9 जनवरी, होने को तो एक बेहद आम सी तारीख है. मगर जो चीज इसे यादगार बनाती है, वो है आज से ठीक 192 साल पहले इस दिन पुणे के एक परिवार में भारतीय शिक्षिका और समाज सुधारक फातिमा शेख का जन्म लेना. फातिमा, ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले की सहयोगी थीं. जिन्होंने बिना धर्म जाति देखे शिक्षा, विशेषकर स्त्री शिक्षा के लिए वो किया, जो आज देश दुनिया के किसी भी शिक्षाविद के लिए मील के पत्थर से कम नहीं है.शिक्षा के क्षेत्र में जो योगदान फातिमा शेख और सावित्रीबाई फुले जैसी शख्सियतों ने दिया, उसे किसी तरह के शब्दों में नहीं बांधा जा सकता. मगर जिस तरह उनके योगदान को नकारते हुए उन्हें हिंदू और मुस्लिम के तराजू में तौला जा रहा है वो स्वतः इस बात की पुष्टि कर देता है कि हम बिना हिंदू मुस्लिम के रंग में रंगे किसी चीज को देख ही नहीं पाते.
दरअसल हुआ कुछ यूं है कि जन्मदिन के दिन फातिमा शेख को मुस्लिम सांचे में डालने की होड़ लगी है. उन्हें 'मुस्लिम शिक्षाविद' बताया जा रहा है. कहा तो यहां तक जा रहा है कि उन्हें और उनके योगदानों को साइडलाइन कर दिया गया है. यदि आज एक समाज के रूप में हम फातिमा शेख और उनकी उपलब्धियों पर बात नहीं कर रहे हैं तो ये देश का दुर्भाग्य है लेकिन जिस तरह सिर्फ नाम को आधार बनाकर उन्हें धार्मिक पहचान दी जा रही है निंदा उसकी भी होनी ही चाहिए.
चाहे वो फातिमा शेख हों या सावित्रीबाई फुले आइये जानें कि इन दोनों ही महिलाओं ने आखिर ऐसा क्या किया जिसके बाद इनके व्यक्तित्व के आगे हमें जाति-धर्म की बहस बहुत...
9 जनवरी, होने को तो एक बेहद आम सी तारीख है. मगर जो चीज इसे यादगार बनाती है, वो है आज से ठीक 192 साल पहले इस दिन पुणे के एक परिवार में भारतीय शिक्षिका और समाज सुधारक फातिमा शेख का जन्म लेना. फातिमा, ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले की सहयोगी थीं. जिन्होंने बिना धर्म जाति देखे शिक्षा, विशेषकर स्त्री शिक्षा के लिए वो किया, जो आज देश दुनिया के किसी भी शिक्षाविद के लिए मील के पत्थर से कम नहीं है.शिक्षा के क्षेत्र में जो योगदान फातिमा शेख और सावित्रीबाई फुले जैसी शख्सियतों ने दिया, उसे किसी तरह के शब्दों में नहीं बांधा जा सकता. मगर जिस तरह उनके योगदान को नकारते हुए उन्हें हिंदू और मुस्लिम के तराजू में तौला जा रहा है वो स्वतः इस बात की पुष्टि कर देता है कि हम बिना हिंदू मुस्लिम के रंग में रंगे किसी चीज को देख ही नहीं पाते.
दरअसल हुआ कुछ यूं है कि जन्मदिन के दिन फातिमा शेख को मुस्लिम सांचे में डालने की होड़ लगी है. उन्हें 'मुस्लिम शिक्षाविद' बताया जा रहा है. कहा तो यहां तक जा रहा है कि उन्हें और उनके योगदानों को साइडलाइन कर दिया गया है. यदि आज एक समाज के रूप में हम फातिमा शेख और उनकी उपलब्धियों पर बात नहीं कर रहे हैं तो ये देश का दुर्भाग्य है लेकिन जिस तरह सिर्फ नाम को आधार बनाकर उन्हें धार्मिक पहचान दी जा रही है निंदा उसकी भी होनी ही चाहिए.
चाहे वो फातिमा शेख हों या सावित्रीबाई फुले आइये जानें कि इन दोनों ही महिलाओं ने आखिर ऐसा क्या किया जिसके बाद इनके व्यक्तित्व के आगे हमें जाति-धर्म की बहस बहुत छोटी लगेगी.
धर्म-जाति पर फोकस होता तो ईसाई मिशनरी महिला से पढ़ाना न सीखतीं
जैसा कि हम ऊपर ही इस बात को जाहिर कर चुके हैं, फातिमा शेख को मुस्लिम शिक्षाविद बताया जा रहा है. तो वहीं जब जिक्र सावित्रीबाई फुले का हो रहा है, तो उन्हें दलित विचारक और शिक्षाविद की तरह दर्शाया जा रहा है. जो कि सरासर गलत है. आखिर हमें इस बात को समझने में या ये कहें कि हजम करने में इतनी दिक्कत क्यों हो रही है कि इन दो महिलाओं ने जो किया वो शिक्षा के लिए किया.उसके प्रचार और प्रसार के लिए किया. धर्म- जाति की बेड़ियों को काटकर किया.
