1990 के दशक की शुरुआत में, जब मैं हेल्थ राइटर हुआ करता था, तो देश के प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समर्थकों में से एक डॉक्टर के श्रीनाथ रेड्डी, "जीवनशैली रोगों" के प्रति लोगों की अनभिज्ञता को लेकर चिंतित रहते थे. खासकर लोगों के आहार से संबंधित रोग. वो कार्डियोवैस्कुलर रोगों को कम करने के डेनिश मॉडल को अपनाने की बात कहते थे. जिसके तहत् खानों की लेबलिंग शुरू करने, जनसंख्या स्तर पर नमक का सेवन करने और स्कूलों में सुरक्षित और पौष्टिक भोजन शुरू करने की पहल करना था.
उन दिनों में नीतिगत चर्चाएं मलेरिया से लेकर नई "महामारी" एड्स, जैसी संक्रामक बीमारियों तक से ही प्रभावित थीं. और तब डॉ रेड्डी और प्रसिद्ध न्यूट्रीशनिस्ट डॉ वुलीमिरी रामलिंगस्वामी जैसे कुछ लोगों को छोड़कर किसी ने भी नए खाद्य पदार्थों के संभावित खतरों की परवाह नहीं की. न्यू डाईट को आज की फास्ट फूड बहुराष्ट्रीय कंपनियां द्वारा एचएफएसएस या फिर हाई फैट, सॉल्ट और शुगर के तौर पर जाना जाता है.
पिछले 25 वर्षों में, डॉ रेड्डी, नवदान्या की संस्थापक डॉ वंदना शिवा और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की महानिदेशक, डॉ सुनीता नारायण की जो आवाजें अकेले अकेले थी अब एक साथ मिलकर परिवर्तन के लिए अब आवाज बुलंद कर रहे हैं. जागरुक भारतीयों ने फास्ट फूड, जंक फूड, मीठा कोला, नाश्ते वाले अनाज, रसायनिक तौर पर बनाए गए "लो फैट" फूड और खतरनाक केमिकल्स और उर्वरकों के खिलाफ बहस में हिस्सेदारी निभा रहे हैं.
कई कारणों से ये निश्चित है कि अंततः राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के बहस के केंद्र में खाना अपना स्थान पायेगा. और यह सिर्फ डॉक्टरों, पोषण विशेषज्ञों और डायटिशियन की ही चिंता नहीं रह जाएगी. खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने ड्राफ्ट खाद्य सुरक्षा और मानकों (प्रदर्शन और लेबलिंग) विनियमों का एक नया सेट जारी किया...
1990 के दशक की शुरुआत में, जब मैं हेल्थ राइटर हुआ करता था, तो देश के प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समर्थकों में से एक डॉक्टर के श्रीनाथ रेड्डी, "जीवनशैली रोगों" के प्रति लोगों की अनभिज्ञता को लेकर चिंतित रहते थे. खासकर लोगों के आहार से संबंधित रोग. वो कार्डियोवैस्कुलर रोगों को कम करने के डेनिश मॉडल को अपनाने की बात कहते थे. जिसके तहत् खानों की लेबलिंग शुरू करने, जनसंख्या स्तर पर नमक का सेवन करने और स्कूलों में सुरक्षित और पौष्टिक भोजन शुरू करने की पहल करना था.
उन दिनों में नीतिगत चर्चाएं मलेरिया से लेकर नई "महामारी" एड्स, जैसी संक्रामक बीमारियों तक से ही प्रभावित थीं. और तब डॉ रेड्डी और प्रसिद्ध न्यूट्रीशनिस्ट डॉ वुलीमिरी रामलिंगस्वामी जैसे कुछ लोगों को छोड़कर किसी ने भी नए खाद्य पदार्थों के संभावित खतरों की परवाह नहीं की. न्यू डाईट को आज की फास्ट फूड बहुराष्ट्रीय कंपनियां द्वारा एचएफएसएस या फिर हाई फैट, सॉल्ट और शुगर के तौर पर जाना जाता है.
पिछले 25 वर्षों में, डॉ रेड्डी, नवदान्या की संस्थापक डॉ वंदना शिवा और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की महानिदेशक, डॉ सुनीता नारायण की जो आवाजें अकेले अकेले थी अब एक साथ मिलकर परिवर्तन के लिए अब आवाज बुलंद कर रहे हैं. जागरुक भारतीयों ने फास्ट फूड, जंक फूड, मीठा कोला, नाश्ते वाले अनाज, रसायनिक तौर पर बनाए गए "लो फैट" फूड और खतरनाक केमिकल्स और उर्वरकों के खिलाफ बहस में हिस्सेदारी निभा रहे हैं.
कई कारणों से ये निश्चित है कि अंततः राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के बहस के केंद्र में खाना अपना स्थान पायेगा. और यह सिर्फ डॉक्टरों, पोषण विशेषज्ञों और डायटिशियन की ही चिंता नहीं रह जाएगी. खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने ड्राफ्ट खाद्य सुरक्षा और मानकों (प्रदर्शन और लेबलिंग) विनियमों का एक नया सेट जारी किया है. इन विनियमों ने पहले से ही चीनी और उत्पाद में डाली गई चीनी को उत्पाद के लेबल पर दर्शाने, जंक फूड के डिलीवरी बॉक्स पर पोषण लेबल लिखे जाने और फिल्म और खेल हस्तियों को कोला को बढ़ावा देने से दूर रहने के लिए बहस शुरु हो चुकी है.
खाद्य नियामक 10 जुलाई से देश भर में "सही खाएं" की अपनी पहल को हरी झंडी दिखाने वाला है. इसके साथ ही ऑर्गेनिक खाद्य पदार्थों के लिए खाद्य नियामक नए, यथार्थवादी, मानकों को लाने की तैयारी में है.
आंदोलन की प्रमुख बात ये है कि पहली बार इसमें पवित्र स्थानों और भारतीय रेलवे के भोजन पर भी लागू किया जाएगा. 2022 तक भारत को "ट्रांसफैट", फास्ट फूड में मौजूद असली धमनी अवरोधक जैसे मार्ग्रेरिन और वनस्पति तेलों के संकट से मुक्त करने के राष्ट्रीय लक्ष्य का कार्यान्वयन होगा.
भारत जैसे देश को "सही खाएं" के लिए तैयार करना आसान नहीं है. किसी भी नियामक तंत्र को ऐसे देश में कामयाब नहीं किया जा सकता जहां के बड़े खाद्य ऑपरेटर फायदा कमाने के लिए इस्तेमाल किए हुए तेलों को छोटे रेस्तरां और सड़क विक्रेताओं को बेचते हैं! जब तक हम सब "सही खाएं" को सिर्फ एक स्लोगन की तरह न देखकर, राष्ट्रीय कार्रवाई की तरह देखेंगे तब तक हम सभी लाइफस्टाइल की बीमारियों में घिरे रहेंगे.
(MailToday से साभार)
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