हां हम कर लेगें बात, आप कल सुबह 10 बजे आ जाइए. मेरे अंदर का फिल्ममेकर जो विज़ुअल्स की खोज में रहता है, वो कह रहा था कि शूट का असली वक्त तो अभी है. जब दिखेगा कि कैसे 74 साल के बुजुर्ग सीढ़ी पर चढ़कर कमरे की पुताई कर रहे हैं ताकि कमरा किराए पर दिया जा सके और कुछ आमदनी हो जाए.
74 साल की उनकी पत्नी उस सीढ़ी को पकड़े खड़ी हैं. लेकिन मेरे अंदर का इंसान इसे शूट करने के लिए हामी ना दे पाया. लगा कि किसी के दुख को बेचने जैसा होगा ये. हमने बाबा को नमस्ते की, और कहा कि कल हम आपके पास सुबह 10 बजे आ जाएंगे. अगले दिन 10 बजे मुंशी जी ने मुस्कुराहट के साथ हमें अंदर आने के लिए कहा. हाथ से बना सफेद स्वेटर पहना हुआ था.
उस सफेद रंग में इतनी शांति नहीं थी, जितनी बाबा के चेहरे पर. आंखों की पुतलियां तक एकदम स्टेबल. ऐसा लगा मानो उन्होंने हमें अपने घर के साथ साथ ज़ेहन में दाखिल होने की भी इज़ाज़त दे दी है. किसी तरह का कोई पर्दा नहीं. 8 बाई 8 फुट का कमरा था. बाबा कुर्सी उठाकर लाए. मां जी कुर्सी पर कपड़ा मारने लगीं. उनको इतना वेलकमिंग देख हमारा दिल पसीजता रहा.
लगा कि कैसे इस उम्र में वो इतना सब मैनेज कर रहे होंगे? एक महिला किचन में काम कर रही थीं. दो बच्चे कमरे में खेल रहे थे. बाबा बोले, तीन बेटे थे मेरे. मोनू सबसे छोटे वाला था. वही हमारी देख-रेख करता था. स्वभाव का अच्छा था तो हम इसी की साथ रुक गए. बाकि दोनों बेटे अपना अलग घर लेकर रहते हैं. सात साल हुए थे उसकी शादी को. दो बच्चे हैं. बड़े वाला 7 साल का, और छोटा डेढ़ साल का. 25 फरवरी 2020 को मोनू अपनी प्राइवेट नौकरी से घर पर लौटा था. कहने लगा कि चाय बना लो. बाबा बोले, दूध तो है नहीं.
मोनू बाहर दूध लेने के लिए निकला. लेकिन वापस उसकी मौत की ही खबर आई. दंगाइयों की गोली उसके सिर के आर-पार हो गई थी. बच्चे पूछते हैं कि पापा कहां हैं, कब आएंगे? मां बिना आंखें मिलाए हर बार कह देती है कि जब वो बूढ़े हो जाएंगे, तब आएंगे. ये कहते-कहते मां की आंखों के आंसू नहीं रुकते. लेकिन बच्चे इतने मासूम हैं कि कह देते हैं मोबाइल में गेम लगा दूं.
बाबा से कई सवाल किए मैंने. आखिर तक आते-आते मैं भी उस रुआंसे में कैद हो गया था. गला भर आया था. मन तो हुआ कि एक बार सबको गले लगा लूं. आर्थिक तंगी को देखते हुए ये भी लगा कि पर्स में जितने भी पैसे हैं, सब यहां रख दूं. लेकिन फिर लगा कि नहीं उनकी खुद्दारी को शायद ठेस पहुंचेगी. सोचने लगा कि क्या कर सकता हूं इनके लिए मैं. मैंने बाबा को अपना फोन नम्बर दिया. कहा कि मेरे लायक कभी कोई सेवा हो तो ज़रूर बताइएगा.
बाबा ने पूछा कि मैं कहां का रहने वाला हूं. मैंने बताया, चंडीगढ़ से हूं. बाबा बोले, 'अरे हमारी बहू भी तो वहीं से है'. पिछले दो घंटों में यही वो इकलौता लम्हा था, जब भाभी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी. वो चंद पल उन्हें मायके के सुख की याद दिला गए होंगे. लेकिन जीवन मायके से कहीं आगे बढ़ चुका था. अब मोनू के पैरेंट्स, सास ससुर नहीं माता पिता हो गए हैं. आंसू पोंछते हुए भाभी कहती हैं, 'भइया ये दंगे ना होने नहीं चाहिए… सारे मुसलमान बुरे नहीं होते, सारे हिंदू अच्छे नहीं होते'.
