आजकल सोशल मीडिया पर होड़ लगी है. लोग कह रहे हैं कि जब में कानून का उल्लंघन ही नहीं करूंगा तो चिंता क्यों करूं कि फाइन कितना है. शायद ये कहने की कोशिश है कि नये फाइन जायज हैं. कुछ लोग कह रह हैं कि विदेशों में भारी भरकम जुर्माना होता है हम इतने पर ही क्यों रोयें. नया मोटर व्हीकल एक्ट आने के बाद तरह तरह की बातें सामने आ रही है. इसके साथ ही दनादन चालान हो रहे हैं. किसी ऑटो वाले का 47000 का चालान हो रहा है तो किसी की 15000 की स्कूटी पर 23000 की रसीद कट रही है. एक ट्रैक्टर का तो 67000 का चालान किया गया.
लेकिन इस पूरे बहस मुबाहिसे के बीच सवाल है कि क्या इतना चालान जायज है? मैं कहता हूं कि बिल्कुल जायज नहीं है. आप विदेशों का उदाहरण देते हैं लेकिन कभी ये भी तो जानिए कि सरकार के पास कानून का पालन कराने के लिए कुछ है भी या वो सिर्फ जनता कि सिर जिम्मेदारी थोपकर नोट गिनना चाहती है.
इतना चालान लेना जायज नहीं है पार्किंग की सुविधा नहीं तो जुर्माना कैसा ??
पार्किंग की बात करें तो देश में ऐसा एक भी शहर नहीं है जिसमें मौजूदा वाहनों के हिसाब से पार्किंग हो. जब लोगों के पास वाहन पार्क करने के लिए सुविधा ही नहीं है तो फिर जुर्माना कैसा. दिल्ली के ज्यादातर मार्केट में पार्किंग का पर्याप्त इंतजाम है ही नहीं. जब इंतज़ाम नहीं कर पाते तो कहा जाता है कि कार बेचना ही बंद कर दो जिसके पास पार्किंग हो उसे ही कार मिले. ठीक है लेकिन इसके साथ ही सरकार वाहनों की बिक्री को विकास का मानक भी मानती है. खुद प्रधानमंत्री इसे रोजगार के सृजन का बड़ा तरीका बताते हैं. अब देश में वाहन इतने ज़रूरी हैं तो पार्किंग क्यों नहीं? देश के विकास में योगदान देने के लिए वाहन खरीदना भी नागरिक की जिम्मेदारी और उसे सही जगह खड़े करने की भी नागरिक की जिम्मेदारी और सही जगह नहीं हो तो जोखिम भी नागरिक का. और फिर उसके बाद सरकार के विभाग अपने रेवेन्यु का टारगेट पूरा करने के लिए सरकार धड़ा धड़ चालान काटती नज़र आती है. जहां तक सवाल पार्किंग का है तो उसका दाम भी लगातार बढ़ रहा है.
मुझे याद है एक बार में कनॉट प्लेस पर कार पार्क करके जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम किसी कार्यक्रम के लिए चला गया. जब लौटा तो पार्किंग के लिए 300 रुपये चुकाए थे. मेरे एक मित्र किसी काम से एयरपोर्ट गए. पार्किंग की फीस भरी 1400 रुपये. हर तरफ से काटने के लिए जनता ही है. सरकार कहीं तो अपनी जिम्मेदारी निभाए. एक और सच बताता हूं- दिल्ली में 90 फीसदी पर्किंग अवैध पार्किंग हैं. इनमें से भी अधिकांश पुलिसवाले चलाते हैं यानी अवैध पार्किंग करवाकर कोई पूरे दिन पैसे कमाए तो चलेगा, लेकिन अगर नागरिक कहीं गाड़ी खड़ी कर दे तो चालान.
ये न तो झूठ है न बढ़ा-चढ़ाकर बताना लेकिन कनॉटप्लेस में एक दो खाने के अड्डे ऐसे हैं जिनके सामने हर वक्त 10-15 गाड़ियां सड़क पर पार्क होती हैं. मजाल है कि कोई ट्रेफिक वाला चालान कर दे. लेकिन उसी एनडीएमसी के इलाके में स्टेट एंपोरिया कॉम्पलेक्स के पीछे अंदर की एक लेन में वाहन खड़ा करने के लिए मैं 1000 रुपये जुर्माना भर चुका हूं. जब मैंने गाडी खड़ी की तो मेरे आगे पीछे कम से कम पच्चीस टेक्सियां खड़ी थीं. मेरी गाड़ी उठाने के बाद भी वो वहीं थी और पहले भी.
