हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पिता को यदि निर्णय लेने से सम्बंधित सभी अधिकार प्राप्त हैं और वह एक राजा की तरह प्रतीत होते हैं तो वहीं जीविकोपार्जन से लेकर परिवार की हर ख़ुशी के आगे वे अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं और इच्छाओं को कब ताक़ पर रख देते हैं इसका अनुमान स्वयं उन्हें भी नहीं होता होगा! कुल मिलाकर पिता घर का मुखिया भी है और दुखिया भी. वह चाचा चौधरी और साबू दोनों का रोल प्ले करते हैं. मुसीबत के समय वे ही घर के रॉबिनहुड और स्पाइडर मैन भी हैं. सुपर हीरो की तरह हर समस्या का समाधान उनके पास ही होता है.
हमारे हिन्दुस्तानी परिवारों में लड़कियों को कुकिंग एवं अन्य घरेलू काम सीखने की उपयोगिता बताते समय ये ताना मारा जाता है कि "ससुराल में जाकर हमारी नाक़ मत कटवा दियो" या फिर वो सुप्रसिद्ध पर अजीब सा डायलॉग कि "पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है." गोया, पति न हुआ मगध साम्राज्य हो गया जिस पर राज करे और सम्पूर्ण प्रजा (ससुराल पक्ष) का दिल जीते बिना हम चक्रवर्ती नहीं बन सकते! पर ख़ैर, इस तरह की बातें लगभग सबने सुनी ही होंगी. मुद्दा यह है कि असल लानतें तो लड़कों के ही हिस्से में आती हैं. मसलन, "इस निकम्मे से कौन बियाह करेगा?", "सारा दिन मुफ्त की रोटी तुडवा लो बस", "बाप चप्पल घिसता रहे और ये साहबजादे, पलंग पर पड़े टीवी देखें", और सबसे क्लासिक "ख़ुद कमाओगे, तब पता चलेगा!"
अस्सी के दशक तक पैदा होने वाले सभी लड़के यदि अपना बचपन याद करें तो उसमें आकाशगंगा की तरह उड़ती हुई चप्पल और उससे स्वयं को बचाने का प्रयास करती हुई एक तस्वीर अवश्य रोशन होगी. ये चप्पलें मम्मी-पापा या घर के किसी भी बड़े सदस्य की ओर से इन लड़कों की औंधी हरक़तों के एवज़ में तत्काल ईनाम स्वरूप प्राप्त होती थीं. यदि इनके पहले प्रहार से बच्चा उछलकर स्वयं को बचा लेता था, तो यह केस 'हाथ से गया' ही समझो! क्योंकि उसके बाद...
हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पिता को यदि निर्णय लेने से सम्बंधित सभी अधिकार प्राप्त हैं और वह एक राजा की तरह प्रतीत होते हैं तो वहीं जीविकोपार्जन से लेकर परिवार की हर ख़ुशी के आगे वे अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं और इच्छाओं को कब ताक़ पर रख देते हैं इसका अनुमान स्वयं उन्हें भी नहीं होता होगा! कुल मिलाकर पिता घर का मुखिया भी है और दुखिया भी. वह चाचा चौधरी और साबू दोनों का रोल प्ले करते हैं. मुसीबत के समय वे ही घर के रॉबिनहुड और स्पाइडर मैन भी हैं. सुपर हीरो की तरह हर समस्या का समाधान उनके पास ही होता है.
