मध्य प्रदेश पहला ऐसा राज्य बन गया है जहां एमबीबीएस की पढ़ाई हिन्दी में होगी. कुछ दिन पहले ही केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस पाठ्यक्रम की तीन किताबों का विमोचन किया था. एमबीबीएस फर्स्ट ईयर की इन पुस्तकों में एनाटॉमी, फिजियोलॉजी और बायो केमिस्ट्री के नाम शामिल हैं. यहां जैसे ही हिंदी पाठ्यक्रम का ऐलान किया गया, विरोध के सुर उठने लगे हैं. अक्सर गैर हिंदी भाषी, विशेषकर गैर भाजपा शासित राज्यों में हिंदी विरोध महज राजनीतिक ही है. एकबारगी मान भी लें कि हिंदी उनकी भाषा नहीं है. मसलन उनकी भाषा तमिल है, कन्नड़ है, तेलगु है, अंग्रेजी भी तो उनकी भाषा नहीं है. तो फिर इतना ही विरोध अंग्रेजी का क्यों नहीं किया करते हैं?
अपनी भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में वरीयता देते तो बेहतर होता. उल्टे हिंदी विरोध में अपनी भाषा को तरजीह देने की जगह अंग्रेजी को बनाए रखने की वकालत से उनका वर्ग चरित्र ही उजागर होता है. माने या ना माने पैन इंडिया करियर के लिए हिंदी ने स्वतः ही अनिवार्यता महसूस करा दी है. उत्तर हो या दक्षिण, क्या कहीं किसी डॉक्टर से सामना हुआ है जो हिंदी ना बोलता हो, हिंदी में बात कर आपके दर्द, तकलीफ या बीमारी का मूल्यांकन करके आपको निदान ना बता पाता हो? हां, अक्सर डॉक्टर्स हिंग्लिश (हिंदी+अंग्रेजी) बोलते हैं, आखिर मातहत मेडिकल स्टाफ से भी तो पारस्परिक व्यवहार रखना है जो अंग्रेजी की बजाए हिंदी में ज्यादा कम्फ़र्टेबल महसूस करते हैं.
जब बात हिंदी की करते हैं तो बोलचाल और समझ वाली हिंदी की बात करते हैं, क्लिष्ट हिंदी की नहीं. हर भाषा के पॉपुलर शब्दों को परस्पर अपना लिया जाता है. मसलन हिंदी के ही शब्द लें तो जुगाड़, जंगल, चक्का जाम, चमचा, दीदी, अच्छा, टाइमपास, नाटक, चुप आदि अनेक शब्द हैं जिन्हें ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी ने अपना लिया है. चाहे हम इंग्लिश बोलते हो या...
मध्य प्रदेश पहला ऐसा राज्य बन गया है जहां एमबीबीएस की पढ़ाई हिन्दी में होगी. कुछ दिन पहले ही केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस पाठ्यक्रम की तीन किताबों का विमोचन किया था. एमबीबीएस फर्स्ट ईयर की इन पुस्तकों में एनाटॉमी, फिजियोलॉजी और बायो केमिस्ट्री के नाम शामिल हैं. यहां जैसे ही हिंदी पाठ्यक्रम का ऐलान किया गया, विरोध के सुर उठने लगे हैं. अक्सर गैर हिंदी भाषी, विशेषकर गैर भाजपा शासित राज्यों में हिंदी विरोध महज राजनीतिक ही है. एकबारगी मान भी लें कि हिंदी उनकी भाषा नहीं है. मसलन उनकी भाषा तमिल है, कन्नड़ है, तेलगु है, अंग्रेजी भी तो उनकी भाषा नहीं है. तो फिर इतना ही विरोध अंग्रेजी का क्यों नहीं किया करते हैं?
