गुलाम हसन की हल्की कंजी आंखों में एक अजब चमक थी. भले ही चेहरे पर समय ने मानों संघर्ष की लकीरें खींच दी हों. मंदिर में भक्तों का तांता था मगर हसन साहब के लिए वो मेहमान थे. रिमझिम बारिश से फर्श भी मिट्टी से नहा ली थी ,इसलिए झाड़ पोंछ में ज़्यादा मेहनत लग गई. काम खत्म हुआ तो वो सुसताने के लिए रोज़ की तरह मंदिर की चौखट पर बैठे सोच में डूब गए...
अनंतनाग में बहे यात्रियों के खून को लेकर बेचैनी भी थी. इसलिए यादें अतीत के पन्नों को पलट 90 के दशक पर ठहर गई. तब श्रद्धालुओं का इंतज़ार करते-करते दिन भर बीत जाता था. फिर रात को वो फाटक बंद करके अपनी कोठरी में चले जाते. यूं तो रात का सन्नाटा डसनेवाला होता, पर अब जब-तब गोलियों की गूंज से नींद जल्दी आ जाती थी. 'उस वक्त मिलिटेंसी कुछ ज़्यादा ही थी, बहोत ही कम लोग पहलगाम आते थे. हमलोग खुदा से यही दुआ करते कि कश्मीर पर रहमत बनाये रखे और मेहमानों का आना जाना बना रहे, मगर आज देखिये क्या हो गया....?'
कश्मीर के अनंतनाग में हुए आतंकी हमले ने कश्मीरियत पर गहरी चोट की है. मगर आतंकी ये भूल गए कि कश्मीरियत कोई पाठ नहीं बल्कि जीने का एक तरीका है और ये तरीका गुलाम हसन की ज़िंदगी मे घुला है. यहां के प्राचीन मंदिरों में चली आ रही प्रथा भी इसी आधार पर टिकी है. इतिहास गवाह है कि कश्मीर का अंदाज़ सूफियाना रहा है.
गुलाम हसन पहलगाम के गौरी शंकर मंदिर के सबसे पुराने केयरटेकर हैं और रखवाले भी. 'मंदिर में चार लोग रहते हैं. गुलाम हसन, राशिद, क़मर और मैं... एक माली हैं, एक दान की पर्चियां काटते हैं और हसन साहब मंदिर के देख रेख के इंचार्ज हैं... पर हम सभी प्रेम से रहते हैं. ये मेरा बड़ा आदर करते हैं...' ये कहते ही पंडित जी के...
गुलाम हसन की हल्की कंजी आंखों में एक अजब चमक थी. भले ही चेहरे पर समय ने मानों संघर्ष की लकीरें खींच दी हों. मंदिर में भक्तों का तांता था मगर हसन साहब के लिए वो मेहमान थे. रिमझिम बारिश से फर्श भी मिट्टी से नहा ली थी ,इसलिए झाड़ पोंछ में ज़्यादा मेहनत लग गई. काम खत्म हुआ तो वो सुसताने के लिए रोज़ की तरह मंदिर की चौखट पर बैठे सोच में डूब गए...
अनंतनाग में बहे यात्रियों के खून को लेकर बेचैनी भी थी. इसलिए यादें अतीत के पन्नों को पलट 90 के दशक पर ठहर गई. तब श्रद्धालुओं का इंतज़ार करते-करते दिन भर बीत जाता था. फिर रात को वो फाटक बंद करके अपनी कोठरी में चले जाते. यूं तो रात का सन्नाटा डसनेवाला होता, पर अब जब-तब गोलियों की गूंज से नींद जल्दी आ जाती थी. 'उस वक्त मिलिटेंसी कुछ ज़्यादा ही थी, बहोत ही कम लोग पहलगाम आते थे. हमलोग खुदा से यही दुआ करते कि कश्मीर पर रहमत बनाये रखे और मेहमानों का आना जाना बना रहे, मगर आज देखिये क्या हो गया....?'
