किंवदंती है कि पत्नी रत्नावली की 'ताड़ना' की वजह से ही तुलसीदास ने अपना पूरा जीवन राम भक्ति की ओर मोड़ लिया था. राममय होकर ही उन्होंने श्रीरामचरितमानस की रचना की, जानकी मंगल, गीतावली, विनय पत्रिका, कवितावली और हनुमान चालीसा भी रची.
ऐसा क्या डांट डपट दिया था रत्नावली ने? विवाह उपरांत एक बार तुलसीदास जी की पत्नी अपने पिता के घर चली गई. तुलसीदास जी से पत्नी से वियोग सहन नहीं हुआ और वे भी रत्नावली के पीछे-पीछे उससे मिलने पहुंच गए. तुलसीदास जी को देखकर पत्नी ने कहा "लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ता ; नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत बीता. अर्थात- रत्नावली कहती हैं मेरे इस हाड-मांस के शरीर के प्रति जितनी तुम्हारा लगाव है, उसकी आधी भी अगर प्रभु राम से होती तो तुम्हारा जीवन संवर गया होता.
किवदंती तो रत्नावली के मायके चले जाने पर शव के सहारे नदी को पार करने और सर्प के सहारे दीवार को लांघकर अपने पत्नी के निकट पहुंचने की भी है. पत्नी की फटकार ने भोगी को जोगी, आसक्त को अनासक्त, गृहस्थ को सन्यासी और भांग को भी तुलसीदल बना दिया. वासना और आसक्ति के चरम सीमा पर आते ही उन्हें दूसरा लोक दिखाई पड़ने लगा. इसी लोक में उन्हें मानस, विनयपत्रिका जैसी उत्कृष्टतम रचनाओं की प्रेरणा और सिसृक्षा मिली. वैसे गोस्वामी तुलसीदास जी की ताड़ना का तो कभी अंत रहा ही नहीं.
बचपन में ही उनकी मां चल बसी थी, दासी के हाथों ही उनका पालन पोषण हुआ था. कोई आश्चर्य नहीं कि एक प्रबुद्ध नेता या कोई उलटी खोपड़ी वाला प्रगतिशील बुद्धिजीवी अपनी कल्पना से खुलासा कर ही दे कि तुलसीदास जी ने अपनी भड़ास निकालने के लिए ही रच दिया, 'ढोल गंवार शूर्द पशु नारी; सकल...
किंवदंती है कि पत्नी रत्नावली की 'ताड़ना' की वजह से ही तुलसीदास ने अपना पूरा जीवन राम भक्ति की ओर मोड़ लिया था. राममय होकर ही उन्होंने श्रीरामचरितमानस की रचना की, जानकी मंगल, गीतावली, विनय पत्रिका, कवितावली और हनुमान चालीसा भी रची.
ऐसा क्या डांट डपट दिया था रत्नावली ने? विवाह उपरांत एक बार तुलसीदास जी की पत्नी अपने पिता के घर चली गई. तुलसीदास जी से पत्नी से वियोग सहन नहीं हुआ और वे भी रत्नावली के पीछे-पीछे उससे मिलने पहुंच गए. तुलसीदास जी को देखकर पत्नी ने कहा "लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ता ; नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत बीता. अर्थात- रत्नावली कहती हैं मेरे इस हाड-मांस के शरीर के प्रति जितनी तुम्हारा लगाव है, उसकी आधी भी अगर प्रभु राम से होती तो तुम्हारा जीवन संवर गया होता.
किवदंती तो रत्नावली के मायके चले जाने पर शव के सहारे नदी को पार करने और सर्प के सहारे दीवार को लांघकर अपने पत्नी के निकट पहुंचने की भी है. पत्नी की फटकार ने भोगी को जोगी, आसक्त को अनासक्त, गृहस्थ को सन्यासी और भांग को भी तुलसीदल बना दिया. वासना और आसक्ति के चरम सीमा पर आते ही उन्हें दूसरा लोक दिखाई पड़ने लगा. इसी लोक में उन्हें मानस, विनयपत्रिका जैसी उत्कृष्टतम रचनाओं की प्रेरणा और सिसृक्षा मिली. वैसे गोस्वामी तुलसीदास जी की ताड़ना का तो कभी अंत रहा ही नहीं.
