घूंघट करने वाली औरतों को गौर से देखिए, अपना काम निबटाते हुए भी उनका ध्यान इसी बात पर रहेगा कि सिर से पल्लू न सरक जाए. उन्हें कोई बिना पल्लू के देख न ले. कोई ये न समझ ले कि वो नंगे सिर घूम रही है. जी हां, 'नंगे' सिर. पुरुषों के समाज में महिलाओं के लिए दायरे बहुत सख्ती से खींचे गए हैं. उससे बाहर आने का मतलब 'नंगापन'. औरतों को धार्मिक-सामाजिक हिदायत है कि वे इस नंगेपन से दूर रहें. और वे जीवन गुजार देती हैं इन्हीं हिदायतों का पालन करने में. पुरुषों की कसौटी पर खरा उतरने में.
ऐसी ही हिदायत हिजाब को लेकर भी है. यूं तो शालीनता की हिदायत पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए है. लेकिन, इसका भार उठाया महिलाओं ने ही है. वरना, क्या मजाल थी कि कर्नाटक कांग्रेस का एक विधायक जमीर अहमद ये कहता कि देश में रेप के मामले सबसे ज्यादा इसलिए हैं, क्योंकि यहां महिलाएं हिजाब नहीं पहनती.
निर्भया का बलात्कारी राम सिंह भी यही बात कहता था कि यदि लड़कियां छोटे कपड़े पहनेंगी तो रेप तो होंगे ही. जब जमीर अहमद और राम सिंह जैसे लोग, जो लड़कियों के पहनावे को उनकी इज्जत की गारंटी/खतरा मानते हैं, तो लड़कियों के पास दो ही रास्ते हैं. या तो वे 'मर्दों' की दुनिया में अपना वजूद सरेंडर कर दें. अपनी महत्वाकांक्षाओं को मारकर खुद को सिर से पांव तक ढंक लें. या सब मिलकर बाहर निकलें, पूरी पहचान के साथ.
धर्म, समुदाय, जाति के बंधन से परे एक होकर कहें कि 'हम एक हैं'. हमारी पहचान एक ही है- 'हम सब औरतें हैं'. जिनके सपने पुरुषों की इच्छाओं और हिदायतों से परे हो सकते हैं. उनके सपनों में ही उनका अस्तित्व है. वो अस्तित्व जो घूंघट या पर्दे में ढंका हुआ नहीं है. जहां तक हिजाब का बात है तो पुरुष अपनी वासनाओं को हिजाब में रखें.
बजाय औरतों पर ये बात लाजिम करने के, कि वे अपना सौंदर्य अपने शौहर को ही दिखाएं, पुरुष अपने ऊपर ये जिम्मेदारी ले लें कि वे अपनी पत्नी का ही सौंदर्य निहारेंगे. लेकिन ऐसा होगा नहीं. पुरुषों ने अपनी दुनिया बहुत सुविधा से बनाई है. जिसमें औरतें उसकी जागीर...
घूंघट करने वाली औरतों को गौर से देखिए, अपना काम निबटाते हुए भी उनका ध्यान इसी बात पर रहेगा कि सिर से पल्लू न सरक जाए. उन्हें कोई बिना पल्लू के देख न ले. कोई ये न समझ ले कि वो नंगे सिर घूम रही है. जी हां, 'नंगे' सिर. पुरुषों के समाज में महिलाओं के लिए दायरे बहुत सख्ती से खींचे गए हैं. उससे बाहर आने का मतलब 'नंगापन'. औरतों को धार्मिक-सामाजिक हिदायत है कि वे इस नंगेपन से दूर रहें. और वे जीवन गुजार देती हैं इन्हीं हिदायतों का पालन करने में. पुरुषों की कसौटी पर खरा उतरने में.
