पुलिस वाले ने एक अफ्रीकी-अमेरिकी युवक के हाथ बांध उसे जमीन पर गिरा दिया था. लेकिन इतने से भी उसे तसल्ली नहीं हुई और उसने अपना घुटना उस अश्वेत की गर्दन पर रख दिया और धीरे-धीरे दवाब बढ़ाता रहा. घुटी हुई सांसों से युवक ने बार-बार कहा कि "मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं, मैं सांस नहीं ले सकता" (Please, I can’t breathe). लेकिन ऑफिसर का दिल तो पत्थर का था और चेहरा संवेदनहीन, उसके माथे पर शिकन तक नहीं पड़ी. आसपास खड़े लोग चीखते रहे कि 'यह मर जाएगा, आप ऐसा नहीं कर सकते.' पर नफ़रत की आग के आगे ऐसी दलीलें कब काम आती हैं भला? एक तरफ आसपास खड़े लोग पुलिस ऑफ़िसर से उसकी इस क्रूर हरक़त को रोकने की ग़ुहार लगा रहे थे तो वहीं दूसरी ओर युवक की आवाज़ मद्धम पड़ती जा रही थी. पूरे 9 मिनट बाद ऑफिसर ने घुटना हटाया. 6 फुट-7-इंच का वह अश्वेत युवक जॉर्ज फ्लॉयड (George Floyd) मौन हो, अब इस दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह चुका था.
अब अमेरिका और उसका मिनियापोलिस एक अलग ही आग में जल रहा है. ये विरोध के स्वर हैं, रोष के स्वर हैं, न्याय की मांग के स्वर हैं. यह एक ऐसा सामुदायिक आक्रोश और विरोध प्रदर्शन है जिसे लंबे समय तक याद रखा जाएगा. वहां के नागरिकों में पूरी घटना के प्रति इस क़दर गुस्सा है कि फिर कोरोना का डर भी आड़े नहीं आया और उन्होंने घर से बाहर निकल पूरा शहर सर पर उठा लिया है.
पुलिस ने अपनी सफ़ाई में तमाम झूठी कहानियां गढ़ लीं लेकिन वहां उपस्थित प्रत्यक्षदर्शियों ने सारा सच उगल दिया. लोगों के पास इस पूरी घटना के वीडियोज़ हैं जो निर्दोष फ्लॉयड की निर्मम मृत्यु की पूरी दास्तां बयान करते हैं. CCTV फुटेज़ भी विस्फोटक दृश्यों के साथ उन पुलिसकर्मियों के मुंह पर तमाचे की...
पुलिस वाले ने एक अफ्रीकी-अमेरिकी युवक के हाथ बांध उसे जमीन पर गिरा दिया था. लेकिन इतने से भी उसे तसल्ली नहीं हुई और उसने अपना घुटना उस अश्वेत की गर्दन पर रख दिया और धीरे-धीरे दवाब बढ़ाता रहा. घुटी हुई सांसों से युवक ने बार-बार कहा कि "मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं, मैं सांस नहीं ले सकता" (Please, I can’t breathe). लेकिन ऑफिसर का दिल तो पत्थर का था और चेहरा संवेदनहीन, उसके माथे पर शिकन तक नहीं पड़ी. आसपास खड़े लोग चीखते रहे कि 'यह मर जाएगा, आप ऐसा नहीं कर सकते.' पर नफ़रत की आग के आगे ऐसी दलीलें कब काम आती हैं भला? एक तरफ आसपास खड़े लोग पुलिस ऑफ़िसर से उसकी इस क्रूर हरक़त को रोकने की ग़ुहार लगा रहे थे तो वहीं दूसरी ओर युवक की आवाज़ मद्धम पड़ती जा रही थी. पूरे 9 मिनट बाद ऑफिसर ने घुटना हटाया. 6 फुट-7-इंच का वह अश्वेत युवक जॉर्ज फ्लॉयड (George Floyd) मौन हो, अब इस दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह चुका था.