अपनी भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में वरीयता देते तो बेहतर होता. उल्टे हिंदी विरोध में अपनी भाषा को तरजीह देने की जगह अंग्रेजी को बनाए रखने की वकालत से उनका वर्ग चरित्र ही उजागर होता है. माने या ना माने पैन इंडिया करियर के लिए हिंदी ने स्वतः ही अनिवार्यता महसूस करा दी है. उत्तर हो या दक्षिण, क्या कहीं किसी डॉक्टर से सामना हुआ है जो हिंदी ना बोलता हो, हिंदी में बात कर आपके दर्द, तकलीफ या बीमारी का मूल्यांकन करके आपको निदान ना बता पाता हो? हां, अक्सर डॉक्टर्स हिंग्लिश (हिंदी+अंग्रेजी) बोलते हैं, आखिर मातहत मेडिकल स्टाफ से भी तो पारस्परिक व्यवहार रखना है जो अंग्रेजी की बजाए हिंदी में ज्यादा कम्फ़र्टेबल महसूस करते हैं.
जब बात हिंदी की करते हैं तो बोलचाल और समझ वाली हिंदी की बात करते हैं, क्लिष्ट हिंदी की नहीं. हर भाषा के पॉपुलर शब्दों को परस्पर अपना लिया जाता है. मसलन हिंदी के ही शब्द लें तो जुगाड़, जंगल, चक्का जाम, चमचा, दीदी, अच्छा, टाइमपास, नाटक, चुप आदि अनेक शब्द हैं जिन्हें ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी ने अपना लिया है. चाहे हम इंग्लिश बोलते हो या हिंदी हम आम अंग्रेजी शब्दों का उपयोग करते हैं. हिंदी बोलने में तो इस्तेमाल हो रहे अंग्रेजी शब्द तो अनगिनत है. मसलन बोल्ड, बोनस, अप्रूवल, एग्रीमेंट, टूल, ब्लेसिंग, कैब, केबिन, कैबिनेट, केबल, कम्फर्टेबल आदि शब्द हैं. कुल मिलाकर वर्णमाला के हर अक्षर से शुरू होने वाले अंग्रेजी शब्दों को हिंदी भाषा ने आत्मसाथ कर लिया है.
यहां कहने का मतलब ये है कि पढ़कर या पढ़ाकर, समझने या समझाने के लिए हिंदी बातचीत (डिस्कोर्स) की बात है और जहां तक मेडिकल टर्मिनोलॉजी हैं, उन्हें जस का तस अपना लेना ही श्रेयस्कर है. एक ऐसे ही हिंदी माध्यम की बात है जिसमें स्टूडेंट्स के साथ लेक्चरर्स भी कम्फर्टेबल हैं. तो फिर हाय तौबा क्यों? हां, विरोध करना है तो अनूदित मेडिकल पुस्तकों के घटिया स्तर का होना चाहिए. ऐसा इसलिए कि हाल ही में एमबीबीएस की हिंदी पाठ्य पुस्तकों के जो पृष्ठ सोशल मीडिया पर शेयर किए गए हैं, वे न केवल निकृष्ट हैं बल्कि एकदम घटिया अनूदित भी हैं. इसी असावधानी और लापरवाही ने उन तमाम लोगों को मौक़ा दे दिया है जो हिंदी ही क्यों किसी भी भारतीय भाषा को उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में नहीं देखना चाहते. सो ना केवल अनुवाद की गुणवत्ता का होना जरूरी है बल्कि स्वतंत्र रूप से हिंदी में मेडिकल की पाठ्य पुस्तकों का लेखन भी अपेक्षित है. विरोधियों के तर्क तो एकदम हास्यास्पद है.