ऐसी ही हिदायत हिजाब को लेकर भी है. यूं तो शालीनता की हिदायत पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए है. लेकिन, इसका भार उठाया महिलाओं ने ही है. वरना, क्या मजाल थी कि कर्नाटक कांग्रेस का एक विधायक जमीर अहमद ये कहता कि देश में रेप के मामले सबसे ज्यादा इसलिए हैं, क्योंकि यहां महिलाएं हिजाब नहीं पहनती.
निर्भया का बलात्कारी राम सिंह भी यही बात कहता था कि यदि लड़कियां छोटे कपड़े पहनेंगी तो रेप तो होंगे ही. जब जमीर अहमद और राम सिंह जैसे लोग, जो लड़कियों के पहनावे को उनकी इज्जत की गारंटी/खतरा मानते हैं, तो लड़कियों के पास दो ही रास्ते हैं. या तो वे 'मर्दों' की दुनिया में अपना वजूद सरेंडर कर दें. अपनी महत्वाकांक्षाओं को मारकर खुद को सिर से पांव तक ढंक लें. या सब मिलकर बाहर निकलें, पूरी पहचान के साथ.
धर्म, समुदाय, जाति के बंधन से परे एक होकर कहें कि 'हम एक हैं'. हमारी पहचान एक ही है- 'हम सब औरतें हैं'. जिनके सपने पुरुषों की इच्छाओं और हिदायतों से परे हो सकते हैं. उनके सपनों में ही उनका अस्तित्व है. वो अस्तित्व जो घूंघट या पर्दे में ढंका हुआ नहीं है. जहां तक हिजाब का बात है तो पुरुष अपनी वासनाओं को हिजाब में रखें.
बजाय औरतों पर ये बात लाजिम करने के, कि वे अपना सौंदर्य अपने शौहर को ही दिखाएं, पुरुष अपने ऊपर ये जिम्मेदारी ले लें कि वे अपनी पत्नी का ही सौंदर्य निहारेंगे. लेकिन ऐसा होगा नहीं. पुरुषों ने अपनी दुनिया बहुत सुविधा से बनाई है. जिसमें औरतें उसकी जागीर हैं. और औरतों की कंडिशनिंग कुछ इस तरह की गई है कि वे अपना वजूद पुरुषों के द्वारा तय की गई हद से बाहर जाकर न बना पाएं. तो क्या औरतें खुद को सरेंडर कर दें?
...लड़कियां खुद 'चीज' बनने पर आमादा क्यों हैं!
कर्नाटक के उडुपी से उठे हिजाब विवाद में एक पोस्टर सामने आया है. उस पर बुर्के वाली लड़कियां हैं. एक तरफ लिखा है 'Hijab is our right' और दूसरी तरफ लिखा है 'हर कीमती चीज़ पर्दे में होती है'. इस जुमले में 'चीज़' शब्द मेरे गले में फंस गया है. बात सिर्फ लिबास की होती तो हर्ज नहीं था. पहचान का मुद्दा भी समझ आता है. लेकिन, इस विवाद का निचोड़ यदि लड़कियों के 'चीज' बन जाने में है, तो मामला खतरनाक है.
वे जो हमेशा से चीज बनाकर रखी गईं, अब वो उसी की मांग क्यों कर रही हैं? इन लड़कियों से पूछना चाहता हूं कि पर्दे के पीछे चले जाना कौन सा मुश्किल काम है? हौंसला तो पर्दा चीर देने के लिए चाहिए. खैर, किसी वजह से पर्दे की ही जिद है तो ये ही सही. पर्दे में चली जाओ, अपने आप चीज बनी रहोगी. इस खुशख्याली में ही सही, कि तुम कीमती हो.
(वैसे पर्दे के पीछे एक औरत की कितनी कीमत होती है, इसका अंदाजा कुछ आंकड़ो से समझा जा सकता है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे कहता है कि 37.6 फीसदी विवाहित मुस्लिम महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हैं. जिसमें मानसिक, शारीरिक और यौन हिंसा शामिल है. तीन तलाक कानून आने से पहले पहले तकरीबन 65.9 फीसदी महिलाओं का तलाक जुबानी हुआ है, जबकि 78 फीसदी का एकतरफा ही. जहां तक रेप की बात है, तो हिंदुस्तान में 95 फीसदी यौन प्रताड़ना नजदीकी लोगों और रिश्तेदारों से ही मिली है.)