खुद दिल्ली आजतक ने साउथ एमसीडी के दफ्तर के बाहर दिल्ली नगर निगम के अफसरों की गाड़ियां सड़क पर खडे होने की तस्वीर दिखाईं. अफसरों का तर्क था कि कहीं पार्किंग ही नहीं है कहां लगा दें. और तो और, जिस पटियाला हाऊस कोर्ट ने दिल्ली की सड़कों के किनारे पार्किंग करने पर सख्ती बरतने का आदेश दिया था उसके बाहर ही गाड़ियां अवैध रूप से खड़ी रहती हैं और फुटपाथ पर वकीलों के वाहनों का कब्जा है. लेकिन आप यहां पार्किंग करने का सोच भी नहीं सकते.
ये सारे उदाहरण मैं इसलिए दे रहा हूं कि इस देश में सरकार का निकम्मापन आसानी से समझा जा सकता है. ये भी समझा जा सकता है कि कैसे देश में दो तरह की नागरिकता है और दो तरह के प्रावधान हैं. आप आसानी से समझ सकते हैं कि लगभग तड़पा देने वाले जुर्माने किस पर लगेंगे. दुर्भाग्य ये है कि ज्यादातर वो लोग इन जुर्मानों के शिकार होंगे जो इन्हें भरने की हैसियत नहीं रखते. कभी वो ट्रैक्टर चलाने वाला किसान होगा तो कभी ऑटो चालक तो कभी स्कूटी वाला. इतने दिनों में आपने जानलेवा रफ्तार से गाडियां उड़ाने वाले बीएमडब्लू चालकों पर चालान की खबर नहीं सुनी होगी और उनका चालान होगा भी तो वो किसी मंत्री से फोन कराने की हालत में भी होंगे और मुंह पर जुर्माना मारने की हैसियत भी होगी.
चालान के शिकार गरीब लोग
ये इंसानियत नहीं
अब सोचिए गाड़ी पर एक खास पर्टी का झंडा लगा है तो पुलिस वाला आपको नहीं रोकता. आपकी गाड़ी पर एक नीला पीला तिकोना रंग लगा है तो चालान नहीं होता. आर्मी लिखी हुई गाड़ी से पुलिस दूर से ही बात करती है. लालबत्ती गाड़ी के नाम से पुलिस का सिर्फ सेल्यूट ही निकलता है. यानी जो चालान को बर्दाश्त नहीं कर सकता उसके सिर पर ही सबसे ज्यादा चालान है. ये कहां कि इंसानियत है?
सरकार समर्थक विचारधारा के लोगों की समस्या ये है कि वो हर सरकारी आदमी को महात्मा मानते हैं उत्तर प्रदेश में अपराध खत्म करने के लिए उन्होंने मुठभेड़ को महान कदम बताया. नतीजा क्या हुआ जिसे चहो पकड़ लो. एक दिन पहले एसपी साहब पच्चीस या पचास हज़ार का इनाम रख देते हैं, दूसरे दिन उस बेचारे का ऑपरेशन लंगड़ा हो जाता है. खबर छपती है मुठभेड़ में इनामी बदमाश गिरफ्तार. पहले तो कई ऐसे मार भी दिए गए. जिसका कभी कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं रहा वो इनामी बदमाश होकर गोलियां खा रहा है.
अब चालान को बदलाव का माध्यम बताया जा रहा है. हालत ये है कि पुलिस इसे उत्पीड़न का एक बड़ा हथियार बनाकर पेश करेगी. पुलिस की ताकत को बढ़ा दिया गया है. ये भारत के न्याय के मूल सिद्धांत के खिलाफ है. सरकार के पास न्याय करने की शक्ति नहीं होनी चाहिए. वो न्यायपालिका के पास है लेकिन यहां पुलिस का हवलदार दंड दे रहा है. गुरुग्राम में जिन ऑटो चालकों के चालान हुए जिन पर 37 और 47 हज़ार का जुर्माना लगाया गया उनके पास कागज़ात थे. मीडिया को उन्होंने सभी कागज़ दिखाए लेकिन इन्हीं कागजात के न होन पर चालान हुआ. इन ऑटो ड्राइवर्स के पास रोने के सिवा कोई विकल्प नहीं था. पुलिस के जवानों ने बहस करने पर थप्पड़ भी लगाए. जो शख्स एक कमरे के मकान में किराये पर रहता है उसके पास दूसरे दिन की रोटी का जुगाड़ नहीं होता, बीमार पड़ जाए तो परिवार के भूखे मरने की नौबत आ जाती है वो इस दंड के बाद क्या करेगा. वो पुलिसवाले की हर बात मानेगा. चुपचाप रकम पहुंचा देगा. हफ्ता देगा. वही लाल बत्ती जंप करेगा. वैसे ही दो की जगह चार सवारी बैठाएगा. वैसे ही डग्गामारी करेगा.
