ईरान में हिजाब की होली जलते देखकर मेरे दिल को बड़ी ख़ुशी मिली है. मुसलमान औरतें ख़ुद आगे बढ़कर ग़ुलामी और भेदभाव के इस प्रतीक को स्वाहा कर रही हैं. मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि इस्लाम- या उस जैसी दूसरी दक़ियानूसी चीज़ों में बदलाव भीतर से ही आ सकता है, ऊपर से इसे आप थोप नहीं सकते. समाज ख़ुद ही अपने को भीतर से सुधारता है. वह ऐसा तब करता है, जब वह बौद्धिक और मानसिक रूप से विकसित होता है और मनुष्य होने के अर्थों को समझता है. हिजाब हर मायने में एक मानव-विरोधी और स्त्रीविरोधी परम्परा है. वह स्त्री को हीन समझती है और उसे पुरुष की निजी सम्पत्ति घोषित करती है, जिसे दूसरों की नज़रों से ख़ुद को छुपाना है. यह स्त्री को यौनदासी समझने वाली पुरुषसत्ता है, जो मज़हब की आड़ में इतनी महिमामण्डित हो जाती है कि उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष भी समर्थन करने लगते हैं.
यही तो दुविधा है कि आज हिजाब के पक्ष में दक़ियानूसी ही नहीं, सुशिक्षित, बौद्धिक उदारवादी भी तर्क देते हैं. मैंने नारीवादियों को भी हिजाब का समर्थन करते देखा है. उनके तर्क का आधार क्या है? आधार के दो बिंदु हैं- व्यक्तिगत चयन और संवैधानिक अधिकार. कहा जाता है कि पोशाक का चयन एक निजी अधिकार है और संविधान ने सबको अपना धर्मपालन करने की आज़ादी है.
ऐसे में अगर लड़कियां ख़ुद ही बोल दें कि हम हिजाब पहनना चाहती हैं- जैसा कि कर्नाटक की छात्राओं ने कहा था- तो तकनीकी रूप से आप उन्हें कैसे चुनौती देंगे? तब तो पुरुषसत्ता की बांछें खिल जाती हैं. जब कोई ख़ुद ही ग़ुलाम रहना चाहे, बेड़ियां खनकाकर दुनिया को दिखाने लगे और दोयम दर्जे का रहकर ही ख़ुश हो तो शोषकों को और क्या चाहिए?
वे बड़ी कुटिलता से कहते हैं कि यह ताे...
ईरान में हिजाब की होली जलते देखकर मेरे दिल को बड़ी ख़ुशी मिली है. मुसलमान औरतें ख़ुद आगे बढ़कर ग़ुलामी और भेदभाव के इस प्रतीक को स्वाहा कर रही हैं. मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि इस्लाम- या उस जैसी दूसरी दक़ियानूसी चीज़ों में बदलाव भीतर से ही आ सकता है, ऊपर से इसे आप थोप नहीं सकते. समाज ख़ुद ही अपने को भीतर से सुधारता है. वह ऐसा तब करता है, जब वह बौद्धिक और मानसिक रूप से विकसित होता है और मनुष्य होने के अर्थों को समझता है. हिजाब हर मायने में एक मानव-विरोधी और स्त्रीविरोधी परम्परा है. वह स्त्री को हीन समझती है और उसे पुरुष की निजी सम्पत्ति घोषित करती है, जिसे दूसरों की नज़रों से ख़ुद को छुपाना है. यह स्त्री को यौनदासी समझने वाली पुरुषसत्ता है, जो मज़हब की आड़ में इतनी महिमामण्डित हो जाती है कि उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष भी समर्थन करने लगते हैं.
यही तो दुविधा है कि आज हिजाब के पक्ष में दक़ियानूसी ही नहीं, सुशिक्षित, बौद्धिक उदारवादी भी तर्क देते हैं. मैंने नारीवादियों को भी हिजाब का समर्थन करते देखा है. उनके तर्क का आधार क्या है? आधार के दो बिंदु हैं- व्यक्तिगत चयन और संवैधानिक अधिकार. कहा जाता है कि पोशाक का चयन एक निजी अधिकार है और संविधान ने सबको अपना धर्मपालन करने की आज़ादी है.
ऐसे में अगर लड़कियां ख़ुद ही बोल दें कि हम हिजाब पहनना चाहती हैं- जैसा कि कर्नाटक की छात्राओं ने कहा था- तो तकनीकी रूप से आप उन्हें कैसे चुनौती देंगे? तब तो पुरुषसत्ता की बांछें खिल जाती हैं. जब कोई ख़ुद ही ग़ुलाम रहना चाहे, बेड़ियां खनकाकर दुनिया को दिखाने लगे और दोयम दर्जे का रहकर ही ख़ुश हो तो शोषकों को और क्या चाहिए?
वे बड़ी कुटिलता से कहते हैं कि यह ताे लड़कियों की व्यक्तिगत पसंद है कि वो हिजाब पहनती हैं (अलबत्ता इसका यह मतलब नहीं निकालना चाहिए कि वे व्यक्तिगत चयन के पक्षधर हैं, वे बस इस तर्क का अपने पक्ष में सुविधाजनक रूप से इस्तेमाल करना पसंद करते हैं). ऐसे में अगर लड़कियां ही इस हिजाब को उतारकर फेंक दें और उसमें आग लगा दें तो वो क्या कहेंगे?
