मारी डिकरी मारी आंख सामे
मारी डिकरी मारी नजर समक्ष
गोधरा. 2002 गुजरात दंगों का केंद्र. 40 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस जिले में ऊपर की दो लाइनों वाले बैनर जगह-जगह टंगे हैं. पिछले साल भी बैनर टंगे थे, लिखा कुछ और गया था लेकिन मकसद एक था - अपनी बेटी को अपनी आंखों के सामने रखना - मुस्लिम युवकों का गरबा में प्रवेश पर रोक, 'लव जिहाद' जैसी चीज पर रोक.
धर्मनिरपेक्ष भारत में हिंदू-मुस्लिम से जुड़ा कोई मुद्दा हो और बवाल न हो, यह हो नहीं सकता. जाहिर है पिछले साल भी बवाल हुआ था, इस साल भी शुरू हो गया है. पिछले साल हिंदू अस्मिता हित रक्षक समिति ने अकेले ही मोर्चा संभाला था, जबकि इस साल बीजेपी, आरएसएस और वीएचपी भी मैदान में कूद गई हैं. इनका मकसद है गरबे को आयोजन और बिजनेस के स्तर से हटाकर उत्सव और संस्कृति से जोड़ना.
शेरी गरबा. यह गरबे का पारंपरिक तरीका है. इसमें पंडालों या बड़े आयोजन स्थलों में एक भीड़ के तौर पर जुट कर गरबा करने के बजाय घरों, कॉलोनियों के आस-पास गलियों में छोटे-छोटे समूहों में गरबा किया जाता है. ऐसे लोगों के साथ गरबा किया जाता है, जो एक-दूसरे को जानते हैं. शेरी गरबा संवर्द्धन समिति गरबा के इसी पारंपरिक तरीके को बढ़ावा देने पर जोर देती है. पिछले साल 6 जगहों पर शेरी गरबा का आयोजन किया गया था जो इस साल बढ़कर 39 जगहों पर मनाया जा रहा है.
शेरी गरबा के आयोजक आशीष भट्ट का कहना है, 'इस्लाम में मूर्ति पूजा की मनाही है, जबकि गरबा शुद्ध रूप से मूर्ति पूजा है. यहां हमारी माताएं और बहनें पूजा करती हैं, गरबा करके उत्सव मनाती हैं. इन जगहों पर दूसरे धर्मों के लोगों का क्या काम? हम पारंपरिक तरीके से गरबा मनाने में विश्वास रखते हैं.'
अब बात उस बैनर की, जिसे भारत की गंगा-जमुनी तहजीब या धार्मिक सौहार्द्र को तोड़ने वाला बताया जा रहा है. इन बैनरों की आलोचना करने वालों को यह कौन समझाए कि 'लव जिहाद' या हिंदू-मुस्लिम के नाम पर राजनीतिक फायदे की बात तो स्वीकारी जा सकती है...
मारी डिकरी मारी आंख सामे
मारी डिकरी मारी नजर समक्ष
गोधरा. 2002 गुजरात दंगों का केंद्र. 40 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस जिले में ऊपर की दो लाइनों वाले बैनर जगह-जगह टंगे हैं. पिछले साल भी बैनर टंगे थे, लिखा कुछ और गया था लेकिन मकसद एक था - अपनी बेटी को अपनी आंखों के सामने रखना - मुस्लिम युवकों का गरबा में प्रवेश पर रोक, 'लव जिहाद' जैसी चीज पर रोक.
धर्मनिरपेक्ष भारत में हिंदू-मुस्लिम से जुड़ा कोई मुद्दा हो और बवाल न हो, यह हो नहीं सकता. जाहिर है पिछले साल भी बवाल हुआ था, इस साल भी शुरू हो गया है. पिछले साल हिंदू अस्मिता हित रक्षक समिति ने अकेले ही मोर्चा संभाला था, जबकि इस साल बीजेपी, आरएसएस और वीएचपी भी मैदान में कूद गई हैं. इनका मकसद है गरबे को आयोजन और बिजनेस के स्तर से हटाकर उत्सव और संस्कृति से जोड़ना.
शेरी गरबा. यह गरबे का पारंपरिक तरीका है. इसमें पंडालों या बड़े आयोजन स्थलों में एक भीड़ के तौर पर जुट कर गरबा करने के बजाय घरों, कॉलोनियों के आस-पास गलियों में छोटे-छोटे समूहों में गरबा किया जाता है. ऐसे लोगों के साथ गरबा किया जाता है, जो एक-दूसरे को जानते हैं. शेरी गरबा संवर्द्धन समिति गरबा के इसी पारंपरिक तरीके को बढ़ावा देने पर जोर देती है. पिछले साल 6 जगहों पर शेरी गरबा का आयोजन किया गया था जो इस साल बढ़कर 39 जगहों पर मनाया जा रहा है.
शेरी गरबा के आयोजक आशीष भट्ट का कहना है, 'इस्लाम में मूर्ति पूजा की मनाही है, जबकि गरबा शुद्ध रूप से मूर्ति पूजा है. यहां हमारी माताएं और बहनें पूजा करती हैं, गरबा करके उत्सव मनाती हैं. इन जगहों पर दूसरे धर्मों के लोगों का क्या काम? हम पारंपरिक तरीके से गरबा मनाने में विश्वास रखते हैं.'
अब बात उस बैनर की, जिसे भारत की गंगा-जमुनी तहजीब या धार्मिक सौहार्द्र को तोड़ने वाला बताया जा रहा है. इन बैनरों की आलोचना करने वालों को यह कौन समझाए कि 'लव जिहाद' या हिंदू-मुस्लिम के नाम पर राजनीतिक फायदे की बात तो स्वीकारी जा सकती है पर एक पिता यदि अपनी बेटी को अपनी आंखों के समक्ष रखना चाहता है, तो वो सांप्रदायिक कैसे हुआ? शायद आलोचना करने वालों की भी आलोचना का चलन कुछ ऐसे ही शुरू हुआ होगा.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.