कुछ कहानियों की उपज क़िस्सों से होती है तो कुछ की घटनाओं से. एक ही परिवार में रहने वाले हर इंसान की एक अलग कहानी होती है कहो तो सब एक दूसरे से अलग या सब एक दूसरे में गुत्थम-गुत्था. एक लिखने वाला इन्हें एक साथ लिख दे और ऐसा लगे हम भी इसी परिवार के सदस्य हैं. नहीं! सदस्य होते तो हमारी भी कहानी होती है हम तो उस आगंतुक की तरह हैं जो यदा कदा उनसे मिलने जाता है लेकिन वहां से आने के बाद भी वहीं के बारे में सोचता है. 'रेत समाधि' एक ऐसे परिवार की कहानी है. जिसका मुख्य किरदार 'अम्मा' हैं. हर घर की मां की तरह वो बच्चों की नज़र में पैदा ही अम्मा हुई हैं. तरह-तरह की सुंदर साड़ी पहनी अम्मा, दरवेशों का चोला पहनी अम्मा, को उनके बच्चे सिर्फ़ मां के रूप में ही देखना चाहते हैं जो हर तरह से तृप्त हों. उनकी इच्छाएं भी बच्चों के अनुसार ही हों. वो कुछ भी अलग ना सोचें कोई कहानी न गढ़ें. लेकिन यहां अम्मा ने अपने इर्द गिर्द कहानियां गढ़ी हैं. उन कहानियों के साथ हम बेटे के आलीशान घर से निकल बेटी के फ़्लैट और फिर सरहद पार चले जाते हैं.
'रेत समाधि' पारम्परिक कहानी नहीं है. अगर पाठक इस उपन्यास में एक सीधी सादी प्रेम कहानी, रहस्य और रोमांच खोजेंगे तो शायद निराश हो जाएं. इन तीनों को भिन्न कलेवर में समेटे यह उपन्यास एक यात्रा है. जिस पर बढ़ने के लिए आपको ‘अम्मा’ का हाथ पकड़ कर चलना होगा. चूंकि अम्मा अस्सी बरस की हैं और एक छड़ी का सहारा लेकर चलती हैं तो आपको भी अपनी गति सामान्य से कम रखनी होगी. जब गति कम है तो ज़ाहिर है आप रास्ते के दोनों तरफ़ के दृश्यों को तल्लीन होके निहारेंगे.
वहां पौधे, कौवे, मज़ार, झील, रेगिस्तान, फूल, पत्थर...
कुछ कहानियों की उपज क़िस्सों से होती है तो कुछ की घटनाओं से. एक ही परिवार में रहने वाले हर इंसान की एक अलग कहानी होती है कहो तो सब एक दूसरे से अलग या सब एक दूसरे में गुत्थम-गुत्था. एक लिखने वाला इन्हें एक साथ लिख दे और ऐसा लगे हम भी इसी परिवार के सदस्य हैं. नहीं! सदस्य होते तो हमारी भी कहानी होती है हम तो उस आगंतुक की तरह हैं जो यदा कदा उनसे मिलने जाता है लेकिन वहां से आने के बाद भी वहीं के बारे में सोचता है. 'रेत समाधि' एक ऐसे परिवार की कहानी है. जिसका मुख्य किरदार 'अम्मा' हैं. हर घर की मां की तरह वो बच्चों की नज़र में पैदा ही अम्मा हुई हैं. तरह-तरह की सुंदर साड़ी पहनी अम्मा, दरवेशों का चोला पहनी अम्मा, को उनके बच्चे सिर्फ़ मां के रूप में ही देखना चाहते हैं जो हर तरह से तृप्त हों. उनकी इच्छाएं भी बच्चों के अनुसार ही हों. वो कुछ भी अलग ना सोचें कोई कहानी न गढ़ें. लेकिन यहां अम्मा ने अपने इर्द गिर्द कहानियां गढ़ी हैं. उन कहानियों के साथ हम बेटे के आलीशान घर से निकल बेटी के फ़्लैट और फिर सरहद पार चले जाते हैं.
'रेत समाधि' पारम्परिक कहानी नहीं है. अगर पाठक इस उपन्यास में एक सीधी सादी प्रेम कहानी, रहस्य और रोमांच खोजेंगे तो शायद निराश हो जाएं. इन तीनों को भिन्न कलेवर में समेटे यह उपन्यास एक यात्रा है. जिस पर बढ़ने के लिए आपको ‘अम्मा’ का हाथ पकड़ कर चलना होगा. चूंकि अम्मा अस्सी बरस की हैं और एक छड़ी का सहारा लेकर चलती हैं तो आपको भी अपनी गति सामान्य से कम रखनी होगी. जब गति कम है तो ज़ाहिर है आप रास्ते के दोनों तरफ़ के दृश्यों को तल्लीन होके निहारेंगे.
वहां पौधे, कौवे, मज़ार, झील, रेगिस्तान, फूल, पत्थर सब मौजूद हैं. सरहद के उस पार जाने पर तो जाने कितने ऐसे दृश्य और गलियां हैं जिन्हें आपकी आंखें देखेंगी और मन महसूस करेगा. 'रेत समाधि' की यात्रा में शब्दों के इतने सुंदर पड़ाव हैं कि आप वहां से कुछ न कुछ ज़रूर बटोर लेंगे. अनेक स्थानों पर ऐसा लगेगा कि हम रुक गए हैं. उस दृश्य को इस तरह कहा गया है….
