पति और पत्नी के रिश्ते में क्या अहम होता है? प्यार, आपसी सूझ-बूझ, बच्चे, परिवार, नोक-झोंक, टकरार और थोड़ी सी मार. जी हां, मार यानी पिटाई जो भरत में हर 10 में से 6 पति अपनी पत्नियों की करते हैं. ये वो देश है जहां नवरात्री पर दुर्गा मां की पूजा की जाती है और घर की लक्ष्मी की पिटाई भी.
भारत में घरेलू हिंसा जितनी विकराल है उतने ही सरल उसके मायने हैं. भारतीय घरेलू हिंसा यानी पति-पत्नी का प्यार ... क्योंकि हमारे समाज में उसे हिंसा थोड़ी कहा जा सकता है वो तो पति और पत्नी का हक है. अधिकतर भारतीय महिलाओं को ये पता ही नहीं होता कि उनके साथ गलत क्या हो रहा है.
आम नहीं है भारत की घरेलू हिंसा...
भारत में 2005 में घरेलू हिंसा से महिलओं का संरक्षण अधिनियम (Protection of Women from Domestic Violence Act (PWDVA)) बनाया गया था. अभी ये कानून ज्यादा बड़ा नहीं हुआ है.
2015 तक के आंकड़ों को देखें तो 10 सालों में इस एक्ट के जरिए सिर्फ 10 लाख केस ही दर्ज किए गए. इसमें पति की क्रूरता, दहेज प्रताड़ना आदि मामले शामिल हैं. NCRB के आंकड़ों के मुताबिक 88467 महिलाएं यानि हर दिन 22 दहेज से जुड़े मामलों का शिकार होकर मारी गईं. इन सभी आंकड़ों में रोज़ाना पति की मार खाने वाली कई महिलाओं का नाम है ही नहीं.
पर क्या आप सोच सकते हैं कि मामला कितना गंभीर है? नवंबर 2014 में हुए IndiaSpend के सर्वे के मुताबिक 10 में से 6 मर्द ये मानते हैं कि उन्होंने घर पर पत्नी के साथ हिंसा की है.
चलिए कुछ नए आंकड़े देखते हैं. 2018 की बात करते हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा रिलीज किया गया National Family Health Survey (NHFS-4) का डेटा कहता है कि हर तीसरी महिला ये मानती है कि 15 साल की उम्र के बाद उसने किसी न किसी तरह की घरेलू हिंसा झेली...
पति और पत्नी के रिश्ते में क्या अहम होता है? प्यार, आपसी सूझ-बूझ, बच्चे, परिवार, नोक-झोंक, टकरार और थोड़ी सी मार. जी हां, मार यानी पिटाई जो भरत में हर 10 में से 6 पति अपनी पत्नियों की करते हैं. ये वो देश है जहां नवरात्री पर दुर्गा मां की पूजा की जाती है और घर की लक्ष्मी की पिटाई भी.
भारत में घरेलू हिंसा जितनी विकराल है उतने ही सरल उसके मायने हैं. भारतीय घरेलू हिंसा यानी पति-पत्नी का प्यार ... क्योंकि हमारे समाज में उसे हिंसा थोड़ी कहा जा सकता है वो तो पति और पत्नी का हक है. अधिकतर भारतीय महिलाओं को ये पता ही नहीं होता कि उनके साथ गलत क्या हो रहा है.
आम नहीं है भारत की घरेलू हिंसा...
भारत में 2005 में घरेलू हिंसा से महिलओं का संरक्षण अधिनियम (Protection of Women from Domestic Violence Act (PWDVA)) बनाया गया था. अभी ये कानून ज्यादा बड़ा नहीं हुआ है.
2015 तक के आंकड़ों को देखें तो 10 सालों में इस एक्ट के जरिए सिर्फ 10 लाख केस ही दर्ज किए गए. इसमें पति की क्रूरता, दहेज प्रताड़ना आदि मामले शामिल हैं. NCRB के आंकड़ों के मुताबिक 88467 महिलाएं यानि हर दिन 22 दहेज से जुड़े मामलों का शिकार होकर मारी गईं. इन सभी आंकड़ों में रोज़ाना पति की मार खाने वाली कई महिलाओं का नाम है ही नहीं.
पर क्या आप सोच सकते हैं कि मामला कितना गंभीर है? नवंबर 2014 में हुए IndiaSpend के सर्वे के मुताबिक 10 में से 6 मर्द ये मानते हैं कि उन्होंने घर पर पत्नी के साथ हिंसा की है.
चलिए कुछ नए आंकड़े देखते हैं. 2018 की बात करते हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा रिलीज किया गया National Family Health Survey (NHFS-4) का डेटा कहता है कि हर तीसरी महिला ये मानती है कि 15 साल की उम्र के बाद उसने किसी न किसी तरह की घरेलू हिंसा झेली है.
अमेरिका की घरेलू हिंसा...
