कॉलेज में थी, किसी ने प्लास्टिक का झंडा तिरछा लगा दिया था. भागकर ठीक करने पहुंच गयी थी. तिरंगा जैसा कुछ भी कभी ज़मीन पर गिरा दिखा तो ईश्वर की तस्वीर की तरह उसे हाथों से उठाकर किनारे कर दिया कि किसी के पैरों के नीचे न आ जाए. राजीव चौक पर जब भी वह विशाल ध्वज दिखा तो सांसों में हर्ष की गति आ गयी. यह तीन रंग हमेशा ओज भरता रहा है… तीन-चार बरस की उम्र से सीखी हुई कविता ‘केसरिया है बल भरने वाला’ कानों में बजने लगती है.
सुबह बालकनी से झांक रही थी तो दिखा सोसायटी के गेट से लेकर हर घर में तिरंगा है. कहीं आड़ा, कहीं तिरछा… एक रस्म है, लोगों ने लगा दिया है.
दो दिन पहले दिल्ली स्थित मयूर विहार फ़ेज़ 1 के चौक पर भी विशाल तिरंगा लगा है. आज ठीक वहीं फ़्लाई ओवर के नीचे सैकड़ों लोग न जाने कहां से अपना डेरा-डंडा लेकर आ पहुंचे हैं. बारिश के दिनों में जब कपड़े भी बाहर नहीं छोड़े जाते, उनके बिछौने सड़कों पर बिछ गये हैं. आंखों क ख़ुशी से कोई दुश्मनी है शायद.
मत्त होती नज़रों को ही तिरंगे के ठीक नीचे का करुण दृश्य भी दिख जाता है. तिरंगा सदा ऊंचा रहे हमारा… हमारी आन-बान-शान का यह प्रतीक दुनिया के हर कोने में, एवरेस्ट सरीखी ऊंचाइयों पर लहराता रहे…
पर काश हुक्मरान इस तिरंगे की शान में कुछ और जोड़ पाते. यह लहराता तिरंगा हर घर की शान बनता हुआ तब ज़रूर इतराता जब हर शख़्स के पास अपना मकान होता… अपनी छत होती.
हर घर तिरंगा सुनने में अच्छा लगता है, हर पेट दाना, हर सर मकान, देश के लिए अच्छा होता. यह ज़रूरी बात कि देशभक्ति थोपी नहीं जाती है. यह आड़े-तिरछे लगे तिरंगे से साबित भी नहीं हो सकती है… न जाने हम कब...
कॉलेज में थी, किसी ने प्लास्टिक का झंडा तिरछा लगा दिया था. भागकर ठीक करने पहुंच गयी थी. तिरंगा जैसा कुछ भी कभी ज़मीन पर गिरा दिखा तो ईश्वर की तस्वीर की तरह उसे हाथों से उठाकर किनारे कर दिया कि किसी के पैरों के नीचे न आ जाए. राजीव चौक पर जब भी वह विशाल ध्वज दिखा तो सांसों में हर्ष की गति आ गयी. यह तीन रंग हमेशा ओज भरता रहा है… तीन-चार बरस की उम्र से सीखी हुई कविता ‘केसरिया है बल भरने वाला’ कानों में बजने लगती है.
सुबह बालकनी से झांक रही थी तो दिखा सोसायटी के गेट से लेकर हर घर में तिरंगा है. कहीं आड़ा, कहीं तिरछा… एक रस्म है, लोगों ने लगा दिया है.
दो दिन पहले दिल्ली स्थित मयूर विहार फ़ेज़ 1 के चौक पर भी विशाल तिरंगा लगा है. आज ठीक वहीं फ़्लाई ओवर के नीचे सैकड़ों लोग न जाने कहां से अपना डेरा-डंडा लेकर आ पहुंचे हैं. बारिश के दिनों में जब कपड़े भी बाहर नहीं छोड़े जाते, उनके बिछौने सड़कों पर बिछ गये हैं. आंखों क ख़ुशी से कोई दुश्मनी है शायद.
मत्त होती नज़रों को ही तिरंगे के ठीक नीचे का करुण दृश्य भी दिख जाता है. तिरंगा सदा ऊंचा रहे हमारा… हमारी आन-बान-शान का यह प्रतीक दुनिया के हर कोने में, एवरेस्ट सरीखी ऊंचाइयों पर लहराता रहे…
पर काश हुक्मरान इस तिरंगे की शान में कुछ और जोड़ पाते. यह लहराता तिरंगा हर घर की शान बनता हुआ तब ज़रूर इतराता जब हर शख़्स के पास अपना मकान होता… अपनी छत होती.
हर घर तिरंगा सुनने में अच्छा लगता है, हर पेट दाना, हर सर मकान, देश के लिए अच्छा होता. यह ज़रूरी बात कि देशभक्ति थोपी नहीं जाती है. यह आड़े-तिरछे लगे तिरंगे से साबित भी नहीं हो सकती है… न जाने हम कब तक ओज के नाम पर भूखे पेट भजन करते रहेंगे.
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