बचपन में ही उनकी मां चल बसी थी, दासी के हाथों ही उनका पालन पोषण हुआ था. कोई आश्चर्य नहीं कि एक प्रबुद्ध नेता या कोई उलटी खोपड़ी वाला प्रगतिशील बुद्धिजीवी अपनी कल्पना से खुलासा कर ही दे कि तुलसीदास जी ने अपनी भड़ास निकालने के लिए ही रच दिया, 'ढोल गंवार शूर्द पशु नारी; सकल ताड़ना के अधिकारी.' जबकि तथ्य यही है कि उन्होंने शुद्ध संस्कृत में कही गई और पंडितों द्वारा बांची जाने वाली महर्षि वाल्मीकि की रामायण को अवधी जैसी गंवार बोली में आम आदमी की चीज़ भर बनाई थी.
पता नहीं राममय होकर प्रभु श्रीराम की भक्ति में लीन तुलसीदास से क्या अपराध हुआ कि उनकी अपनी गृह नगरी बनारस में वे पोंगापंथी पंडितों के निशाने पर आ गए थे. उनको रामभक्तों ने भी प्रताड़ित किया और शिवभक्त भी उनसे कुपित थे. उनकी सभा में पत्थर फेंके जाते थे, उन्हें डराया-धमकाया जाता था, उन्हें यदाकदा पीटा भी गया, उन्हें मारने की कोशिश भी की गई, उनकी पोथी जलाने का यत्न किया गया. राम भक्त इसलिए नाराज थे कि उन्होंने रामकथा का लोकतांत्रिकरण कर दिया, शिवभक्त नाराज़ थे कि शिव की नगरी काशी में तुलसीदास राम को शिव से बड़ा बताते थे.
दरअसल ब्रह्मलीन तुलसीदास बिलकुल हतप्रभ नहीं है आज के घटनाक्रम से. जिनकी कथा रची वो प्रभु श्री राम और सीता मैया भी राजनीति की शिकार हुई थी, वे भी तब राजनीति के शिकार हुए थे जब जिंदा थे और आज मृत्युपरांत 400-500 साल बाद एक बार फिर राजनीति की ही कुदृष्टि उन पर पड़ी है. हाँ, हनुमान तब भी बचे हुए थे और लगता है आज भी बचे हुए हैं. परंतु ऐसा कल भी रहेगा, क्या गारंटी है ? क्योंकि नेताओं की कुदृष्टि पड़ चुकी है, ख़ास जो हो गए हैं उनके. कोई आश्चर्य नहीं बयान आता ही होगा कि "हनुमान चालीसा" अंधविश्वास की पैरोकारी करती है, बढ़ावा देती है, "भूत पिशाच निकट न आवे, महावीर जब नाम सुनावे " लाउडस्पीकर में बोला जो जाने लगा है.
जिस नेता को देखो वो हनुमान को लपक रहा है. अजब गजब सी स्थिति है; आलम कुछ ऐसा है कि बजरंग बली को कहना पड़ रहा है - छोड़ते भी नहीं मेरा हाथ और थामते भी नहीं ; ये कैसी मोहब्बत है उनकी, गैर भी नहीं कहते हमें और अपना मानते भी नहीं. कुल मिलाकर फिलहाल हनुमान गदगद हैं. कल तक तो भक्त जन तभी "........भूत पिशाच निकट न आवे, महावीर जब नाम सुनावे ,,,,,," पढ़ते थे जब भयाक्रांत होते थे. अब तो पांचों वक्त हनुमान चालीसा पढ़ी जाने लगी हैं, वो भी लाउडस्पीकर में. घोर कलियुग ही है तभी तो देवी देवताओं को भी कृपा द्ष्टि की जरुरत आन पड़ी है.