मुस्तफाबाद के अश्फाक हुसैन का निकाह 14 फरवरी 2020 को हुआ. गांव से बारात वापिस आई 21 फरवरी को. 22 साल के अश्फाक बिजली का काम करते थे. वापसी के बाद इर्द-गिर्द के लोगों के फोन आने लगे कि मियां अब तो निकाह भी हो गया. बिजली का काम काफी दिनों से पेंडिंग है, कर जाओ. 25 तारीख को अश्फाक ने अब्बू को बताया कि फलाने-फलाने मोहल्ले में काम करने जा रहा हूं. इसके बाद अश्फाक कभी कुछ ना बता सका क्योंकि कुछ दंगाइयों ने तेज़दार हत्यारों से नाले के पास उसकी हत्या कर दी.
अश्फाक का शाब्दिक अर्थ दया होता है. शादी के 11 दिन बाद घर में आई नई नवेली दुल्हन के हाथों में सजी मेहंदी को देख सभी उसे दया भाव से ही देख रहे थे. पिता सब्ज़ियां बेचने का काम करते थे, आस-पड़ोस में प्यार इतना कि मुसलमान से भी ज़्यादा हिंदू परिवार दुख में सहारा देने पहुंचे. पिता ने भी क्या नज़ीर पेश की कि जवान बेटे की मौत के अगले दिन ही पास के मंदिर की रखवाली करने पहुंच गए. बोले कि मेरा नुकसान तो हो गया, आस-पड़ोस में किसी और का ना हो जाए.
ऊपर दिए गए उदाहरण में एक हिंदू परिवार है, एक मुसलमान. ये बैलेंस करने की कोशिश नहीं है बल्कि ये दर्शाना मकसद है कि दुख हर जीव का एक सा ही होता है. मुसलमान का कम या हिंदू का ज़्यादा नहीं होता है या वाइसे वर्सा. इंसान की पहचान उसके कर्म से करिए, संवेदनाएं उसकी इंसानियत से जोड़िए.ऐसी अनकों कहनियां हैं. कम से कम 53 तो हैं ही, जो दंगाइयों के जाल में फंसकर अपनी जान गंवा बैठे.
हमारे लिए ये महज़ एक प्रोजक्ट नहीं था. हम इस डॉक्यूमेंट्री को एक अपॉर्चुनिटी की तरह देख रहे थे. अपॉर्चुनिटी समाज को आइना दिखाने की. उन्हें बताने की कि जो मर गए हैं, उन्हें महज़ हिंदू या मुसलमान कहकर खुद से किनारा या दूर नहीं किया जा सकता है. जो भी व्यक्ति मरा है वो किसी का बाप था, किसी का बेटा था, किसी का भाई था. वो आप भी हो सकते थे, मैं भी. आंकड़ों में फंसकर ये मत सोचिएगा कि आपकी कम्यूनिटी तो सेफ है. आपके साथ ऐसा कुछ नहीं हो सकता.
दंगाइयों की ना कोई जात होती है, ना कोई धर्म. सिर्फ हैवानियत होती है जो उस वक्त सिर पर सवार होती है. जीवन जीने का एक बेसिक पैरामीटर इंसानियत ही हो सकती है, जो ऐसे चंद मौकों पर कई इंसानों में लुप्त हो जाती है. आप चाहें तो अपने सिर से बला टालने के लिए पार्टियों और नेताओं को भी जिम्मेवार ठहरा सकते हैं. लेकिन जब तक ऐसे हादसों से सबक लेकर खुद से सवाल नहीं करेंगे, तब तक ये दंगे समय-समय पर दोहराए जाएंगे. इस डॉक्यूमेंट्री की कोशिश और मंशा खुद से सवाल करने की ही थी.
अब बात करते हैं डॉक्यूमेंट्री बनाने के प्रोसस की. इसे बनाया है मैंने (रजत सैन) और मेरे काबिल साथी रूहानी ने. इसमें एक अहम भूमिका तरुण महेंद्रू की भी थी, जिन्होंने कॉर्डिनेशन से लेकर ग्राफिक्स का काम सम्भाला. इसे शूट करने से पहले करीब हफ्ते भर की डेडिकेटेड रिसर्च की गई. इस प्रोजेक्ट को शुरू करने में पहले ही काफी देरी हो चुकी थी. फिर शूट शुरू हुआ तो एक समुदाय विशेष के लोग कैमरे पर आकर बात नहीं करना चाहते थे, या कहें कि चाहते तो थे लेकिन डर था. लेकिन हम लगातार उनके संपर्क में रहे और उन्हें आश्वस्त किया कि आप जैसा बोलेंगे, वैसा ही दिखाया जाएगा. कुछ छेड़छाड़ नहीं होगी.
