मैंने हिंदू धर्म की हमेशा प्रशंसा की है. ये विश्व का सबसे पुराना धर्म है. सनातन धर्म के मूल में यहूदी, पारसी, ईसाई और इस्लाम धर्म है. इसका वैदिक ज्ञान बेजोड़ है. लेकिन हर ऐतिहासिक चीज की तरह इसे भी देखभाल की जरुरत है अन्यथा ये भी अपना मूल खोकर हठधर्मिता में बदल जाएगा.
सभी धर्म इस बुराई से जकड़े हुए हैं. फिर चाहे इस्लाम हो जो 1300 साल पहले लिखे गए अपने कुरान की जंजीरों में जकड़ा है. इस्लामी मौलवी आज के आधुनिक समाज और समय की मांग के साथ बदलने के बजाए खुद को पुरानी रुढियों में ही बांध कर रखे हुए है. इसी कारण से इस धर्म में स्त्री और पुरुष के बीच की खाई गहरी हुई है. इसने जिहाद की हिंसक व्याख्या को भी मंजूरी दे दी जिसे कुरान में आत्मरक्षा के रुप में पेश किया है जीत की तरह नहीं.
ईसाई धर्म में भी कुछ इस तरह की ही सीख दी गई है. बदलावों के अपने प्रयासों के बावजूद ये धर्म 'दैवीय कानून' के नाम पर महिला पादरियों को स्वीकार नहीं करता. समलैंगिकता को 'नैतिक बुराई' कहते हैं. साथ ही ये जादूओं को बढ़ावा देता है. 16वीं सदी में कैथोलिक और एंगलिकन चर्च के बीच मतभेद के परिणामस्वरुप ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में प्रोस्टेस्टेंट ईसाईयों की संख्या में वृद्धि हुई.
इस्लाम और ईसाई दोनों ही धर्म, धर्मांतरण को बढ़ावा दे रहे हैं. हजारों सालों तक दोनों एकदूसरे के खिलाफ लड़े हैं. अफ्रीका और एशिया के क्षेत्रों पर हमला किया, उन्हें उपनिवेश बनाया, उनके पैसे लूटे और नए बसे हुए अमेरिका और वेस्ट इंडीज के लिए अफ्रीकी गुलामों और भारतीयों के श्रमिकों को ले गए.
हिंदू धर्म एक निष्क्रिय और शांत धर्म है. इसने आक्रमण, अधीनता, अत्याचार और लूट सभी को अपने में समाहित किया. बौद्ध और जैन धर्म को जन्म दिया. दोनों ही ईसाई धर्म और इस्लाम से पुराने हैं और दोनों ही अपेक्षाकृत अधिक शांतिपूर्ण धर्म हैं. लेकिन दोनों में से कोई हिंदू धर्म की जगह नहीं ले पाया. लेकिन फिर भी इस धर्म में सुधार की आवश्यकता को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. हिंदू धर्म अनाकार है और उनके...
मैंने हिंदू धर्म की हमेशा प्रशंसा की है. ये विश्व का सबसे पुराना धर्म है. सनातन धर्म के मूल में यहूदी, पारसी, ईसाई और इस्लाम धर्म है. इसका वैदिक ज्ञान बेजोड़ है. लेकिन हर ऐतिहासिक चीज की तरह इसे भी देखभाल की जरुरत है अन्यथा ये भी अपना मूल खोकर हठधर्मिता में बदल जाएगा.
सभी धर्म इस बुराई से जकड़े हुए हैं. फिर चाहे इस्लाम हो जो 1300 साल पहले लिखे गए अपने कुरान की जंजीरों में जकड़ा है. इस्लामी मौलवी आज के आधुनिक समाज और समय की मांग के साथ बदलने के बजाए खुद को पुरानी रुढियों में ही बांध कर रखे हुए है. इसी कारण से इस धर्म में स्त्री और पुरुष के बीच की खाई गहरी हुई है. इसने जिहाद की हिंसक व्याख्या को भी मंजूरी दे दी जिसे कुरान में आत्मरक्षा के रुप में पेश किया है जीत की तरह नहीं.
ईसाई धर्म में भी कुछ इस तरह की ही सीख दी गई है. बदलावों के अपने प्रयासों के बावजूद ये धर्म 'दैवीय कानून' के नाम पर महिला पादरियों को स्वीकार नहीं करता. समलैंगिकता को 'नैतिक बुराई' कहते हैं. साथ ही ये जादूओं को बढ़ावा देता है. 16वीं सदी में कैथोलिक और एंगलिकन चर्च के बीच मतभेद के परिणामस्वरुप ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में प्रोस्टेस्टेंट ईसाईयों की संख्या में वृद्धि हुई.
