नारीवाद (Feminism) को लेकर बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, दुनिया में समानताओं को लेकर इतने विचार-विमर्श होते हैं, एक से बढ़कर एक क्रांतिकारी सिगरेट, शराब और गालियों में नारी की भागीदारी को लेकर आवाज़ उठाते हैं, पितृसत्ता (Patriarchy) पर हमला करते हैं कि इन्हीं लोगों ने ‘हमारा जिंदगी बर्बाद कर दिया’. सब अच्छा लगता है, क्रान्ति की मशाल जलती है तो बदलाव की उम्मीद नज़र आती है. फिर बात महावरी की हो तो मंदिरों में न घुसने देने पर मोर्चे निकाले जाते हैं, पूजा करने, खाना बनाने की आज़ादी को लेकर नारे लगाए जाते हैं, प्लेकार्ड्स उछाले जाते हैं, सोशल मिडिया और दिल्ली एक में बहुत हंगामा होता है, लेकिन असल भारत तक इस बेहिसाब शोर की फुसफुसाती आवाज़ भी कितनी पहुंचती है, इसका कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं मिलता. हम बचपन से अपनी मां या दीदी को काम में उलझा ही देखने के आदी होते हैं. कभी अचानक चिल्लाने लगें तो सभ्य घर के पुरुष ये मान लेते हैं कि थक गयी होगी, किसी बात से गुस्सा होगी और जाहिलों को लगता है कि पागल हो गयी है, दिमाग ख़राब हो गया है जो यूं ही चिल्लाने लगी. वजह न कोई पूछना ज़रूरी समझता है और न ही कोई नारी सहज बताने में यकीन करती है.
वही जब हम कॉर्पोरेट में शामिल होते हैं तो वहां कॉलीग्स के साथ अचानक कई बार ट्यूनिंग गड़बड़ा जाती है. ‘तबियत ख़राब है, मूड नहीं है, बात नहीं करनी अभी, काम में मन नहीं लग रहा, आज जल्दी घर जाना है’ सरीखे सौ अस्पष्ट कारण सुनने को मिलते हैं जो फिर से, सभ्य लोगों द्वारा ‘कोई बात नहीं हो जाता है कभी-कभी, इतना काम भी तो करती है’ मान लिया जाता है और जाहिलों से उजड्ड हंसी और कानाफूसी में ‘अरे मैडम डाउन होंगी, टेस्ट मैच...
नारीवाद (Feminism) को लेकर बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, दुनिया में समानताओं को लेकर इतने विचार-विमर्श होते हैं, एक से बढ़कर एक क्रांतिकारी सिगरेट, शराब और गालियों में नारी की भागीदारी को लेकर आवाज़ उठाते हैं, पितृसत्ता (Patriarchy) पर हमला करते हैं कि इन्हीं लोगों ने ‘हमारा जिंदगी बर्बाद कर दिया’. सब अच्छा लगता है, क्रान्ति की मशाल जलती है तो बदलाव की उम्मीद नज़र आती है. फिर बात महावरी की हो तो मंदिरों में न घुसने देने पर मोर्चे निकाले जाते हैं, पूजा करने, खाना बनाने की आज़ादी को लेकर नारे लगाए जाते हैं, प्लेकार्ड्स उछाले जाते हैं, सोशल मिडिया और दिल्ली एक में बहुत हंगामा होता है, लेकिन असल भारत तक इस बेहिसाब शोर की फुसफुसाती आवाज़ भी कितनी पहुंचती है, इसका कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं मिलता. हम बचपन से अपनी मां या दीदी को काम में उलझा ही देखने के आदी होते हैं. कभी अचानक चिल्लाने लगें तो सभ्य घर के पुरुष ये मान लेते हैं कि थक गयी होगी, किसी बात से गुस्सा होगी और जाहिलों को लगता है कि पागल हो गयी है, दिमाग ख़राब हो गया है जो यूं ही चिल्लाने लगी. वजह न कोई पूछना ज़रूरी समझता है और न ही कोई नारी सहज बताने में यकीन करती है.