मैं जानता हूं आज ईरान की घटनाओं के बाद अनेक घरों में लड़कियों पर किस तरह का दबाव बनाया जा रहा होगा कि वे भूलकर भी ऐसी ग़लती न करें और भले उन्हें हिजाब पहनना अच्छा न लगता हो, प्रकट में वो यही कहें कि यह हमारी अपनी पसंद है. वो वैसा नहीं कहेंगी तो नैरेटिव ध्वस्त हो जाएगा.
किन्तु मुसीबत यह है कि ये हिजाब-बुर्क़ा वग़ैरा पूरी तरह से अस्वाभाविक परिधान हैं. कोई भी स्त्री अपनी इच्छा से इसे नहीं पहन सकती. इन्हें केवल मुस्लिम स्त्रियां ही पहनती हैं और एक मज़हबी ड्रेसकोड के हवाले से पहनती हैं- उन्हें यह पहनने के लिए आदेशित-निर्देशित किया जाता है. अगर यह सच में ही पर्सनल चॉइस होती तो दुनिया के दूसरे धर्मों-सम्प्रदायों की लड़कियां भी इस फ़ैशन को आज़माकर देखतीं,
जैसे कि वे स्कर्ट, जींस, साड़ी, सलवार आदि पहनती हैं. मैंने आज तक किसी ग़ैर-मुस्लिम लड़की को अपनी पसंद से हिजाब या बुर्क़ा पहनते नहीं देखा. यह कैसी व्यक्तिगत स्वतंत्रता हुई? और यह स्वतंत्रता केवल लड़कियों के लिए ही क्यों है, पुरुष क्यों नहीं अपने शरीर को इस तरह से छुपाते हैं? स्त्रियों के शरीर में ऐसा क्या है, जो उसे कोई पराया मर्द देख लेगा तो आफत आ जाएगी?
ईरान में 22 वर्षीय माहसा अमीनी की मौत के बाद यह एंटी-हिजाब आंदोलन शुरू हुआ है. ईरान का एक प्रोग्रेसिव इतिहास रहा है. वह अरबों जैसा पिछड़ा मुल्क कभी नहीं था. 1979 से पहले तक तो वो बड़ा तरक़्क़ीपसंद था. खोमैनी की इस्लामिस्ट रिवोल्यूशन इस मुल्क को सैकड़ों साल पीछे ले जाने का मनसूबा बांधे हुई थी, लेकिन मौजूदा आंदोलन बताता है कि आप किसी देश-समाज के डीएनए को इतनी आसानी से नहीं बदल सकते.
वो बग़ावत करता ही है. देर-अबेर तुर्की भी बग़ावत करेगा, क्योंकि वो भी बड़ा प्रोग्रेसिव मुल्क बीसवीं सदी में रहा है. ईरान में 2017 से ही निरंतर मास-प्रोटेस्ट वग़ैरा हो रहे हैं. इस बार ख़ासियत यह है कि औरतें सड़कों पर उतरी हैं. पड़ोसी अफ़गानिस्तान के तालिबानियों तक उनकी आवाज़ पहुंचे तो बेहतर. औरतें अपने बाल काट रही हैं और जहन्नुम में जाओ के नारे लगा रही हैं.
वो कह रही हैं कि हम दोयम दर्जे की ज़िंदगी नहीं जीएंगी. सभी ने इस ख़याल से इत्तेफ़ाक़ रखना चाहिए. सनद रहे कि लिबरलिज़्म अवसरवादी नहीं हो सकता और नाम देखकर तिलक नहीं कर सकता. अगर आप रौशन-ख़याल हैं तो ज़िंदगी के हर मोर्चे पर वैसे होंगे, दो जगहों पर दो तरह के बयान नहीं देंगे.
चुनांचे, लिबरल होकर आप यह नहीं कह सकते कि किन्हीं समुदायों को धर्म-पालन की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए, क्योंकि धर्मों का मूल स्वरूप मानवद्रोही और स्त्रीविरोधी है, और वे पुरातनपंथी, मध्ययुगीन विचारों से भरे हुए हैं. वैसे में धर्म-पालन की आज़ादी लिबरल ह्यूमनिज़्म के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध होगी. लिबरलिज़्म की तो बुनियादी लड़ाई मज़हबों से होनी चाहिए.
कर्नाटक की लड़कियों के हिजाब पहनने के पक्ष में उदारवादियों-नारीवादियों को दलीलें करते देख मेरा मन उदास हो गया था, अब हिजाब की होली जलते देख कुछ ठीक महसूस हुआ है. कलेजे को ठंडक मिली. पूरी दुनिया में इसी तरह से इस्लाम के भीतर से ही विद्रोह की आवाज़ें उठें और औरतें, बच्चे, नौजवान एक वृहत्तर मनुष्य-सभ्यता का हिस्सा बनने को व्याकुल हों- तो बेड़ियां टूटने में क्या देर लगेगी? शाब्बाश, ईरान!
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