आज 14 सितम्बर है और आज हम अपने ही देश में 'हिंदी दिवस' मनाते हैं. हिंदी दिवस को मनाना कहीं न कहीं हमें सोचने पर मजबूर करना चाहिए, क्या अपने ही देश में अपनी एक सबसे महत्वपूर्ण भाषा का दिवस होना चाहिए. क्या किसी और देश में ऐसा होता है, क्या चीन में ऐसा होता है, क्या फ्रांस में ऐसा होता है या क्या नेपाल में भी ऐसा होता है. शायद इस सबका जवाब नहीं ही है, शायद ही कोई अन्य देश अपनी ही भाषा के लिए कोई दिवस मनाता हो. मैंने दक्षिण अफ्रीका में भी लगभग 4 साल बिताये थे लेकिन वहां भी ऐसा कुछ नहीं मनाया जाता था. ऐसा नहीं है कि वहां पूरे देश में सिर्फ एक ही भाषा बोली जाती है, वहां 'पेड़ी', 'सोथो', 'अफ्रीकांस', 'जुलु', 'खोसा', 'स्वाना' और 'अंग्रेजी' प्रमुख भाषाएं हैं जो बोली और लिखी पढ़ी जाती हैं. लेकिन किसी भी भाषा का कोई दिवस वहां नहीं मनाते हैं. वैसे इसके पीछे कुछ कारणों को भी देखना जरुरी है. किसी भी देश का अस्तित्व उसके भाषा और संस्कृति पर निर्भर करता है. और यह एक और चीज से भी प्रभावित होता है और वह कारण यह है कि क्या वह देश किसी अन्य देश का गुलाम रहा है या नहीं. समय के साथ हर चीज में बदलाव आता है, चाहे वह संस्कृति हो या भाषा. और अगर वह देश किसी अन्य देश का गुलाम रहा हो तो जाहिर है कि उसकी भाषा और संस्कृति में परिवर्तन आएगा.
हर शासक अपने गुलाम देश का पूरी तरह से शासन करने के लिए न सिर्फ वहां की भाषा और संस्कृति को अपनाता है. बल्कि धीरे धीरे उस गुलाम देश की भाषा और संस्कृति को अपने हिसाब से बदलता है. धीरे धीरे गुलाम देश की जनता अपने शासक की भाषा और संस्कृति अपना लेती है और वह अपनी संस्कृति को भूलने लगती है. हिन्दुस्तान भी इसका ज्वलंत उदाहरण है क्योंकि यह...
आज 14 सितम्बर है और आज हम अपने ही देश में 'हिंदी दिवस' मनाते हैं. हिंदी दिवस को मनाना कहीं न कहीं हमें सोचने पर मजबूर करना चाहिए, क्या अपने ही देश में अपनी एक सबसे महत्वपूर्ण भाषा का दिवस होना चाहिए. क्या किसी और देश में ऐसा होता है, क्या चीन में ऐसा होता है, क्या फ्रांस में ऐसा होता है या क्या नेपाल में भी ऐसा होता है. शायद इस सबका जवाब नहीं ही है, शायद ही कोई अन्य देश अपनी ही भाषा के लिए कोई दिवस मनाता हो. मैंने दक्षिण अफ्रीका में भी लगभग 4 साल बिताये थे लेकिन वहां भी ऐसा कुछ नहीं मनाया जाता था. ऐसा नहीं है कि वहां पूरे देश में सिर्फ एक ही भाषा बोली जाती है, वहां 'पेड़ी', 'सोथो', 'अफ्रीकांस', 'जुलु', 'खोसा', 'स्वाना' और 'अंग्रेजी' प्रमुख भाषाएं हैं जो बोली और लिखी पढ़ी जाती हैं. लेकिन किसी भी भाषा का कोई दिवस वहां नहीं मनाते हैं. वैसे इसके पीछे कुछ कारणों को भी देखना जरुरी है. किसी भी देश का अस्तित्व उसके भाषा और संस्कृति पर निर्भर करता है. और यह एक और चीज से भी प्रभावित होता है और वह कारण यह है कि क्या वह देश किसी अन्य देश का गुलाम रहा है या नहीं. समय के साथ हर चीज में बदलाव आता है, चाहे वह संस्कृति हो या भाषा. और अगर वह देश किसी अन्य देश का गुलाम रहा हो तो जाहिर है कि उसकी भाषा और संस्कृति में परिवर्तन आएगा.
