“अब गंगा जी का हाल यह है कि हमारे कानपुर में चमड़े का कारखाना खुला है. कई दिन से उसके दुर्गंध पूरित जल गंगा जी में आ जाते हैं, जिसके कारण गंगा स्नान, पितृ तर्पण और जलपान करने को जी नहीं चाहता और रोग फैलने की भी अधिक संभावना है, पर न जाने क्यों हमारी म्यूनिसिपिलिटी कमेटी सो रही है."134 साल पहले मासिक पत्रिका ब्राह्मण के जून 1883 के अंक में दिग्गज साहित्यकार और पत्रकार प्रताप नारायण मिश्र ने गंगा के प्रदूषण का मुद्दा उठाया था.
लेकिन 134 साल बाद आज गंगा का प्रदूषण न केवल कई गुना बढ़ गया है बल्कि जीवनदायिनी इस नदी का पानी पीने लायक नहीं रह गया. और अब जबकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने गंगा की सफाई से जुड़ा ऐतिहासिक फैसला दिया है तो पहला सवाल खड़ा होता है कि क्या एनजीटी का फैसला गंगा का उद्धार कर पाएगा ?
ये सवाल इसलिए क्योंकि बीते 32 साल से तो गंगा की सफाई को लेकर बड़ी योजनाएं चल रही हैं, और तब से लेकर आज तक गंगा में काफी पानी बह गया लेकिन हुआ कुछ नहीं. जून 1985 में गंगा एक्शन प्लान के पहले चरण का आगाज हुआ था, जो 31 मार्च 2000 तक चला. इस दौरान पहले 256 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, जो अगस्त 1994 में बढ़ाकर 462 करोड़ कर दिए गए. इस प्लान के तहत 25 क्लास वन शहरों को शामिल किया गया था. पश्चिम बंगाल में 110 योजनाओं को मंजूरी दी गई, जो सभी पूरी हुईं. उत्तर प्रदेश में 106 योजनाओं को मंजूरी दी गई, जो सभी पूरी हुईं. बिहार में 45 योजनाओं को मंजूरी दी गई, जो सभी पूरी हुईं. बावजूद इसके गंगा का हाल नहीं बदला.
गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण के तहत 95 शहरों में 441 प्रोजेक्ट शुरु हुए और करीब 2285 करोड़ रुपए खर्च हुए. लेकिन मामला ढाक के तीन पात वाला ही रहा. 1985 में दिल्ली के वकील एमसी मेहता ने गंगा की सफाई को लेकर सुप्रीम...
“अब गंगा जी का हाल यह है कि हमारे कानपुर में चमड़े का कारखाना खुला है. कई दिन से उसके दुर्गंध पूरित जल गंगा जी में आ जाते हैं, जिसके कारण गंगा स्नान, पितृ तर्पण और जलपान करने को जी नहीं चाहता और रोग फैलने की भी अधिक संभावना है, पर न जाने क्यों हमारी म्यूनिसिपिलिटी कमेटी सो रही है."134 साल पहले मासिक पत्रिका ब्राह्मण के जून 1883 के अंक में दिग्गज साहित्यकार और पत्रकार प्रताप नारायण मिश्र ने गंगा के प्रदूषण का मुद्दा उठाया था.
लेकिन 134 साल बाद आज गंगा का प्रदूषण न केवल कई गुना बढ़ गया है बल्कि जीवनदायिनी इस नदी का पानी पीने लायक नहीं रह गया. और अब जबकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने गंगा की सफाई से जुड़ा ऐतिहासिक फैसला दिया है तो पहला सवाल खड़ा होता है कि क्या एनजीटी का फैसला गंगा का उद्धार कर पाएगा ?
ये सवाल इसलिए क्योंकि बीते 32 साल से तो गंगा की सफाई को लेकर बड़ी योजनाएं चल रही हैं, और तब से लेकर आज तक गंगा में काफी पानी बह गया लेकिन हुआ कुछ नहीं. जून 1985 में गंगा एक्शन प्लान के पहले चरण का आगाज हुआ था, जो 31 मार्च 2000 तक चला. इस दौरान पहले 256 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, जो अगस्त 1994 में बढ़ाकर 462 करोड़ कर दिए गए. इस प्लान के तहत 25 क्लास वन शहरों को शामिल किया गया था. पश्चिम बंगाल में 110 योजनाओं को मंजूरी दी गई, जो सभी पूरी हुईं. उत्तर प्रदेश में 106 योजनाओं को मंजूरी दी गई, जो सभी पूरी हुईं. बिहार में 45 योजनाओं को मंजूरी दी गई, जो सभी पूरी हुईं. बावजूद इसके गंगा का हाल नहीं बदला.
गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण के तहत 95 शहरों में 441 प्रोजेक्ट शुरु हुए और करीब 2285 करोड़ रुपए खर्च हुए. लेकिन मामला ढाक के तीन पात वाला ही रहा. 1985 में दिल्ली के वकील एमसी मेहता ने गंगा की सफाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका डाली थी. इसके बाद ही राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की थी. सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में एनजीटी को यह याचिका ट्रांसफर कर दी थी और इसी याचिका को लेकर गुरुवार को एनजीटी ने ऐतिहासिक फैसला दिया है.
एनजीटी ने हरिद्वार से उन्नाव तक गंगा के किनारों से सटा 100 मीटर तक का इलाका नो डेवलपमेंट जोन घोषित कर दिया है. एनजीटी ने कहा है कि इस इलाके में (हरिद्वार से उन्नाव तक) गंगा के किनारों से 500 मीटर तक किसी भी तरह का कचरा नहीं फेंक सकते. इतने इलाके में अगर कोई कचरा डालता है तो उसे पर्यावरणीय मुआवजे के तौर पर 50 हजार रुपए देने होंगे. NGT के चेयरपर्सन जस्टिस स्वतंत्र कुमार की बेंच ने कहा, "ये यूपी सरकार का काम है कि वो चमड़े का कारखाना जाजमऊ से उन्नाव या कहीं भी, जहां उसे ठीक लगे, वहां शिफ्ट कर दे. ये काम 6 हफ्तों में किया जाना चाहिए."
इतना ही नहीं, ट्रिब्यूनल ने यूपी और उत्तराखंड को गंगा और उसकी सहायक नदियों के घाटों पर होने वाली धार्मिक गतिविधियों के लिए गाइडलाइन बनाने के निर्देश दिए. और ट्रिब्यूनल के निर्देशों का पालन किया जा रहा है या नहीं, इस पर नजर रखने के लिए एनजीटी ने सुपरवाइजर कमेटी भी बनाई है. लेकिन इतना सब कुछ होने के बावजूद एनजीटी का फैसला उम्मीद नहीं जगाता कि गंगा स्वच्छ और निर्मल हो जाएगी. पहली वजह तो आज का सच है. वो यह कि गंगा में रोजाना 12 हजार एमएलडी सीवेज औसतन रोज बहाया जाता है. 4 हजार एमएलटी सीवेज को ही शोधित करने की क्षमता उपलब्ध है.
आलम यह है कि उद्गमस्थल गंगोत्री से निकलने के बाद गंगा को स्वच्छ रखने की पहली जिम्मेदारी उत्तराखंड की है, लेकिन वहां हर की पैड़ी समेत तमाम गंगा घाटों से गंदगी सीधे बहकर गंगा में जा रही है. शहर से रोजाना 120 एमएलडी सीवेज निकलता है, जबकि ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता 65 एमएलडी की ही है.गंगा किनारे कारखाने चल ही रहे हैं. सैकड़ों श्मशान घाट से प्रदूषण फैल ही रहा है. फिर सबसे बड़ी बात यह है कि गंगा के प्रदूषण को लेकर आज तक जनचेतना नहीं फैल पाई है. और अगर जनभागीदारी ही नहीं है तो किसी भी फैसले का असर दिखेगा कैसे?
वैसे,वैसे मोदी सरकार के आने के बाद लगा था कि गंगा की सफाई को लेकर तेजी से काम होगा. इसके लिए सरकार ने नमामि गंगे परियोजना भी बनाई. पांच साल के ले 20000 करोड़ रुपए भी आवंटित किए. लेकिन गुरुवार को एनजीटी ने साफ कहा कि गंगा नदी की साफ सफाई में 7 हजार करोड़ रुपए खर्च कर दिए गए लेकिन हुआ कुछ नहीं.
तो 134 बरस से गंगा का प्रदूषण मुद्दा है, और ये मुद्दा बार बार उठा लेकिन हुआ कुछ नहीं. जून 1883 में पहली बार गंगा के प्रदूषण का मुद्दा उठाने के बाद प्रताप नारायण मिश्र ने 15 मई 1891 के ब्राह्मण पत्रिका के अंक में फिर गंगा के प्रदूषण का मुद्दा उठाया था. उन्होंने उस वक्त लिखा था-“नगर भर का अघोर और कहीं कहीं बबूल के साथ सड़े हुए चमड़े का पानी न अनाथों एवं पशुओं के बिन जले और अधजले सहस्त्रों मृत शरीर तुम्हीं में फेंके जाते हैं और तुम अपना रुप गुण बदल डालो तो इसमें क्या दोष?"
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