कश्मीर के अनंतनाग में हुए आतंकी हमले ने कश्मीरियत पर गहरी चोट की है. मगर आतंकी ये भूल गए कि कश्मीरियत कोई पाठ नहीं बल्कि जीने का एक तरीका है और ये तरीका गुलाम हसन की ज़िंदगी मे घुला है. यहां के प्राचीन मंदिरों में चली आ रही प्रथा भी इसी आधार पर टिकी है. इतिहास गवाह है कि कश्मीर का अंदाज़ सूफियाना रहा है.
गुलाम हसन पहलगाम के गौरी शंकर मंदिर के सबसे पुराने केयरटेकर हैं और रखवाले भी. 'मंदिर में चार लोग रहते हैं. गुलाम हसन, राशिद, क़मर और मैं... एक माली हैं, एक दान की पर्चियां काटते हैं और हसन साहब मंदिर के देख रेख के इंचार्ज हैं... पर हम सभी प्रेम से रहते हैं. ये मेरा बड़ा आदर करते हैं...' ये कहते ही पंडित जी के चेहरे मुस्कान झलक उठी.
दहशतगर्दों ने साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की मंशा से अमरनाथ यात्रियों को निशाना बनाया. लेकिन पंडित जी और गुलाम हसन की दोस्ती इससे डिगने वाली नहीं और ना ही अब्दुल राशिद को ये नफरत की भाषा समझ में आती है. पिछले 18 साल से मंदिर के बाहर दुकान लगाते हैं. भोलेनाथ से लेकर पार्वती और हनुमान सब हैं इनके पास. 'मुझे तो कितने साल हो गए यहां दुकान लगाते, इसी से मेरे घर मे रोशनदान जलता है...' फिर एक अमरनाथ कथा की किताब उठा कर उत्साहित हो कर बोले 'देखिये ये है किताब पूरी रामायण है इसमें, ये चांदी का सिक्का है, शंकर बने हैं और वो देखिये लॉकेट है, पार्वती-शंकर का...'
गुलाम हसन, अब्दुल रशीद हो या फिर लतीफ. इनकी ही जुबानी सुन लीजिए कश्मीरीयत की कहानी. लतीफ भाई अमरनाथ हेल्पलाइन के इंचार्ज है. जब रात को उनको आतंकी हमले की खबर लगी तो वो अपनी टीम के साथ पहलगाम से अनंतनाग चले आये. रात भर अस्पताल में मरीजों की देखभाल करते रहे.
वहीं अस्पताल से कुछ किलोमीटर दूर मट्टन के इलाके में सूर्य भगवान के भव्य मंदिर के पुरोहित जी का भी कश्मीर की बदनाम छवी से उलट एक अलग अनुभव है. 1990 में जब कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ उस वक्त मंदिरों के पुजारी भी मंदिरों को छोड़कर चले गए. तब मार्तण्ड सूर्य मन्दिर के पुरोहित विमल टिक्कू भी पलायन कर गये थे. उनसे पूछा तो आरती के दियों को मांजते हुए पुरोहित जी बोले "मैं भी दो महीने के लिए चल गया था जब मैं वापस आया तो यहां पर स्थानीय लोगों ने मेरी मदद की. आज भी कश्मीरी मुसलमान इस मंदिर में आते हैं. उनके लिए भी ये विमल कुंड शुभ है और वो कोई भी अच्छा काम शुरु करने से पहले यहां मछलियों को दाना खिलाते हैं."
इन लोगों की कहानियों को सुनाए बगैर मैं रह नहीं सकती थी, क्योंकि जब 'देश हित' में हर चीज़ को सही-गलत, हां-ना, काला-सफेद में पोतने की कोशिश हो रही हो, एक नज़रिया बिके और दूसरा, तीसरा... नदारद हो तो मुझे फिर रियाज़ साहब के घर की रोटी याद आ जाती है. श्रीनगर बाढ़ की कवरेज के दैरान उनके परिवार ने तमाम मुश्किलों के बावजूद दिल खोल के मेरी मेहमाननवाज़ी की और हमें आसरा दिया... फिर तो कश्मिरियों की ज़िंदादिली को मेरा सलाम है...
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.