हर शासक अपने गुलाम देश का पूरी तरह से शासन करने के लिए न सिर्फ वहां की भाषा और संस्कृति को अपनाता है. बल्कि धीरे धीरे उस गुलाम देश की भाषा और संस्कृति को अपने हिसाब से बदलता है. धीरे धीरे गुलाम देश की जनता अपने शासक की भाषा और संस्कृति अपना लेती है और वह अपनी संस्कृति को भूलने लगती है. हिन्दुस्तान भी इसका ज्वलंत उदाहरण है क्योंकि यह देश भी पहले मुगलों और फिर अंग्रेजों का सदियों तक गुलाम रहा और उन्होंने धीरे धीरे यहां की भाषा और संस्कृति को अपने हिसाब से बदला.
देश में कामकाज की भाषा पहले फ़ारसी हुई और बाद में अंग्रेजों ने फ़ारसी की जगह अंग्रेजी कर दी. उन्होंने देश की शिक्षा व्यवस्था को ही इस तरह से बदल दिया कि उनके जाने के बाद भी, आज 74 सालों में भी हम उससे बाहर नहीं निकल पाए हैं. गुलामी के समय उन लोगों को अन्य लोगों पर वरीयता मिलती थी जो अंग्रेजी जानते थे और धीरे धीरे ये लोग अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझे जाने लगे.
यह मानसिकता सैकड़ों सालों में लोगों के मन में इस तरह बैठ गयी है कि आज भी लोग इस सोच से बाहर नहीं निकल पाए हैं. एक और महत्वपूर्ण पहलु है जिसपर चर्चा करना जरुरी है. हिंदुस्तान विभिन्न भाषाओँ और संस्कृतियों का देश है, यहां अमूमन हर प्रदेश की अपनी अलग भाषा और संस्कृति है और वहां के निवासी उस पर गर्व करते हैं.
यहां किसी भी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया है और हिंदी तथा अंग्रेजी सहित 22 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें राजभाषा का दर्जा दिया गया है. अब ऐसे में अगर उनको यह कहा जाए कि हिंदी भाषा आपकी भाषा से बेहतर है और आपको इसे श्रेष्ठ स्वीकार करना होगा तो शायद ही वहां के लोग इसे स्वीकार कर पाएं. फिर उसका विरोध शुरू हो जाता है और राजनीतिज्ञ उसका फायदा उठाना शुरू कर देते हैं.
अगर देश की जनसंख्या के प्रतिशत के हिसाब से देखा जाए तो हिंदी निश्चित रूप से सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोले जाने वाली भाषा है. और अगर विश्व में देखें तो चीन की भाषा मैंडरिन के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है. अब जो भाषा इतने सारे लोगों द्वारा बोली और पढ़ी जाती है, उसके लिए क्या वास्तव में चिंता करने की जरुरत है.
क्या वास्तव में हिंदी को इस संरक्षण की जरुरत है, आंकड़ों को देखें तो शायद इसकी जरुरत महसूस नहीं होनी चाहिए. लेकिन अगर हक़ीक़त में देखें तो बात इसके उलट भी नजर आती है. दरअसल किसी भी भाषा को बोलने और लिखने वाले को उस भाषा पर गर्व होना चाहिए, तभी वह भाषा वास्तव में आगे बढ़ती है. अगर हम अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ पर नजर डालें, उदहारण के तौर पर बांग्ला भाषा को लें जो हिंदी के बाद दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है.
जब भी बांग्ला भाषा बोलने वाले लोग आपस में बात करते हैं तो वे बांग्ला में ही बात करते हैं और इसके पीछे उनका अपनी भाषा को लेकर गर्व कारण होता है. यह बात अन्य स्थानीय भाषाओँ पर भी समान रूप से लागू होती है. लेकिन यह बात कहीं न कहीं हिंदी भाषी लोगों में कम है, शायद उनके अंदर वह गर्व नहीं है जो वास्तव में होंना चाहिए.
हां यह गर्व घमंड में तब्दील नहीं हो जाए, इसका भी ख्याल रखा जाना बेहद जरुरी है. अगर हम आज वास्तव में विचार करें तो हिंदी को किसी भी तरह के संरक्षण की जरुरत नहीं है और न ही इसे अन्य भाषाओँ पर थोपने की जरुरत है. हाँ अगर जरुरत है तो वह यह कि देश में अंग्रेजी भाषा की जगह धीरे धीरे हिंदी का प्रयोग बढ़ाने की जरुरत है.
और साथ ही साथ अपनी हिंदी भाषा पर गर्व करने की भी जरुरत है, ठीक उसी तरह जैसे एक फ़्रांसिसी अपनी फ्रेंच पर करता है, एक अंग्रेज अपनी अंग्रेजी पर करता है या एक बंगाली अपनी बांग्ला भाषा पर करता है. शायद इसके बाद हमें हिंदी के लिए एक दिन विशेष की जरुरत नहीं पड़ेगी.
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