एक बारह साल की लड़की पहली कक्षा में पढ़ रहे एक बच्चे पर इसलिये जानलेवा हमला करती है कि -'स्कूल बंद हो जाए'. इसके पहले रेयान स्कूल की दुर्घटना में भी परीक्षा टालने का विषय था. ऐसी घटनाएं अब अपवाद नहीं रहीं बल्कि एक पैटर्न के रूप में सामने आ रही हैं. अब सोचिये हम किस समाज में है?
इसके कारणों की खूब विवेचना कर लीजिये लेकिन निष्कर्ष के रूप में एक ही बात निकल कर आएगी कि 'लोगों के पास समय नहीं है' इसलिये बच्चों का सामाजीकरण ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा है. यह एक झूठ है. और यह झूठ उस व्यवस्था द्वारा फैलाया गया है जो इसका असल दोषी है और जो 'इल्जाम किसी और के सिर जाए तो अच्छा' वाले भाव से यह भ्रम फैलाता है. समय इस पूंजीवादी व्यवस्था के पास नहीं है जिसे हर समय पैसा कमाना है और इसके लिये उसे हर समय लोग चाहिये जो उसके लिये पैसा कमा सके. यह व्यवस्था किसी के लिये समय शेष नहीं रहने देती फिर चाहे भले ही बच्चे हत्यारे हो जाएं.
बड़ी सावधानी और धूर्तता से 'कॉरपोरेट कल्चर' का जुमला रचा गया है. यह विडंबना ही है कि इस संस्कृति में उस व्यक्ति को सम्मानित और प्रोत्साहित किया जाता है जो कभी छुट्टी नहीं लेता. छुट्टी न लेने पर तो दंडित किया जाना चाहिये कि तुम अपने सामाजिक दायित्व को ठीक से नहीं निभा पा रहे हो इसलिये तुम्हें दंडित किया जाता है. लेकिन होता है उल्टा. आप सोचिये कि ऐसे 'प्रोत्साहन प्रविधि' में समय शेष कहां बचेगा? इसी तरह अगर कोई बीमार हो और वो ऑफिस आ जाए तो वो 'प्रोफेशनल' कहलाता है.
ऑफिस में मर जाए तो और अच्छा कि देखो काम के प्रति कितना डेडिकेटेड था. फिर जब से व्हाट्सऐप जैसे 'दानव' का जन्म हुआ है तो वो घर को भी ऑफिस बना चुका है. बॉस के मैसेज का जबाव नहीं दिया तो नौकरी गई....
एक बारह साल की लड़की पहली कक्षा में पढ़ रहे एक बच्चे पर इसलिये जानलेवा हमला करती है कि -'स्कूल बंद हो जाए'. इसके पहले रेयान स्कूल की दुर्घटना में भी परीक्षा टालने का विषय था. ऐसी घटनाएं अब अपवाद नहीं रहीं बल्कि एक पैटर्न के रूप में सामने आ रही हैं. अब सोचिये हम किस समाज में है?
इसके कारणों की खूब विवेचना कर लीजिये लेकिन निष्कर्ष के रूप में एक ही बात निकल कर आएगी कि 'लोगों के पास समय नहीं है' इसलिये बच्चों का सामाजीकरण ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा है. यह एक झूठ है. और यह झूठ उस व्यवस्था द्वारा फैलाया गया है जो इसका असल दोषी है और जो 'इल्जाम किसी और के सिर जाए तो अच्छा' वाले भाव से यह भ्रम फैलाता है. समय इस पूंजीवादी व्यवस्था के पास नहीं है जिसे हर समय पैसा कमाना है और इसके लिये उसे हर समय लोग चाहिये जो उसके लिये पैसा कमा सके. यह व्यवस्था किसी के लिये समय शेष नहीं रहने देती फिर चाहे भले ही बच्चे हत्यारे हो जाएं.
बड़ी सावधानी और धूर्तता से 'कॉरपोरेट कल्चर' का जुमला रचा गया है. यह विडंबना ही है कि इस संस्कृति में उस व्यक्ति को सम्मानित और प्रोत्साहित किया जाता है जो कभी छुट्टी नहीं लेता. छुट्टी न लेने पर तो दंडित किया जाना चाहिये कि तुम अपने सामाजिक दायित्व को ठीक से नहीं निभा पा रहे हो इसलिये तुम्हें दंडित किया जाता है. लेकिन होता है उल्टा. आप सोचिये कि ऐसे 'प्रोत्साहन प्रविधि' में समय शेष कहां बचेगा? इसी तरह अगर कोई बीमार हो और वो ऑफिस आ जाए तो वो 'प्रोफेशनल' कहलाता है.
ऑफिस में मर जाए तो और अच्छा कि देखो काम के प्रति कितना डेडिकेटेड था. फिर जब से व्हाट्सऐप जैसे 'दानव' का जन्म हुआ है तो वो घर को भी ऑफिस बना चुका है. बॉस के मैसेज का जबाव नहीं दिया तो नौकरी गई. नौकरी गई तो फिर समय का क्या करेंगे? अब मां/बाप बॉस संभाले या बच्चा? जीवित रहना है तो बॉस ही पलेगा, बच्चा बनेगा हत्यारा.
दूसरी तरफ स्कूल हैं जो 'सीखने का परिवेश' तैयार करने की बजाय 'सिखाने की जिद' पाले हुए हैं. स्कूल प्रशासन ने अभिभावक से इसी नाम पर मोटी रकम ली है कि बच्चे को एक 'स्किल्ड रोबोट' के रूप में तैयार कर के देंगे. अब समझौते के मुताबिक बच्चे को रेलना है तो समय कहां बचेगा? रोबोट जितनी 'सुविधाएं' बच्चों में आरोपित करने का वादा नहीं करेंगे तो मोटा धन नहीं मिलेगा. धन महत्वपूर्ण है भले ही बच्चा बन जाए हत्यारा. बहुत जल्द इस दलदल पर मिट्टी डालनी होगी नहीं तो हम सब इसमें फंसेंगे एक न एक दिन. तब तक अपनी बारी का इंतजार करिये.
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