वही जब हम कॉर्पोरेट में शामिल होते हैं तो वहां कॉलीग्स के साथ अचानक कई बार ट्यूनिंग गड़बड़ा जाती है. ‘तबियत ख़राब है, मूड नहीं है, बात नहीं करनी अभी, काम में मन नहीं लग रहा, आज जल्दी घर जाना है’ सरीखे सौ अस्पष्ट कारण सुनने को मिलते हैं जो फिर से, सभ्य लोगों द्वारा ‘कोई बात नहीं हो जाता है कभी-कभी, इतना काम भी तो करती है’ मान लिया जाता है और जाहिलों से उजड्ड हंसी और कानाफूसी में ‘अरे मैडम डाउन होंगी, टेस्ट मैच चल रहा होगा, इन औरतों की यही समस्या तो रहती है काम के वक़्त, सब बहानेबाजी है और कुछ नहीं’ टाइप बेहुदे कॉमेंट्स ताने सर्कुलेट होते हैं.
माहवारी का मज़ाक उड़ाने वाले भी हैं, महिलाओं को माहवारी के वक़्त रोकने-टोकने वाले भी हैं, उन रोकने वालों के ख़िलाफ़ मोर्चा निकालने वाले भी मौजूद हैं और उन मोर्चे वालों को ट्रोल करने वाले भी अवेलेबल हैं. इन हल्लो-मोर्चों और उठती क्रांतियों से प्रत्यक्ष कोई परिणाम आता भले न दिखता हो, लेकिन आमजन के मन में कम से कम पीरियड्स को लेकर कुछ ही सही जागरुकता तो बढ़ती है. कहते हैं दीवार पर धक्का नहीं मारना चाहिए पर लगता है दीवार पर मारा धक्का भी खाली नहीं जाता.
एक अरसे से ये मुद्दा उठ रहा था कि कामकाजी महिलाओं को पीरियड्स के दौरान छुट्टी मिलने का प्रावधान हो, कोरोना काल खत्म होने के बाद ज़ोमैटो फूड डिलीवरी कम्पनी ने अपनी महिला कर्मचारियों को साल में दस पीरियड्स रिलेटेड छुट्टियां देने का फैसला लिया था.इस सोमवार दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार दोनों को इस मामले पर विचार करने को कहा है. जनहित याचिका में महीने में चार दिन की छुट्टी की मांग है, जिसपर उम्मीद है कि ज़रा बहुत नेगोशिएशन के बाद सकारात्मक निर्णय ही लिया जायेगा.
ज़ाहिर है पुरुष कर्मचारियों के मन में ये बात आयेगी ही कि ‘महिला होने का फायदा मिल रहा है, इनका बढ़िया है, मज़े करें घर बैठ’ ये सब बातें आना स्वाभाविक है, दूसरे को परेशानी में राहत मिले तो पहले को लगता है उसे जैकपोट मिल गया. समाज में एक वर्ग सिर्फ मेरा और तुम्हारा समझता है, तुम्हें ये मिला तो मुझे क्या मिलेगा? मुझे ये मिला तो तुम्हें भी तो वो मिला!’
ये सोच किसी जेंडर, धर्म या जाति की मोहताज नहीं, इस सोच के साथ समस्या सिर्फ इतनी है कि ये दूसरों के लिए लागू होती है, यही छुट्टी अपनी बेटी को मिले तो बहुत बढ़िया, उसका हक़ है. साथ वाले काउंटर पर बैठी मैडम को मिले तो ‘हुंह, कहीं घूमने जाना होगा, माहवारी का बहाना बना रही है’ सरीखी सोच हो जाती है.
वहीं, जब सोच मेरा और तुम्हारा की बजाए हमारा ऑफिस, हमारा समाज, हमारे देश पर केंद्रित हो जाती है तो किसी दूसरे के हक़ में आया फैसला भी अच्छा लगने लगता है और यकीन मानिए, हमारे देश में दूसरों की ख़ुशी से ख़ुश होने वाले अधिक हैं, सकारात्मक लोग ज़्यादा हैं, टांग खींचने से पहले हाथ बढ़ाने वालों संख्या अधिक है, इसीलिए ये देश अतुलनीय है और मुझे पूरा यकीन है कि दिल्ली और केंद्र सरकार अतुलनीय निर्णय ही लेगी. हम एक दूसरे की दर्द-तकलीफ को समझेंगे तो अपनी तकलीफों में निरंतर कमी होती दिखेगी और यही बात हमारे इंसान होने का प्रमाण देगी.
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