-हिजाब या बुर्के में रहने की जिद पकड़े बैठी इन लड़कियों से अर्ज है कि उस पर्दे के पीछे से उन लड़कियों के बारे में जरूर सोचना जो मर्दों की इस दुनिया मे चीज बनकर रहना नहीं चाहतीं. जो अपने चेहरे को पहचान दिलाकर ये साबित करना चाहती है कि वो महज एक चीज नहीं हैं. जो मर्दों की आंख में आंख मिलाकर कहना चाहती हैं कि उसने घूंघट या हिजाब न लेकर कोई नंगई नहीं की है. और यदि ये नंगई है भी, तो इस पर टोकने का किसी मर्द को अधिकार नहीं है.
-हिजाब-बुर्के की जिद पकड़े लड़कियों, क्या तुमको अंदाजा है कि तुम्हारी ही बस्ती से बिना हिजाब निकलने वाली लड़की या औरत अब किस तरह जज की जाएगी? औरत होने के नाते वो तो पहले भी घूरी जाती थी, और अब तो दीन की नजर से गुनाहगार भी होगी. हिजाब का 'फर्ज' जो नहीं निभा रही है.
-पर्दे के पीछे से तुम उन लड़कियों-औरतों के बारे में भी सोचना जो अभी हाल ही में तीन-तलाक़ की जंग लड़कर बैठी हैं. ये उन्होंने तुम्हारे लिए भी किया है. ये पर्दे के पीछे की ही जिंदगी थी, जिसकी काल कोठरी में तीन तलाक, हलाला जैसे रोग पनप रहे थे. आज कुछ राहत की सांस मिली है तो पीठ उन लड़कियों की थपथपाई जाना चाहिए जो पर्दे से बाहर आई थीं. अपना वो चेहरा दिखाया था, जिस पर जुल्मों के निशान थे. सिर उठाकर अपना हक मांगा था.
-पर्दे के पीछे से उन मर्दों के बारे में भी सोचना जो तुम्हारे पर्दे के पीछे चले जाने की तारीफ कर रहे हैं. तुम्हें शाबाशी और ईनाम दे रहे हैं. वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? कुछ दिन पहले यही मर्द तीन तलाक और हलाला के खिलाफ आवाज उठाने वाली महिलाओं को लेकर क्या कह रहे थे? इन मर्दों का क्या रवैया था शाह बानो के खिलाफ? शाह बानो ने तो पहले पर्दे के पीछे से ही इंसाफ मांगा था न. नहीं मिला तो बेचारी कोर्ट गई थी. उस पर्दानशी की कौन सी गत नहीं हुई. पर्दानशी से याद आया, इन मर्दों का चेहरा देखना जब इनके सामने ये गाना बजे- 'पर्दा है पर्दा, पर्दे के पीछे पर्दानशी है. पर्दानशी को बेपर्दा न कर दूं तो अकबर मेरा नाम नहीं...'. इन मर्दों के दो चेहरे हैं. ठरक में पर्दानशी को बेपर्दा करने वाले अकबर होंगे, और यदि औरत को दायरा बताना होगा तो 'अल्लाहो-अकबर' वाले अकबर.
ये मर्द हिजाब और बुर्के को च्वाइस का मसला बताकर अजीबोगरीब मिसालें देंगे, लेकिन ये नहीं बताएंगे कि ईरान-अफगानिस्तान में हिजाब न पहनने वाली महिलाओं को 20-20 साल कैद की सजा क्यों हो रही है? वे या तो लिबास की कैद में रहेंगी या सरकारी कैद में.