किसी विद्वान् ने कहा कि अंग्रेजी के अलावा मेडिकल की पढ़ाई का कोई और विकल्प नहीं है. जिसका विकल्प नहीं है, उसका जबरन विकल्प पेश करना क्या समस्या का समाधान हो सकता है? एक तर्क ये भी है कि यदि तकनीकी शब्दों का हिंदी बनाया जाता है तो वे समझ के परे होते हैं. छात्रों को अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ता है. विज्ञान और चिकित्सा में तकनीकी शब्दों को हिंदी में समझना बेहद मुश्किल काम होता है. किसी ने यह भी कहा कि तकनीकी शब्दों का अनुवाद करने की जगह पर उनकी लिपि बदल देने से क्या भाषा समझ में आने लगेगी? बेतुका सा ही सवाल है ये. दरअसल चिढ़ हिंदी से है. देश के अनेकों छात्र रुस, यूक्रेन, चीन जाते हैं. वहां की भाषा सीखते हैं. क्योंकि पढ़ाई का माध्यम उनकी अपनी भाषा ही है, अंग्रेजी नहीं. इन्हीं छात्रों के नाम पर अनेकों सवाल खड़े किए जा रहे हैं कि क्या हिंदी में एमबीबीएस करने वाला एमएस या एमडी करने दक्षिण भारत या विदेश जाकर पढ़ सकता है? क्या हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई करने वाला छात्र दक्षिणी राज्यों में प्रैक्टिस कर सकता है?
हिंदी माध्यम के छात्र ग्रेजुएशन के बाद चेन्नई, पुणे या बेंगलुरु जाकर आगे की पढ़ाई कर पाएंगे? क्या अब हिंदी प्रदेश के डॉक्टर का प्रदेश में ही रहना अनिवार्य होगा? हिंदी में एमबीबीएस करने वाला छात्र इंटरनेशनल कांफ्रेंस में कौन सी भाषा लेकर शामिल होगा? पेपर कैसे प्रस्तुत करेगा? थीसिस किस भाषा में लिखेगा? पोस्ट ग्लोबल वर्ल्ड की बात करें तो एकाधिक भाषाओं की जानकारी वैश्चिक नागरिकता की अनिवार्य शर्त है. अब विदेशी भाषा के रूप में सिर्फ अंग्रेजी का ज्ञान नाकाफी हो चला है. चीनी, जापानी, जर्मन, कोरियन, रशियन, स्पैनिश और अरबी भाषाओँ को वहां पढ़ा सीखा जाने लगा है. इसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का कार्य साधक ज्ञान न सिर्फ जरूरी हो चला है, अपितु अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय होने की पहचान से भी जुड़ गया है. पिछले दिनों ही अंग्रेजी में पढ़ी लिखी गीतांजलि श्री के हिंदी उपन्यास "रेत समाधि" के अंग्रेजी अनूदित "Tomb of Sand" को बुकर प्राइज से नवाजा गया था. हिंदी यूं प्रतिष्ठित हो रही है. ग्लोबल फलक पर और जब एक तमिल या कन्नड़ या केरल वासी जर्मन, रशियन, स्पैनिश सीख सकता है करियर के लिए ही सही तो हिंदी सीखने और पढ़ने से परहेज क्यों कर रहा है?
ठेठ भाषा में कहें तो बातचीत के लिए हिंदी है, हिंदी फिल्में देखने से कोई परहेज नहीं है, हिंदी चैनलों की भरमार है तो कम से कम स्नातक स्तर तक की मेडिकल या तकनीकी शिक्षा हिंदी में क्यों नहीं? चले जाइये टॉप क्लास मेडिकल या इंजीनियरिंग शिक्षण संस्थानों में, अस्सी फीसदी बोलचाल हिंदी में नजर आती है. फिर अभी तो सिर्फ घोषणा भर हुई है, राजनीति जो है. अभी तो पूरा कोर्स हिंदी में तैयार किया जाना है, तत्पश्चात समीक्षा होनी है. लागू होने के पहले. इसी बीच प्रथम वर्ष की तीन किताबों एनाटॉमी, फिजियोलॉजी और बायोकेमिस्ट्री का अनुवाद भी शायद हड़बड़ी में हुआ है. कुल मिलाकर डर इस बात का है कि एक अच्छी सोच भी कहीं राजनीति की शिकार न हो जाए.
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