हमारे हिन्दुस्तानी परिवारों में लड़कियों को कुकिंग एवं अन्य घरेलू काम सीखने की उपयोगिता बताते समय ये ताना मारा जाता है कि "ससुराल में जाकर हमारी नाक़ मत कटवा दियो" या फिर वो सुप्रसिद्ध पर अजीब सा डायलॉग कि "पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है." गोया, पति न हुआ मगध साम्राज्य हो गया जिस पर राज करे और सम्पूर्ण प्रजा (ससुराल पक्ष) का दिल जीते बिना हम चक्रवर्ती नहीं बन सकते! पर ख़ैर, इस तरह की बातें लगभग सबने सुनी ही होंगी. मुद्दा यह है कि असल लानतें तो लड़कों के ही हिस्से में आती हैं. मसलन, "इस निकम्मे से कौन बियाह करेगा?", "सारा दिन मुफ्त की रोटी तुडवा लो बस", "बाप चप्पल घिसता रहे और ये साहबजादे, पलंग पर पड़े टीवी देखें", और सबसे क्लासिक "ख़ुद कमाओगे, तब पता चलेगा!"
अस्सी के दशक तक पैदा होने वाले सभी लड़के यदि अपना बचपन याद करें तो उसमें आकाशगंगा की तरह उड़ती हुई चप्पल और उससे स्वयं को बचाने का प्रयास करती हुई एक तस्वीर अवश्य रोशन होगी. ये चप्पलें मम्मी-पापा या घर के किसी भी बड़े सदस्य की ओर से इन लड़कों की औंधी हरक़तों के एवज़ में तत्काल ईनाम स्वरूप प्राप्त होती थीं. यदि इनके पहले प्रहार से बच्चा उछलकर स्वयं को बचा लेता था, तो यह केस 'हाथ से गया' ही समझो! क्योंकि उसके बाद उसका कॉलर पकड़कर पीठ पर लात-घूंसों की जो सुनामी चलती थी उसकी आहें ये लड़के आज भी बचपन में ढूंढते हैं.
इस हिंसक घटना के आफ्टर इफेक्ट की सबसे क्यूट बात ये होती थी कि कुटाई-पिटाई के बाद मम्मी उसका पसंदीदा खाना बनाती, बहिन अपने हिस्से का भी उसे ठूंसने को दे देती और बंदा लपर-लपर उसे खा भी लेता. पर पिता से उसकी खुन्नस हफ़्तों बरक़रार रहती. जैसे-तैसे बोलचाल शुरू होती भी, तब तक फिर धुनाई का नंबर आ जाता. मुझे लगता है कि लड़के इसलिए ही थोड़े ज्यादा जिद्दी और धुनी होते हैं. पिटते समय मुंह फाड़-फाड़कर इतना रोये हैं कि बड़े होने के बाद इन्हें ज्यादा रोना आ ही नहीं पाता क्योंकि इनके आंसुओं का स्टॉक बचपन में ही निबट गया था.
आम भारतीय परिवारों में पिता और बेटी का जो रिश्ता होता है वैसा पिता-पुत्र का नहीं होता और एक अनकहा, अघोषित शीतयुद्ध दोनों में जारी रहता है. ये एक ही घर में दो कट्टर दुश्मनों के रहने जैसा है जिनके संदेशों का आदान-प्रदान करने के लिए स्त्री प्रजाति डाकिये की भूमिका निभाती आई है. जैसे, "अपने बेटे को बता देना, फलाना ढिकाना टाइप" या कि "आप पापा को बोल देना" इत्यादि. वैसे इतिहास की इक्का-दुक्का घटनाओं में ये दोनों प्राणी बिना आई कांटेक्ट के संवाद बोलते भी दृष्टिगोचर हुए हैं.
पर जैसे मां, बनने के बाद लडकियां बहुत कुछ समझने लगती हैं, वैसे ही पिता बनने के बाद लड़के भी सयाने हो जाते हैं. उनका अपने पिता के प्रति सम्मान बढ़ जाता है. बचपन की डांट और सारी बातों का अर्थ समझने लगते हैं. अपने पिता की बहुत परवाह करते हैं. बचपन का खोया जुड़ाव अब स्थापित होने लगता है. ये अच्छी बात है कि आजकल के बच्चे और माता-पिता के बीच अब पहले सी दूरियां नहीं होतीं और वे बेझिझक अपनी बात कह-सुन सकते हैं. लेकिन वे पुराने दिन भी कम हसीं नहीं थे.
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