पिछले दिनों राजनीति ने विशेष कृपा दृष्टि डाली थी राम भक्त महावीर हनुमान पर. चूँकि "राम" पर तो कॉपी राइट एक ख़ास पार्टी का हो गया है, अन्य पार्टियों ने भाया मीडिया का रास्ता अपनाना श्रेयस्कर समझा; वैसे भी माना तो यही जाता है कि राम तक पहुंचने के लिए पहले हनुमान के पास शरणागत होना पड़ता है. पॉलिटिक्स के लिए हनुमान को एक्सप्लॉइट सबसे पहले शायद योगी आदित्यनाथ ने ही किया था जब उन्होंने हनुमान को दलित समुदाय का बता दिया था. लेकिन बात यदि हनुमान चालीसा की करें तो इसके पाठ का दोहन सर्वप्रथम अरविन्द केजरीवाल ने किया था. फिर मुंबई के राज ठाकरे को हनुमान चालीसा याद आई.
वे भी राम के आसरे अपना राजनीतिक भविष्य तलाश रहे हैं. राम के आसरे होना मतलब बीजेपी के आसरे होना ही हुआ ना. हालाँकि ये लॉजिक केजरीवाल पर लागू नहीं होता क्योंकि वे स्वयं दिवाली मनाने अयोध्या पहुँच गए थे और दिल्ली वासियों को भी ट्रेन से अयोध्या रवाना कर दिया था. रामजी की डायरेक्ट कृपा का उन्हें विश्वास है! लेकिन "सबके अपने अपने राम" की तर्ज पर "सबके अपने अपने हनुमान" होते तो कोई बात नहीं थी. बहस राजनीति के गलियारों तक ही सीमित रह जाती; "कट्टर हिंदुत्व को हराने के लिए सॉफ्ट हिंदुत्व अपना लिया है' वाला लॉजिक ठीक वैसे ही चल जाता जैसे केजरीवाल खूब बोलते रहे पॉलिटिक्स कीचड़ है लेकिन पॉलिटिक्स में आ गए इस लॉजिक के साथ कि कीचड़ साफ़ करने के लिए कीचड़ में उतरना ही पड़ता है.
परंतु बात अज़ान - लाउड स्पीकर- हनुमान चालीसा क्योंकर हो गयी? कोई 'रॉकेट साइंस' की जरूरत नहीं है इस तुच्छ पॉलिटिक्स को समझने के लिए. मकसद "हम बनाम वो" खड़ा करना था और जस्टिफाई भी कर दिया जा रहा था पास्ट को उद्धत कर कर के. ध्यान जो भटकाना था रियल समस्याओं की तरफ से, नाकामियों की तरफ से. वास्तविक हनुमान भक्तों को पता है हनुमान चालीसा कब और क्यों पढ़ी जाती हैं; उन्हें कंठस्थ भी है. पांचों वक्त हनुमान चालीसा पढ़ने का ना तो कोई विधान है ना ही कोई औचित्य. और ना ही उद्धव ठाकरे के आवास 'मातोश्री' के दरवाजे पर हनुमान चालीसा पढ़ने का कोई औचित्य था. मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना था राणा दंपत्ति का. और लाउडस्पीकर पर पढ़ वे लोग रहे थे जिन्होंने शायद पहले कभी पढ़ी ही ना हो; पुस्तक देखकर जो पढ़ रहे थे.
एक और सच्चाई है इस कंट्रोवर्सी के पीछे की. लाउडस्पीकर तो बेचारा था , निशाना अचानक "अजान" था ; चूँकि कट्टरपंथियों को शह जो मिल रही थी, प्रोटेक्शन भी मिला हुआ था . "सबका साथ सबका विकास" और अब '...सबका विश्वास' भी एक ढकोसला मात्र है, फेस सेविंग एक्सरसाइज है. लेकिन अन्य सभी पार्टियां भी एक क्लियर स्टैंड नहीं लेती ; क्यों नहीं ले पाती, समझने के लिए, फिर वही बात, किसी 'रॉकेट साइंस' की जरूरत नहीं है.
