किसानों के लिए उनकी फसलें नवजात शिशु जैसी होती हैं जिसे वह छह महीने अपनी औलाद की तरह पालता-पोसता है. नवजात बच्चे हमारे लिए कितने दुलारे होते हैं, शायद बताने की जरूरत नहीं? सोचो, जब उनके फसल नुमा बच्चे उनकी आंखों के सामने ओझल हो जाएं, तो उनके दिल पर क्या गुजरती होगी. मार्च के अंत में अधिक वर्षा होना निश्चित रूप से खेती के लिए हानिकारक होता है. इस वक्त गेहूं की फसल अधकची होती है. कई राज्यों में तो पक चुकी है. तेज बारिश से जो फसलें जमींदोज हुई हैं. जब तक उठेंगी, तब बालियों के दाने सड़ चुके होंगे. गेंहू के अलावा इस वक्त गन्ना भी खेतों में खड़ा है. वह भी बरसात और ओलावृष्टि से प्रभावित हुआ है. तराई जैसे कई जिलों में खेतों के भीतर पानी लबालब भरा हुआ है. निचले इलाकों में तो बाढ़ जैसे हालात हो गए है, वहां सब्जियां और कच्ची फसलें खेतों में ही सड़ने लगी हैं. कच्ची सब्जियों का तो नामोनिशान ही मिट गया. फिलहाल नुकसान की भरपाई के लिए प्रदेश सरकारों ने प्रभावित क्षेत्रों में सर्वेक्षण शुरू किया है. जांच टीमें दौरा कर रही हैं. देखते है, किसानों के जख्मों पर मुआवजा के रूप में कितना मरहम लगाया जाता है.
तेज बौछारों और ओलावृष्टि से हजारों-लाखों हेक्टेयर फसल चौपट हुई हैं जिनमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड, बिहार व राजस्थान जैसे किसानी पर निर्भर राज्य ज्यादा हैं. क्या अब ये मान लिया जाए कि खेती किसानी तुक्का मात्र हो गई है. पकी फसल सही सलामत कट जाए, तो समझो बड़ी गनीमत? वरना, कुदरता का प्रकोप उन्हें नहीं छोड़ता, लील जाता है. बीते लगातार कुछ वर्षों से बेमौसम बारिश ने समूचे देश में कहर बरपाया हुआ है.
बेमौसम बारिश तभी होती है, जब किसानों की फसलें खेतों में अधकची लहलहाती...
किसानों के लिए उनकी फसलें नवजात शिशु जैसी होती हैं जिसे वह छह महीने अपनी औलाद की तरह पालता-पोसता है. नवजात बच्चे हमारे लिए कितने दुलारे होते हैं, शायद बताने की जरूरत नहीं? सोचो, जब उनके फसल नुमा बच्चे उनकी आंखों के सामने ओझल हो जाएं, तो उनके दिल पर क्या गुजरती होगी. मार्च के अंत में अधिक वर्षा होना निश्चित रूप से खेती के लिए हानिकारक होता है. इस वक्त गेहूं की फसल अधकची होती है. कई राज्यों में तो पक चुकी है. तेज बारिश से जो फसलें जमींदोज हुई हैं. जब तक उठेंगी, तब बालियों के दाने सड़ चुके होंगे. गेंहू के अलावा इस वक्त गन्ना भी खेतों में खड़ा है. वह भी बरसात और ओलावृष्टि से प्रभावित हुआ है. तराई जैसे कई जिलों में खेतों के भीतर पानी लबालब भरा हुआ है. निचले इलाकों में तो बाढ़ जैसे हालात हो गए है, वहां सब्जियां और कच्ची फसलें खेतों में ही सड़ने लगी हैं. कच्ची सब्जियों का तो नामोनिशान ही मिट गया. फिलहाल नुकसान की भरपाई के लिए प्रदेश सरकारों ने प्रभावित क्षेत्रों में सर्वेक्षण शुरू किया है. जांच टीमें दौरा कर रही हैं. देखते है, किसानों के जख्मों पर मुआवजा के रूप में कितना मरहम लगाया जाता है.
तेज बौछारों और ओलावृष्टि से हजारों-लाखों हेक्टेयर फसल चौपट हुई हैं जिनमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड, बिहार व राजस्थान जैसे किसानी पर निर्भर राज्य ज्यादा हैं. क्या अब ये मान लिया जाए कि खेती किसानी तुक्का मात्र हो गई है. पकी फसल सही सलामत कट जाए, तो समझो बड़ी गनीमत? वरना, कुदरता का प्रकोप उन्हें नहीं छोड़ता, लील जाता है. बीते लगातार कुछ वर्षों से बेमौसम बारिश ने समूचे देश में कहर बरपाया हुआ है.