इस्लाम और ईसाई दोनों ही धर्म, धर्मांतरण को बढ़ावा दे रहे हैं. हजारों सालों तक दोनों एकदूसरे के खिलाफ लड़े हैं. अफ्रीका और एशिया के क्षेत्रों पर हमला किया, उन्हें उपनिवेश बनाया, उनके पैसे लूटे और नए बसे हुए अमेरिका और वेस्ट इंडीज के लिए अफ्रीकी गुलामों और भारतीयों के श्रमिकों को ले गए.
हिंदू धर्म एक निष्क्रिय और शांत धर्म है. इसने आक्रमण, अधीनता, अत्याचार और लूट सभी को अपने में समाहित किया. बौद्ध और जैन धर्म को जन्म दिया. दोनों ही ईसाई धर्म और इस्लाम से पुराने हैं और दोनों ही अपेक्षाकृत अधिक शांतिपूर्ण धर्म हैं. लेकिन दोनों में से कोई हिंदू धर्म की जगह नहीं ले पाया. लेकिन फिर भी इस धर्म में सुधार की आवश्यकता को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. हिंदू धर्म अनाकार है और उनके श्रद्धालु जिस तरह से उसे ढालना चाहते हैं वो ढल जाता है. आप चाहें तो मंदिर में पूजा करने जाएं, घर में पूजा करें या पूजा न करें, तो भी हिंदू हैं. आप अनिश्वरवादी, नास्तिक या धार्मिक हो सकते हैं और फिर भी एक अच्छे और सच्चे हिंदू हो सकते हैं.
वहीं दूसरी तरफ इस्लाम और ईसाई धर्म कठोर हैं. या तो उनके नियमों का पालन करें या फिर... लेकिन हिंदू धर्म के लचीले स्वभाव के कारण ये दोधारी तलवार की तरह है. इसमें अनुशासन की कमी बंटवारे और अव्यवस्था को बढ़ावा दे सकती है. इसका सबसे बड़ा खतरा जात-पात से है. इस बात के तर्क दिए जाते हैं कि जाति सिस्टम की वजह से ही भारत में हिंदु धर्म बचा रह पाया. जबकि बाकि देशों के धर्म इस्लाम और ईसाई धर्म के धर्मांतरण के जाल में फंसकर खत्म हो गए.
जातिगत व्यवस्था की दो धारणाएं हैं- वर्ण और जाति. वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था काम पर आधारित थी. इसमें किसी तरह की जड़ता नहीं थी और व्यक्ति के हुनर के आधार पर उसका वर्ण तय किया जाता था. वहीं दूसरी तरफ जाति का निर्धारण जन्म से होता था. जिस जाति में व्यक्ति जन्म लेता था वो फिर जीवनपर्यंत उसके साथ रहती. जाति कभी नहीं बदलती.
आज भी इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता. इसका सबसे ताजा उदाहरण भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा है. पेशवा और मराठा पर अंग्रेज और दलित की सेना के जीत की 200वीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी उसी दौरान ये हिंसा हुई. इससे ही साबित होता है कि कैसे जाति प्रथा समाज के रग-रग में समाई हुई है. अगर किसी धर्म को बाहरी ताकतों से खुद को बचाए रखने के लिए जाति आधारित बंटवारे का सहारा लेना पड़े तो ये उसकी कमजोरी को दिखाता है. केवल अस्तित्व बचाने के दिखावे से आगे बढ़कर कुछ करने की जरुरत है.
हिंदू धर्म इस बदतर स्थिति में पहुंच गया था कि पहले उसे खुद को वशीभूत करने के लिए क्रूर मुस्लिम और ईसाई आक्रांताओं की जरुरत पड़ी और उसके बाद 19वीं सदी में ब्रिटिश के साए तले खुद का पुनर्जागरण किया. अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन की थिसिस के अनुसार ब्रिटिश लोगों द्वारा कब्जा किए जाने के पहले भारत की जीडीपी पूरे विश्व के 24 प्रतिशत थी.
आज के समय में जाति एक चुनावी हथियार है. गुजरात चुनावों के समय दलित नेता जिग्नेश मेवाणी ने इस हथियार को बखूबी इस्तेमाल किया. 2019 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस भी इस हथियार को चलाने में हिचक नहीं रही. एक तरफ जहां कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण बता रहे हैं तो वहीं इनके सहयोगी मेवाणी दलित कार्ड खेल रहे हैं. बांटो और राज करो- ये फॉर्मूला सदियों से हमारे यहां चलता आ रहा है.
तो एक बार फिर से मैं बता दूं कि अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए हिंदू धर्म को अपनी जड़ता को खत्म करके बदलाव को अपनाना होगा. जाति व्यवस्था को खत्म करना होगा. हर मंदिर में दलितों और औरतों के प्रवेश की अनुमति होनी चाहिए. इसके लिए कोई बहाना नहीं चलेगा.
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