अब अमेरिका और उसका मिनियापोलिस एक अलग ही आग में जल रहा है. ये विरोध के स्वर हैं, रोष के स्वर हैं, न्याय की मांग के स्वर हैं. यह एक ऐसा सामुदायिक आक्रोश और विरोध प्रदर्शन है जिसे लंबे समय तक याद रखा जाएगा. वहां के नागरिकों में पूरी घटना के प्रति इस क़दर गुस्सा है कि फिर कोरोना का डर भी आड़े नहीं आया और उन्होंने घर से बाहर निकल पूरा शहर सर पर उठा लिया है.
पुलिस ने अपनी सफ़ाई में तमाम झूठी कहानियां गढ़ लीं लेकिन वहां उपस्थित प्रत्यक्षदर्शियों ने सारा सच उगल दिया. लोगों के पास इस पूरी घटना के वीडियोज़ हैं जो निर्दोष फ्लॉयड की निर्मम मृत्यु की पूरी दास्तां बयान करते हैं. CCTV फुटेज़ भी विस्फोटक दृश्यों के साथ उन पुलिसकर्मियों के मुंह पर तमाचे की तरह पड़ते हैं.
परिवार में दुःख है, मातम है और दोषियों के ख़िलाफ़ हत्या का केस दर्ज़ करने की प्रबल मांग. लेकिन अभी प्राप्त ख़बरों के अनुसार मिनियापोलिस पुलिस विभाग ने उन्हें नौकरी से निकाल अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली है. यहां के मेयर ने बताया कि उन्होंने एफबीआई से मामले की जांच करने के लिए कहा है.
ट्विटर पर पोस्ट किए गए एक वक्तव्य में उन्होंने कहा, 'अमेरिका में अश्वेत होना मौत की सजा नहीं होनी चाहिए. पांच मिनट के लिए, हमने देखा कि एक श्वेत अधिकारी अपने घुटने से एक अश्वेत की गर्दन दबा रहा था. पांच मिनट.'(Being black in America should not be a death sentence. For five minutes, we watched a white officer press his knee into a black man’s neck. Five minutes)
किसी परिवार को तबाह करने वाले और उनकी आंखों के तारे का जीवन लेने वाले कितने सस्ते में छूट जाया करते हैं. मैं आज साहिर की उदासी और उस दर्द को एक बार फ़िर महसूस कर पा रही हूं. वे शब्द जो उन्होंने लगभग साठ वर्ष पहले लिखे थे, न जाने कब तक ये प्रासंगिक होते रहेंगे.
'यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती/ ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती/ यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती/ ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!' नफ़रत, सांप्रदायिकता और रंगभेद की जड़ें बहुत गहरी एवं विषाक्त हैं. कितने मूर्ख हैं हम, जो सोचते थे कि कोरोना महाकारी के इस संकट काल में लोग थोड़े और संवेदनशील हो जाएंगे, परस्पर सौहार्द्र में वृद्धि होगी, दुनिया शायद बेहतर हो जाएगी. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बल्कि अब लोग एक-दूसरे को संशय से देखने लगे हैं. पड़ोसी, पड़ोसी का नहीं रहा. सोशल डिस्टेंस अब दिलों तक जा पहुंचा है.
वो पुलिसवाला जो अपना घुटना तब तक फ्लॉयड की गर्दन पर टिकाये रहा जब तक उसकी मौत नहीं हो गई, क्या वो वाक़ई में अब कभी चैन से सो पायेगा? नफ़रत की इस आग ने उसकी भी नींद छीन ली होगी. छीननी ही चाहिए. अब वो अपने बच्चों को स्नेह की कोई भी कहानी सुनाते हुए बार-बार शर्मिंदा होगा.
अफ़सोस कि यह शर्मिंदगी और दुःख किसी एक देश या शहर का नहीं, घृणा और सांप्रदायिकता भी वैश्विक महामारी है. इससे निज़ात पाने की वैक्सीन की दरकार और भी ज्यादा है.
साहिर फ़िर याद दिलाते हैं - 'बचा लो, बचा लो, बचा लो ये दुनिया/ तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया'.
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