'कहानी वहीं की वहीं हो अभी तो ज़ाहिर हो जाता है कि उस कहानी को और कहना है अभी. झाड़-बहार के किनारे नहीं लगा सकते अभी. रुकना पड़ता है, टिकना पड़ता है. उसकी रफ़्तार को अपनी रफ़्तार बनाना पड़ता है.' 'रेत समाधि' की यात्रा में बहुत सारी बातें हैं जो मन ही मन की जाती है फिर भी पाठक के मन तक चली जाती हैं. मां और बेटी के बीच घटते दृश्यों ने मुझे बहुत तरंगित किया.
काश मैं भी अपनी मां के इस वृद्ध रूप को निहार पाती. उन्हें बच्ची की तरह अपनी बाहों में समेट पाती. कितनी ही पंक्तियों ने सम्मोहित किया. कितनी ही पंक्तियों को वापस पलट के दो-तीन बार पढ़ा, उन सबको यहां उद्धृत नहीं कर पाऊंगी. लेकिन कुछ दृश्यों में मैं उस कहानी की पात्र बन कर मां को निहार रही थी…
'हां इसी जगह ठोड़ी पे बाल आता है. देखो एक बस लम्बा होता जाएगा. मां नोचना चाहती है. कैंची दो. नहीं नहीं, बेटी घबराती है. कमाल है मेरे भी ठीक उसी जगह बस एक बाल आता है.” इस सफ़र में इतने छोटे-छोटे क़िस्सों को भी लिखा गया है कि पाठक को लगेगा, अरे ये भी! … अहा! मेरे मन की बात! …. वाह! ऐसा ही तो होता है.
कुछ शब्द ऐसे जो कभी पढ़े ही नहीं. बातें ऐसी, जो पहले भी सुनीं लेकिन इस तरह समझ नहीं पायी थी. एक दृश्य है जिसमें बेटी कहती है नहीं कहने को सोचती है … 'तुम्हें नहीं लगता जवानी ग़लत समय पर आती है? जब हम नादान होते हैं, कुछ जिया नहीं होता है. आती है और निकल जाती है, हमें पता भी नहीं चलता. बुढ़ापे में आनी चाहिए परमपूर अनुभवी होने के बाद. ललकने का मतलब खुलता है.'
ऐसी बातें तो हमारे मन में भी आती हैं पर लेखिका उसे पूरी संश्लिष्टता में प्रस्तुत कर हमें आनंदित कर देती हैं. बातों को सीधे सादे ढंग से भी कही जा सकती हैं लेकिन उससे पढ़ने वाले को क्या मिलेगा? मात्र एक कहानी! कहानियां तो हम सभी के पास हैं. आस-पास बिखरी हुई, हंसती हुई, रोती हुई… लेकिन उन्हें दूसरों तक पहुंचाने के लिए लेखक उसे अपनी तरह से तैयार करता है. एक दृश्य में लेखिका ने लिखा है…
'रायपुर में एक विनोद कुमार शुक्ल हैं जिनकी दीवार की खिड़की के बाहर जादू सच का था,कौन जानता है?...राजधानी में एक निर्मल वर्मा थे जिन्होंने हीरे से भाषा की कटिंग की, वो राजधानी वाले ही नहीं जानते. ग़लती से किसी ने उनकी धूप देखी तो ये कह कर ख़ारिज कर दिया कि विलायत से आयी है, सरबसर अनजान कि ये शिमला की गुनगुनी धूप है.'
'रेत समाधि' का लेखन काव्यात्मक और बिंबात्मक है. बीच-बीच में लगा कविता पढ़ रही हूं वो जैसे ही पूरी होगी कहानी बन जाएगी. यात्रा का अंत आते-आते मां की छड़ी टूट जाती है. अम्मा रुक जाती हैं और समाधि बन जाती हैं. लेकिन हम उनके साथ वहां नहीं रुक सकते. आगे बढ़ते हैं लेकिन मुड़-मुड़ कर पीछे देखते जाते हैं. जैसे गणित का सवाल एक बार में न समझ आए तो हम बार-बार पढ़ते हैं और हल समझ आ जाता है.
इस अद्भुत यात्रा की समीक्षा मुझ जैसे पाठक के बस की बात नहीं है. मैं बस यात्रा वृतांत सुना सकती हूं पर सुनने वाला उन दृश्यों को कैसे महसूस करेगा? जिनसे गुज़र कर यह यात्रा सरहद पार पहुंच गयी है. यह समीक्षा उन सभी सहेलियों के लिए जिन्होंने पूछा था, कैसी किताब है? क्या वाकई बुकर में शॉर्ट लिस्ट होने लायक़ है? या इसके पीछे उनका लेखिका होना है.
तो दोस्तों यकीनन 'रेत समाधि' इस ईनाम की प्रबल दावेदार है. अगर मेरा वश चलता तो 'विनोद' सर की ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ और 'अज्ञेय' जी की ‘नदी के द्वीप’ को भी बुकर दिलवा देती. लेकिन 'रेत समाधि' के पात्रों की तरह कुछ भी किसी के वश में नहीं है. सब घटनाएं हैं, जो घट रही हैं और घटती रहेंगी. एक हिंदी किताब का पहली बार बुकर की महफ़िल में आमंत्रित किया जाना हम सबके लिए गर्व का विषय है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.