बीते एक-डेढ़ वर्ष में मीडिया में जिस प्रकार से धड़े बंटे हैं, वो ज़मीनी स्तर पर बखूबी नज़र आते हैं. खैर काफी कोशिशों के बाद हम जो-जो शूट करना चाह रहे थे, वो हमने 7 दिन में खत्म कर लिया. बीजेपी के नेता कपिल मिश्रा और पुलिस कमिश्नर से भी बात करनी चाही, लेकिन कुछ कारणवश ऐसा हो ना सका.
अब प्रोडक्शन या इस डॉक्यूमेंट्री प्रोसेस की कहनी आकर अटकती है एडिटिंग पर. एडिटिंग किसी एवरेज शूट को भी बुलंदियों पर पहुंचा सकती है, और बढ़िया शूट को ज़मीन पर. हमारी कोशिश और एस्टीमेट ये था कि हम इस डॉक्यूमेंट्री को 35 मिनट तक की बनाएंगे. रूहानी और मैंने बराबर-बराबर एडिट बांटा, और एडिट शुरू किया 20 फरवरी को. कोशिश थी कि इसका एडिट 23 फरवरी की सुबह तक खत्म करके शाम तक डॉक्यूमेंट्री रिलीज़ कर दी जाए. एडिट करते करते समझ आया कि इसका काम और इसकी रेंज हमारी उम्मीद से काफी आगे निकल चुका है.
करीब 600 GB का डाटा था. और 10घंटे की फुटेज. हमारी एडिटिंग मशीन मछ्ली की आंख हो गई और हम अर्जुन. करते-करते पता लग गया कि ये डॉक्यूमेंट्री एक घंटे से कम की तो नहीं बनेगी. रिलीज़िंग डेट एक दिन बढ़ाकर 24 फरवरी की कर दी गई. कुल चार दिनों में हमने तीन रातें बिना सोए गुज़ारीं. दिन-रात लगातार एडिट किया. कम्फर्ट ज़ोन मीलों पीछे छूट चुका था. जीवन में कभी ब्लैक कॉफी नहीं पी थी. उन दिनों नींद खोलने के लिए वो कड़वा घूंट भी पी लिया.
जब इस डॉक्यूमेंट्री का आइडिया दिमाग में आया था, तभी से राजेश जोशी जी की कविता ‘मारे जाएंगे’ ज़ेहन में दस्तक दे चुकी थी. देवेंद्र अहिरवार पुराने दोस्त हैं, जो मंडी हाउस बैंड के कर्ता धर्ता भी हैं. उन्होंने इस कविता को गीत की शक्ल दी. लगा कि वीडियों की क्लोज़िंग इससे अच्छी हो ही नहीं सकती. चार दिन (और रात भी) एडिट चलता था. म्यूज़िक से लेकर हर एक फ्रेम तक, दिमाग में इस कद्र दर्ज़ हुए कि उन दिनों जब एक-दो घंटे की नींद लेते भी थे, तो सपने वही आते थे.
बुधवार यानि 24फरवरी की शाम डॉक्यूमेंट्री रिलीज़ हुई. लगा कि अब अपना प्रोजेक्ट हमारी चौखट से बाहर निकलकर दुनिया तक पहुंच गया है. ये अपनी हदें अब खुद ही तय करेगा. हिंदू-मुस्लिम वाले चश्मे लगाए तो कुछ लोग तैयार रहते ही हैं लेकिन संतुष्टि इस बात की है कि हम जो मैसेज लोगों तक पहुंचाना चाह रहे थे, उसमें हम कामयाब रहे. ऐसे सब्जेक्ट पर काम करते हुए आपको इस बात की तसल्ली होती है कि आप किसी प्रकार से तो समाज में कॉन्ट्रीब्यूट कर पा रहे हैं.
अब जब डॉक्यूमेंट्री रिलीज़ हुए कुछ दिन हुए और इस प्रोजेक्ट में लगी मेहनत और बिना नींद के बिताई रातें याद करता हूं तो खुद को उन तमाम परिवारों (जिनका जान-माल का नुकसान हुआ) के बारे में सोचता हूं. वो कहते हैं कि इतनी मेहनत से सब बनाया था, हम तो 20 साल पीछे चले गए. इस वाक्य की ग्रेविटी को समझिए. आपको आपके दुख बौने महसूस होने लगेंगे.
(डॉक्यूमेंट्री के बारे मेें आप अपनी राय देते हुए ट्विटर पर @SainRajat जरूर टैग करें)
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