हिंदुओं के साथ खड़े दिखने की कवायद जो है. हास्यास्पद ही था जब आज के तपस्वी, मनस्वी, यशस्वी नेता हनुमान जयंती की शुभकामनाएं दे रहे थे देशवासियों को और उनके फॉलोवर्स हनुमान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वालों का मजाक उड़ा रहे थे, "हनुमान चालीसा वालों उठ जाओ. 2 बजने वाले हैं. तुम लोग तीन बजे से ही शुरू हो जाओ. और यार नहाना ज़रूर." इसे भी फेस सेविंग एक्सरसाइज ही कहेंगे ना! राजनीति ही कहेंगे ना शिवसेना ने राज ठाकरे को बीजेपी का लाउडस्पीकर ही करार दे दिया था. लेकिन राज ठाकरे की अजान के मुकाबले लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा पढ़ने की मुहिम महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश और गोवा तक पहुंच गई थी.
पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में तो घरों पर ही लाउडस्पीकर लगाने की मुहिम शुरू हो गयी थी और शायद लग भी गए. आखिर कंट्रोवर्सी क्यों हुई ? सिर्फ और सिर्फ तुच्छ पॉलिटिक्स ही वजह थी. बनारस में भोर से ही मंदिरों के घंटे सुने जाते रहे हैं. जब श्रद्धालु आने लगते हैं, फूल माला और जल चढ़ाने के बाद हर कोई एक बार घंटा जरूर बजाता है - और पूरे शहर में न सही, लेकिन घाट किनारे बसे मोहल्ले के लोगों की नींद उसकी आवाज के साथ खुलती है. अजान की आवाज तो बाद में आती है, पहले तो कानों में घंटा-घड़ियाल ही गूंजता है.
मंदिरों में भोर की आरती के वक्त ये रोजाना की बात होती है. ये बात अलग है कि कौन सो कर उठता है? देर से सो कर उठने वालों को तो वही आवाज सुनायी देगी जो उस वक्त माहौल में गूंज रही होगी। तो फिर हाय तौबा क्यों ? दरअसल लाउडस्पीकर 'बेचारा' था , असल निशाना 'अजान' पे था. "उन्हें" लगने लगा कि "मोदी काल" में "वे" ऐसा कर सकते हैं. कहीं अत्यधिक तुष्टिकरण से उपजी कुंठा तो नहीं थी. या फिर फॉलो किया जाना था केजरीवाल जी को जिन्होंने हनुमान चालीसा पढ़ते पढ़ते दिल्ली के बाद पंजाब में भी सरकार बना ली. तभी तो देर आयद दुरुस्त आयद ही सही राज ठाकरे उम्मीद जो लगा बैठे कि अंततः उनका सोलह सालों का राजनीति में "कद" पाने का संघर्ष अब हनुमान चालीसा के बल पर फलीभूत होगा.
राजनीति कहीं हनुमान के साथ ना हो जाए ; सो याद दिला दें ऐसे बहुत लोग हैं जिनके लिए हनुमान चालीसा बरसों बरस बहुत बड़ा संबल रहा है. जैसे कोई मोटिवेशनल उपाय हो - 'संकट कटै मिटै सब पीरा...' कानों में गूंजते ही बड़ी राहत मिलती है, खास कर उन सभी को जो मुश्किलों से जूझ रहे हैं. फिर लोग सुन चुके है कैसे स्टीव जॉब्स ने हनुमान जी के मंदिर आने के बाद एप्पल सरीखी कंपनी कड़ी कर दी. फेसबुक के मार्क जकरबर्ग भी हनुमान भक्त बताये जाते है. ऑन ए लाइटर नोट, पांच वक्त हनुमान चालीसा की ये पहल भी अच्छी लगती है. चलो बहाना कोई और ही सही, लोग हनुमान चालीसा का पाठ तो कर रहे हैं.