पर्दा हदबंदी है. जो किसी को बिना बताए किया जाए तो आत्मनियंत्रण है. लेकिन, किसी के इशारे पर हो तो वो कैद है. कैद में शान नहीं होती. कैद कीमती भी नहीं होती. कैद में अंधेरा होता है. वजूद को गुम कर देने वाला अंधेरा.
अब पॉलिटिक्स की बात...
मानता हूं कि इन दिनों हिंदू-मुस्लिम वाली राजनीति अपने उफान पर है. दोनों ओर से अपनी पहचान स्थापित करने की लड़ाई चल रही है. ऐसे में औरतों के लिए होशियारी इसमें थी कि वे इस खोखली सियासत का हिस्सा बनने के बजाए अपने भविष्य को सुनहरा बनाने वाले मुद्दे खोजतीं. वे बजाए हिजाब या बुर्के को चुनने के, इकट्ठा होकर सड़क पर आतीं और अपने लिए बेहतर सुरक्षा इंतजामों का नारा बुलंद करतीं. वे औरतों को बराबरी का हक दिलाने की आवाज उठातीं. लेकिन, उन्होंने निराशाजनक ढंग से खुद को मजहबी पहचान में ढालना चुना. पहनावे की जिन रूढि़यों को तोड़ने का संघर्ष चल रहा था, वो उसके खिलाफ चल पड़ीं.
वैसे असली गुनाहगार तो वो सियासतदान ही हैं, जिन्होंने औरतों को भी पहचान की राजनीति का हिस्सा बना लिया. ताकि वे अपना जायज हिस्सा न मांग पाएं. उन्हें संपत्ति में बराबर का हक देने के बजाए मजहबी हक मांगने के लिए उकसाया. मजहबी पहचान के चक्कर में रूढीवाद को ओढ़ने जा रही लड़कियां ये भूल रही हैं कि आज जो सियासत चल रही है, यदि इसकी हवा बदली तो क्या वे आज के अपने फैसले को पलट पाएंगी?
आज जो मर्द उन्हें हिजाब पहनने पर ईनाम दे रहे हैं, क्या उन्हें कह पाएंगी कि अब उनको अपनी पहचान पर संकट नजर नहीं आता, इसलिए बुर्का नहीं पहनेंगी. सियासी हवा पांच साल में बदली जा सकती है, लेकिन सामाजिक बदलाव का संघर्ष पीढि़यां खा जाता है.
***
इन लड़कियों ने यदि खुद को रूढ़ी की कैद में बंद कर लिया तो हाय उन्हें भी लगेगी, जो इन्हें आज विरोधी मानकर कोस रहे हैं. यदि बुर्के या हिजाब की जिद किसी टकराव की उपज है, तो इन लड़कियों को अहसास करवाइये कि उनके आजाद-उज्ज्वल भविष्य से बढ़कर कुछ नहीं है. भारत की तरक्की पीछे जाने में नहीं है. समाज के हर वर्ग को पूरी सहानुभूति और सहयोग के साथ इन लड़कियों से संवाद स्थापित करना चाहिए. हिजाब, बुर्का, घूंघट कुरीति है. इसे पवित्र मानना अपनी अक्लमंदी को सती करना साबित होगा.
चलते-चलते इस्मत चुगताई की बात. यदि आज वे जीवित होतीं तो हिजाब के लिए जिद पकड़े लड़कियों से कहतीं- 'मरजानियों कब तक वहीं पड़ी रहोगी. इस जहनी कैद से बाहर आ जाओ.'
ये भी पढ़ें -
Hijab Row: हिजाब का हक जीत कर भी औरतें सिर्फ हारेंगी!
'पंक्चर' बनाने वाली जाहिल क़ौम के लिये सस्ता मनोरंजन नहीं है हिजाब का मुद्दा
लुधियाना में हज़ारों मुस्लिम महिलाओं का हिजाब मार्च कहानी में नया ट्विस्ट है!
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.