अगर आप वाकई चाहते हैं कि लोग उल्लंघन न करें तो अर्थ दंड से ज्यादा दूसरी व्यवस्थाओं पर जोर दें. आप टिकट जनरेट करें. सिपाही को कंपाउंडिंग देने का सिस्टम खत्म कर दें. जिसे दंड भरना है कोर्ट जाकर भरे. जब चालान होगा और दो दिन कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ेंगे तो अमीर और गरीब सबको बराबर कष्ट होगा. तब 200 रुपये के जुर्माने पर पुलिस वाला भी वसूली नहीं कर पाएगा और दो सौ रुपये चुकाने की मशक्कत से देश बचेगा.
चालान को बदलाव का माध्यम बताया जा रहा है
लोगों की सुरक्षा के नाम पर ज्यादती
सेफ्टी के नाम पर आपको चालान चिपाकाया जाता है. पहले हैलमेट न पहनने पर जो जुर्माना लगता था अब उससे दस गुना है. मैंने एक बार एक बेहद सीनियर ट्रैफिक अफसर से इस बारे में सवाल पूछा. मैंने कहा कि ये क्या नागरिकों को निजी जीवन में सरकार की दखलंदाजी नहीं है. तो तर्क दिया गया कि मृतक के परिवार के लोग भी भारत के ही नागरिक हैं. उनकी सामाजिक सुरक्षा के लिए सरकार हैलमेट और सीटबेल्ट का चालान करती है.
ये तो मज़ाक है. आप उसके परिवार की चिंता कर रहे हैं लेकिन उसे तेज़ रफ्तार कारें दे रहे हैं. उसे एयर बैग दे रहे हैं. उसे सीट बैल्ट दे रहे हैं. उसे हैलमेट दे रहे हैं ताकि वो पूरी तरह सुरक्षित महसूस करे और बेखौफ होकर हवा से बाते करें. क्यों नहीं आप स्टियरिंग पर कुछ शूल लगाते कि अगर रफ्तार बढ़ाई तो हादसे में बहुत दर्द होगा तो लोग आराम से चलें.
इसे छोड़ भी दें तो क्या कभी सोचा कि सड़कों पर बेखौफ घूमते सांड और गाय क्या लोगों के जीवन के लिए खतरा नहीं हैं. क्या सड़क के गड़डे लोगों के जीवन के लिए खतरा नहीं है. मुझे याद नहीं आता कि 2014 से आजतक दिल्ली मे एक बार भी आवारा पशुओं के खिलाफ अभियान चला हो. लेकिन आपको रेवेन्यु चाहिए वो पूरा मिले. कमाई मोटी होनी चाहिए, जनता पर क्या बीतती है उससे आपको क्या.
जब में ये लिख रहा हूं कुछ ज्ञानी कमेंट करने को आतुर होंगे कि गरीब मेट्रो से क्यों नहीं जाते. याद कीजिए कि दिल्ली में मेट्रो के दाम कैसे बेतहाशा बढ़ाए गए. लोगों को मजबूर किया गया कि वो अपने वाहनों से जाएं. मेट्रो की राइडरशिप भी कम हुई. अब जब महिलाओं को मुफ्त मेट्रो यात्रा की बात हो रही है तो उसमें भी रुकावटें हैं.
निचोड़ ये सरकार तय कर ले कि उसे करना क्या है. संभ्रांत और अमीर भारत के हित साधने वाली व्यवस्था और उनके फायदे के नियम कब तक चलेंगे. अगर आप चाहते हैं कि गरीब और निम्नमध्य लोग सड़क पर निकलना बंद कर दें और अमीरों की कारें आसानी से चल सकें तो आप मुगालते में हैं. देश लोगों से चलता है. जनता अब तक सिर्फ अपने कष्ट को अभिव्यक्ति दे रही है लेकिन संगठित होना शरू हुई तो फिर दिक्कत होगी.
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