वैसे जब पहली बार अजान कही गई थी या हनुमान चालीसा पढ़ी गई थी, लाउडस्पीकर था ही नहीं. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दक्षिणपंथयों के मुख से निकल ही गया है कि मुद्दा "अजान" है क्योंकि एलान है कि अल्लाह सबसे बड़ा है (अल्लाहु अकबर -अल्लाहु अकबर) और "मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक नहीं"(अश्हदुअल्ला इलाहा इल्लल्लाह). तर्क दिया जा रहा है कि ऐसे कैसे एलानिया कहा जा सकता है?
हालाँकि "अजान" की व्याख्या ही गलत की गई है और ऐसा करते हैं कट्टरपंथी समूह वो चाहे हिंदू हो या मुस्लिम ही हो ; आखिर धर्म की दुकान दोनों की ही चलनी जो चाहिए. सही व्याख्या अपभ्रंश क्यों कर हुई तो वजह है "अकबर" शब्द का अनर्थ किये जाने से. "अज़ान" अरबी शब्द है जिसका भावार्थ ‘पुकार कर बताना’ या ‘घोषणा करना’ है. अज़ान देकर लोगों को पुकारा, बताया, बुलाया जाता है कि नमाज़ का निर्धारित समय आ गया, सब लोग उपासना स्थल (मस्जिद) में आ जाएं. ‘अकबर’ के अरबी शब्द का अर्थ है ‘बड़ा’. यह इस्लामी परिभाषा में ईश्वर अल्लाह की गुणवाचक संज्ञा है.
इस परिभाषा में अकबर का अर्थ होता है बहुत बड़ा, सबसे बड़ा. अज़ान के प्रथम बोल हैं: ‘अल्लाहु अकबर’ अर्थात अल्लाह बहुत बड़ा/सबसे बड़ा है. इसमें यह भाव निहित है कि अल्लाह के सिवाय दूसरों में जो भी, जैसी भी, जितनी भी बुराइयां पाई जाती हैं, वे ईश-प्रदत्त हैं; और ईश्वर की महिमा व बड़ाई से बहुत छोटी, तुच्छ, अपूर्ण, अस्थायी, त्रुटियुक्त हैं. अज़ान के ये बोल 1400 वर्ष पुराने हैं. भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में नमाज़ियों को मस्जिद में बुलाने के लिए लगभग डेढ़ हज़ार साल से निरंतर यह आवाज़ लगाई जाती रही है.
यह आवाज़ इस्लामी शरीअ़त के अनुसार, सिर्फ़ उसी वक़्त लगाई जा सकती है जब नमाज़ का निर्धारित समय आ गया हो. फिर जहाँ मंदिर है वहां भी आरती समयानुसार ही होती है; जिसकी आवाज गूंजती है, आसपास तक तो कानों में जाती ही है, ठीक वैसे ही अजान की पुकार मस्जिदों से होती है तो आस पास कानों में जायेगी ही. सो आवाज स्पेसिफिक सेंटर्ड होती है ; फिर एतराज किसी को भी किसी के लिए क्यों ?
कुल मिलाकर बहुत हुआ सम्मान इन नेताओं का. इन्हें धता बताने की महती जरूरत है. समझने की आवश्यकता है कि किसी भी धर्म का, किसी भी ग्रन्थ का, किसी भी पुस्तक का किसी भी वजह से किसी भी मुहिम के तहत या नाम पर विरोध या उसे कमतर बताये जाने का कोई भी प्रयास बेमानी है, विद्वेषपूर्ण है, निहित स्वार्थवश है और इस कुत्सित मुहिम में कभी मुसलमान-हिंदू पॉलिटिकल टूल हैं तो कभी स्त्री-पुरुष तो कभी ऊंच-नीच तो कभी और कुछ. प्रार्थना ही कर सकते हैं कि सभी नेताओं को सद्बुद्धि मिले ताकि वे कम से कम सत्ता की हनक से धर्म और आस्था को परे रख बचाए रखें.
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