वो तमाम लोग जो एक खास किस्म का चश्मा अपनी आंखों पर लगाए हुए हैं और इन दो महान स्त्रियों की उपलब्धियों को धार्मिक पहचान दे रहे हैं याद रखें इन दोनों का ही उद्देश्य महिलाओं और लड़कियों में शिक्षा का संचार करना था. चाहे वो फातिमा शेख हों या फिर सावित्रीबाई फुलेयदि इनका फोकस हिंदू मुस्लिम धर्म या अगड़ी और पिछड़ी जाति या दलित होता तो ये कभी भी उस ईसाई मिशनरी महिला सिंथिया फरार के पास न जाती.
ध्यान रहे फातिमा और सावित्रीबाई ने पहले खुद ईसाई महिला से शिक्षा ली फिर जब इन्होने पढ़ना सीख लिया तो उस ज्ञान को बिना किसी भेद भाव के अन्य लड़कियों और महिलाओं में फैलाया. इन दोनों ही महिलाओं का जीवन इसलिए भी प्रेरणा है क्योंकि एकता और अखंडता का असली पाठ हमें इन्हीं दो महिलाओं ने पढ़ाया है.
धर्म कोई भी हो, महिला शिक्षा के साथ होता है अछूतों वाला भेदभाव
चूंकि बार बार सावित्रीबाई को दलित विचारक और शिक्षाविद और फातिमा शेख पर देश की पहली महिला शिक्षाविद होने का लेबल चस्पा किया जा रहा है तो हम इतना जरूर कहेंगे कि धर्म चाहे वो हिंदू हो या मुस्लिम जब जब बात शिक्षा की आएगी तो वहां उस धर्म से जुड़े मठाधीशों ने उस धर्म से जुडी महिलाओं के साथ अछूतों वाला व्यव्हार किया है. हो सकता है ये बातें अतिश्योक्ति लगें लेकिन ऐसा नहीं है.
जब हम शिक्षा से जुड़े आंकड़े उठा कर देखते हैं तो चाहे वो हिंदू धर्म हो या फिर मुस्लिम धर्म 40 प्रतिशत के करीब ही महिलाएं ऐसी हैं जो लिख पढ़ सकती हैं. धर्म चाहे कोई भी हो लोगों की एक बड़ी आबादी आज भी ऐसी है जो महिलाओं को आज भी शिक्षा से वंचित रखे हुए हैं और इसकी एक बड़ी वजह बस इतनी है कि यदि महिलाएं लिख पढ़ गयीं तो वो अपनी समझ का इस्तेमाल करते हुए उन कुरीतियों और आडंबरों का विरोध करेंगी जो उन्हें अपने धर्म के अंतर्गत दिखाई दे रही है.
पाप है फातिमा और फुले को धर्म और जाति के चश्मे से देखना
वाक़ई ये अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपने एजेंडे या ये कहें कि सुविधा और सुचिता का इस्तेमाल करते हुए एक समाज के रूप में हमने फातिमा और फुले को धर्म में बांट दिया. उन्हें जाति का चश्मा लगाकर देखने की शुरुआत कर दी. हम फिर इसी बात को दोहराना चाहेंगे कि आज से कई बरस पहले स्त्री और महिला शिक्षा के लिए जो कुछ भी फातिमा शेख या सावित्री बाई ने किया वो कहीं से भी कोई छोटी बात नहीं है.
खुद सोचिये जब आज के समय में महिलाओं की शिक्षा के लिए इतने जातां करने पड़ते हैं. उस समय स्थिति क्या होगी? दुश्वारियां तब और हुई होंगी जब समय के निचले तबके से निकालकर इन लोगों ने लड़कियों और महिलाओं को पढ़ाने की कल्पना की होगी. कह सकते हैं कि धर्म की बात उठाकर पाप करने से बेहतर है कि हमइनके उस साहस को, उस जज्बे को सलाम करें जिसकी बदौलत इन दोनों ही महिलाओं ने वो किया जो आज भी बड़े बड़े शिक्षाविद के लिए असंभव है.
पहले और शेख दोनों का मकसद स्पष्ट था. ये चाहती थीं की महिलाओं को घरों से निकाला जाए और उन्हें स्कूलों का रास्ता दिखाया जाए. ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि अगर आज महिलाएं एक मुक़ाम पर पहुंचने में कामयाब हुई हैं तो इसकी एक बड़ी वजह सावित्री बाई और फातिमा भी हैं.
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