बेमौसम बारिश तभी होती है, जब किसानों की फसलें खेतों में अधकची लहलहाती होती हैं. लगता है खेतीबाड़ी को किसी की नजर लग गई. क्योंकि फसलें खेतों में जब पककर खड़ी होती है. तभी, कुदरत का रौद्र रूप उन्हें उजाड़ देता है. उस स्थिति में अन्नदाता चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता? सिर्फ अपनी किस्मत को ही कोसता है. खेतों में इस वक्त प्रमुख रूप से गेंहू, सरसों, दालें व सब्जियों की फसलें लगी हैं, जिनमें गेंहू पका खड़ा है.
पर, बीते सप्ताह रूक-रूक हुई, तेज बारिश और ओलावृष्टि ने सब चौपट कर दिया. कई राज्यों में तो किसान इस बार फसल हीन हो गए हैं. देखिए, इतना तय है और कमोबेश सभी अच्छे से जानते भी है कि कृषि क्षेत्र पर संकट के काले बादल छाए हुए हैं जिस पर सालाना बेमौसम बारिश ने संकट को और गहरा दिया. सुख-सुविधाओं की बात करें तो कागजों में अन्नदाताओं के लिए तमाम कल्याणकारी सरकारी योजना है?
जैसे, फसलों को एमएसपी पर खरीदना व अन्य फसलों का उचित दाम देने का दम भरा जाता है. पर, धरातल पर सच्चाई क्या सभी को पता है. सच्चाई ये है किसान बेसहारा हुआ पड़ा है, किसी को भी उनकी परवाह नहीं. सुख-सुविधाएं किसानों से कोसों दूर हैं. सब्सिडी वाली खाद्ों को भी उन्हें ब्लैक में खरीदना पड़ता है. यूरिया ऐसी जरूरी खाद है जिसके बिना फसलों को उगाना अब कतई संभव नहीं? उसकी किल्लत से भी किसानों को बीते कई वर्षों से जूझना पड़ रहा है.
हुकूमतों को आगे बढ़कर किसानों की मदद करनी चाहिए. पर, होता उल्टा है, किसान खुद सरकारों के सामने हाथ फैलाकर अपनी फसलों की भरपाई का हर्जाना मांगते हैं. उनकी मांगां पर पटवारी खेतों में पहुचकर बबार्द हुई फसलों की रिपोर्ट तैयार करते हैं. रिपोर्ट पहले जिला स्तर पर जाती है, फिर शासन को भेजी जाती है, उसके बाद कहीं जाकर मुआवजा तय होता है. जो मुआवजा तय होता है, उसे कई महीने बीत जाने के बाद वितरण किया जाता है. वह भी नाम मात्र का?
जब तक किसान जैसे-तैसे अपने खेतों में अगली फसल लगाने की भी तैयार शुरू कर देते हैं. सोशल मीडिया पर बर्बाद हुई फसलों को देखकर किसानों की रूहादीं आंखों वाली तस्वीरे दिलदहलाती हैं. सवाल उठता है आखिर किसान ही क्यों हमेशा छला जाता है, ना उन्हें कुदरत छोड़ती है और ना हुकूमतों को तरस आता है. खेती की लागत भी अब नहीं लौटती. यही बजह है खेती नित घाटे का सौदा बन रही है.
इसी कारण किसानों का धीरे-धीरे खेतीबाड़ी से मोहभंग हो रहा है. दरकार अब ऐसी नीति-नियम की है जिससे किसान बेसौसम बारिश, ओलाबृष्टि व बिजली गिरने आदि घटनाओं के नुकसान से उभर सकें. कृषि पर आए संकट से वह मुस्तैदी से लड़ पाए. क्योंकि इस सेक्टर से न सरकार मुंह फेर सकती हैं और न ही कोई और? कृषि सेक्टर संपूर्ण जीडीपी में करीब बीस-पच्चीस फीसदी भूमिका निभाता है.
कायदे से देखें तो कोरोना संकट में डामाडोल हुई अर्थव्यवस्था को कृषि सेक्टर ने ही उभारा था. इसलिए कृषि को हल्के में नहीं ले सकते. अगर लेंगे तो उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. हुकूमतों को समझ लेना चाहिए ‘फसल बर्बादी का विकल्प मुआवजा नहीं हो सकता’? इसके लिए बीमा योजनाओं को ठीक से लागू करना होगा. योजना तो अब भी लागू है, पर प्रभावी नहीं है?
फसल बर्बाद होने पर किसानों को प्रति एकड़ उचित बीमा फसल के मुताबिक देने का प्रावधान बनाया जाए. केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों को इस दिशा में कदम उठाने की दरकार है. इस वक्त किसानों की छह महीने की कमाई पानी में बही है. इस दरम्यान किसानों ने क्रेडिट कार्ड, बैंक लोन व उधारी लेकर फसलों को उगाने में लगाया होगा. नब्बे रूपए के आसपास डीजल का भाव है. बाकी यूरिया, डाया, पोटाश जैसी खादों की दोगुनी-तिगुनी कीमतों ने पहले से ही अन्नदाताओं को बेहाल किया हुआ है.
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