जिम्मेदारियां बहुत कुछ छीन लेती हैं. कई एहसास भी दे जाती हैं, मसलन हम सोचते ही रह जाते हैं कि किसी ज़रूरी आंदोलन में मुखर होकर शामिल होना क्या लाजवाब अनुभव हो सकता था. सिंघु बॉर्डर पर जाना बहुत देर रुकने का सबब नहीं था. रुककर हिस्सा बन सकने की चाह अधूरी रही थी. आज उसी एहसास-ए-कमतरी को दूर करने की एक कोशिश थी. बीते दिन ही तय कर लिया गया था, की एक दोपहर ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसानों के बीच बीतेगी.
आह! क्या जगह. इस रास्ते से पहले जब भी गुज़री, महानगर दिल्ली के उत्सर्जन की बदबू से ख़ुद को बचाती हुई गुज़री. नाक पर रूमाल और ऊपर मंडराते गिद्ध. दिली तमन्ना यह कि रास्ते का यह हिस्सा जितनी जल्दी बीत जाए उतना अच्छा. आज उसी जगह, जहां गिद्ध अब भी मौक़े की ताक में हैं, बग़ल में शहर के कचरे का पहाड़ उतना ही बड़ा है, तीन घंटे रुकने के बाद भी लौटने को जी नहीं चाह रहा था.
जागृत युद्ध शिविरों में कैसा उत्साह होता होगा, यह नहीं जानती. ग़ाज़ीपुर के किसान धरना स्थल का उत्साह टूटी हुई आस में भी रण जीतने जैसा जोश भर सकता है. और क्या संक्रामक. ख़ुद में मैं इतना सारा जोश भर आयी कि सखी और साथी में थोड़ा-थोड़ा बांट देने पर भी, अभी लबालब भरी हुई हूं.
जाने कितने-कितने लोग और तमाम उम्र के. जैसे कोई गांव बसा हुआ हो, जहां रोज़ कोई उत्सव हो. अधिकार का उत्सव. जन-उत्सव. इस गांव की कोई तय सीमा नहीं है. लोकतंत्र क़ायम रखने के इस अभूतपूर्व त्योहार के परिक्षेत्र की शुरुआत दिल्ली की सीमाओं से होती है, विस्तार इसका देश के आख़िरी कोने तक होगा. दिल्ली तो है ही दिल से साथ.
अभिनंदन मेरे देश के किसानों. अभिनंदन आपका. हमसब के साथ की आवाज़ पहुंचेगी दूर तक. यह अभूतपूर्व...
जिम्मेदारियां बहुत कुछ छीन लेती हैं. कई एहसास भी दे जाती हैं, मसलन हम सोचते ही रह जाते हैं कि किसी ज़रूरी आंदोलन में मुखर होकर शामिल होना क्या लाजवाब अनुभव हो सकता था. सिंघु बॉर्डर पर जाना बहुत देर रुकने का सबब नहीं था. रुककर हिस्सा बन सकने की चाह अधूरी रही थी. आज उसी एहसास-ए-कमतरी को दूर करने की एक कोशिश थी. बीते दिन ही तय कर लिया गया था, की एक दोपहर ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसानों के बीच बीतेगी.
आह! क्या जगह. इस रास्ते से पहले जब भी गुज़री, महानगर दिल्ली के उत्सर्जन की बदबू से ख़ुद को बचाती हुई गुज़री. नाक पर रूमाल और ऊपर मंडराते गिद्ध. दिली तमन्ना यह कि रास्ते का यह हिस्सा जितनी जल्दी बीत जाए उतना अच्छा. आज उसी जगह, जहां गिद्ध अब भी मौक़े की ताक में हैं, बग़ल में शहर के कचरे का पहाड़ उतना ही बड़ा है, तीन घंटे रुकने के बाद भी लौटने को जी नहीं चाह रहा था.
जागृत युद्ध शिविरों में कैसा उत्साह होता होगा, यह नहीं जानती. ग़ाज़ीपुर के किसान धरना स्थल का उत्साह टूटी हुई आस में भी रण जीतने जैसा जोश भर सकता है. और क्या संक्रामक. ख़ुद में मैं इतना सारा जोश भर आयी कि सखी और साथी में थोड़ा-थोड़ा बांट देने पर भी, अभी लबालब भरी हुई हूं.
जाने कितने-कितने लोग और तमाम उम्र के. जैसे कोई गांव बसा हुआ हो, जहां रोज़ कोई उत्सव हो. अधिकार का उत्सव. जन-उत्सव. इस गांव की कोई तय सीमा नहीं है. लोकतंत्र क़ायम रखने के इस अभूतपूर्व त्योहार के परिक्षेत्र की शुरुआत दिल्ली की सीमाओं से होती है, विस्तार इसका देश के आख़िरी कोने तक होगा. दिल्ली तो है ही दिल से साथ.
अभिनंदन मेरे देश के किसानों. अभिनंदन आपका. हमसब के साथ की आवाज़ पहुंचेगी दूर तक. यह अभूतपूर्व जनआंदोलन अपने लक्ष्य को हासिल करेगा. नागरिक आंदोलन के क़िस्सों में नयी इबारत दर्ज करेगा.
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