अब बात करते हैं उस देश की जहां शादियों के टूटने का आंकड़ा भारत से काफी ज्यादा है. National Coalition Against Domestic Violence की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में हर 9 सेकंड में एक महिला को पीटा जा रहा है या फिर उसका शोषण हो रहा है. अमेरिका में भी भारत की ही तरह हर तीसरी महिला ने किसी न किसी तरह का शारीरिक शोषण या पिटाई झेली है अपने पार्टनर से. इनमें से हर पांचवी महिला के साथ हुआ शोषण काफी गंभीर होता है.
अमेरिका की डोमेस्टिक वॉयलेंस हॉटलाइन हर दिन लगभग 28000 कॉल रिसीव करती है.
तलाक की दर...
अगर भारत और अमेरिका की तलाक दर को देखें तो भारत में औसतन 100 में से 5 शादियों में तलाक होता है और यही दर अमेरिका में 100 में से 46 शादियों की है. अब खुद ही सोचिए घरेलू हिंसा दोनों देशों में एक जैसी है. दोनों ही देशों में हर तीसरी महिला किसी न किसी तरह की घरेलू हिंसा का शिकार होती है और इसके बाद भी भारत में महिलाएं इसके खिलाफ कोई कदम नहीं उठातीं, ये अपना नसीब समझती हैं.
भारत की बद्तर हालत...
चलिए दो मिनट के लिए अमेरिका को भूल जाते हैं और सिर्फ भारत की बात करते हैं. 31 प्रतिशत शादीशुदा महिलाएं अपने पतियों से पिटती हैं यानी औसत हर 3 में से 1 महिला. इसके अलावा, कई महिलाएं सिर्फ शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक शोषण की भी शिकायत करती हैं. आम तौर पर 13% महिलाओं का ये कहना है कि मानसिक शोषण उन्हें बहुत परेशान करता है. ये आंकड़े नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2018 के ही हैं.
15 साल की उम्र से लेकर लगातार शोषण सहती आ रही शादीशुदा महिलाओं में से 83% का कहना है कि उनके साथ हिंसा उनका पति ही करता है. इस सर्वे का सबसे चौंकाने वाला हिस्सा ये है कि इनमें से 8% महिलाओं की चोट दिखती हैं. किसी की आंख में चोट होती है, किसी को मार का निशान पड़ा होता है, किसी को जलाया गया होता है. इसमें से 6% को गहरी चोट या घाव आए होते हैं जिसमें चाकू से काटना, हड्डियां टूटना, दांत टूटना, जलाना आदि शामिल हैं.
अब सबसे अहम बात...
भारत में शोषण सहने वाली महिलाओं में से सिर्फ 14% ही इस शोषण को खत्म करने के बारे में सोचती हैं या कोई न कोई कदम उठाती हैं. भारतीय महिलाएं ऐसी शादियों में कई कारणों से बंधी रहती हैं, बच्चे, पैसों की कमी, घर का सपोर्ट न मिलना, अपने कानूनी हक की जानकारी न होना, डर वगैराह-वगैराह. मैंने भी बचपन से लेकर अभी तक एक कहावत बहुत बार सुनी है कि जहां डोली उठी है वहीं से अर्थी उठती है.
मैं कहती हूं बहुत ही बकवास है ये बात कि जहां डोली उठकर गई है वहां से सिर्फ अर्थी उठेगी. अरे इससे पहले की अर्थी उठे क्यों न महिलाएं ही उठ जाएं. खुद को कमजोर समझने वाली किचन, बच्चों और घर संसार में बसने वाली महिलाओं के मुंह से अक्सर ये कहते सुना होगा कि, "मैं तो घर छोड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकती. मैं तो अपने पति और बच्चों को अकेले छोड़कर कुछ दिन के लिए मायके भी नहीं जा सकती. मैंने तो ऐसा सपने में भी नहीं सोचा..." अगर कभी नहीं सोचा है तो क्यों वो सोच नहीं सकती? भले ही परिवार नहीं मान रहा, लेकिन क्या वो अपनी जिंदगी के लिए भी बगावत नहीं कर सकती.
कुछ लोगों को लगेगा कि मैं यहां पर महिलाओं को भड़का रही हूं. जी नहीं, न ही मैं उन्हें भड़काना चाहती हूं, न ही खुशहाल जिंदगी बर्बाद करना चाहती हूं. मैं बस इतना चाहती हूं कि हर महिला अपनी जिंदगी के बारे में सोचे. ऐसा नहीं है कि शोषण की शिकार हर महिला तलाक ले ले या फिर अमेरिका के पदचिन्हों पर चलने लगे, लेकिन अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए कुछ न कुछ जरूर करे. चाहें वो घर परिवार से बात हो, पति के साथ बैठकर हल निकालना हो, या खुद कमाने और आत्मनिर्भर बनने की पहल हो. या फिर कानूनी मदद लेनी हो. सिर्फ चुप रहकर अर्थी उठने का इंतजार कर रही महिलाओं को ये कदम खुद के लिए तो उठाने ही होंगे.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.