राजधानी का दिल कहे जाने वाले इलाके में एक किसान ने आत्महत्या कर ली. वो भी एक रैली में, जहां किसानों के बेहतर भविष्य का वादा किया जा रहा था. मुझे अक्सर हैरानी होती है कि हम बिहार जैसे गरीब राज्यों से आने वाली किसानों की खबरें क्यों नहीं सुनी जाती, जब वे आत्महत्या करते हैं. और क्यों सिर्फ महाराष्ट्र, केरल और गुजरात जैसे समृद्ध राज्यों के आत्महत्या करने वाले लोगों पर ध्यान देते हैं .
मुझे लगता है कि बिहार में किसान खेती पर ही निर्भर करते हैं. अधिकांश जमीन पर सब्जियां और अनाज उगाते हैं. आमतौर पर गुजारे के लिए की गई यह खेती लाभदायक नहीं होती है, लेकिन यह तो तय हो ही जाता है कि वे भूखे नहीं रहेंगे. और उन्हें इस तरह के गंभीर कदम उठाने से भी रोकती है.
मैं बिहार के एक किसान का बेटा हूं. मैंने अपना बचपन खेतों में बिताया है, अपने परिवार की टुकड़ों में बंटी हुई पांच एकड़ भूमि में खेती के लिए मदद भी की है. इसी ने हमारे परिवार के छः सदस्यों के भरण-पोषण में मदद की. हम एक खुशहाल परिवार में पले बढ़े. जब तक कि मेरे पिता ने ट्रैक्टर खरीदने के लिए एक बैंक से कर्ज नहीं लिया था. वे कारोबार में ज्यादा फायदा लेने और खेती को बेहतर बनाने के लिए ट्रेक्टर लेना चाहते थे. इन वर्षों में कर्ज बढ़ता रहा और हमारी फसल बर्बाद होती रही. कुछ वर्षों के बाद बढ़ता कर्ज मेरे परिवार की सबसे बड़ी चिंता का विषय बन गया और ईमानदारी से कहूं तो यह लगभग मौत के जाल जैसा था. किसी तरह से हम बाहर जाकर काम तलाशने में कामयाब रहे ताकि बैंक के कर्ज से मुक्ति पा सकें. और साल 2008 में किसान ऋण माफी योजना शुरू हुई जिसके बाद हमारी परेशानी का अंत हुआ.
पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि यह हमारा ज्यादा कमाने का लालच ही थी जिसने हमें फंसा दिया था.
किसान आज भी इस स्थिति का सामना कर रहे हैं. देश के हर हिस्से में वे संकट में हैं. सरासर राजनीति और उनकी समस्याओं को हल करने के इरादे में कमी की वजह से अक्सर वे असहाय महसूस करते हैं और खुदखुशी करने के लिए मजबूर हैं.
वे एक बेहतर...
राजधानी का दिल कहे जाने वाले इलाके में एक किसान ने आत्महत्या कर ली. वो भी एक रैली में, जहां किसानों के बेहतर भविष्य का वादा किया जा रहा था. मुझे अक्सर हैरानी होती है कि हम बिहार जैसे गरीब राज्यों से आने वाली किसानों की खबरें क्यों नहीं सुनी जाती, जब वे आत्महत्या करते हैं. और क्यों सिर्फ महाराष्ट्र, केरल और गुजरात जैसे समृद्ध राज्यों के आत्महत्या करने वाले लोगों पर ध्यान देते हैं .
मुझे लगता है कि बिहार में किसान खेती पर ही निर्भर करते हैं. अधिकांश जमीन पर सब्जियां और अनाज उगाते हैं. आमतौर पर गुजारे के लिए की गई यह खेती लाभदायक नहीं होती है, लेकिन यह तो तय हो ही जाता है कि वे भूखे नहीं रहेंगे. और उन्हें इस तरह के गंभीर कदम उठाने से भी रोकती है.
मैं बिहार के एक किसान का बेटा हूं. मैंने अपना बचपन खेतों में बिताया है, अपने परिवार की टुकड़ों में बंटी हुई पांच एकड़ भूमि में खेती के लिए मदद भी की है. इसी ने हमारे परिवार के छः सदस्यों के भरण-पोषण में मदद की. हम एक खुशहाल परिवार में पले बढ़े. जब तक कि मेरे पिता ने ट्रैक्टर खरीदने के लिए एक बैंक से कर्ज नहीं लिया था. वे कारोबार में ज्यादा फायदा लेने और खेती को बेहतर बनाने के लिए ट्रेक्टर लेना चाहते थे. इन वर्षों में कर्ज बढ़ता रहा और हमारी फसल बर्बाद होती रही. कुछ वर्षों के बाद बढ़ता कर्ज मेरे परिवार की सबसे बड़ी चिंता का विषय बन गया और ईमानदारी से कहूं तो यह लगभग मौत के जाल जैसा था. किसी तरह से हम बाहर जाकर काम तलाशने में कामयाब रहे ताकि बैंक के कर्ज से मुक्ति पा सकें. और साल 2008 में किसान ऋण माफी योजना शुरू हुई जिसके बाद हमारी परेशानी का अंत हुआ.
पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि यह हमारा ज्यादा कमाने का लालच ही थी जिसने हमें फंसा दिया था.
किसान आज भी इस स्थिति का सामना कर रहे हैं. देश के हर हिस्से में वे संकट में हैं. सरासर राजनीति और उनकी समस्याओं को हल करने के इरादे में कमी की वजह से अक्सर वे असहाय महसूस करते हैं और खुदखुशी करने के लिए मजबूर हैं.
वे एक बेहतर पैदावार की उम्मीद के साथ उधार लेते हैं. और जब उनकी कोशिश नाकाम होती है वे खुद को मार डालते हैं. हालांकि फसलों का बर्बाद होना समस्या का ही हिस्सा है. इसकी कुछ अलग वजह भी हैं कि उन्हें बम्पर फसल उत्पादन के बावजूद बाजार में अच्छी कीमत नहीं मिलती है.
अत्यधिक आपूर्ति फसलों की मांग के लिए प्रबंधन करती है. किसानों को गरीब हालात में छोड़कर जमाखोरों और बिचौलियों से एक अस्थाई कीमतों पर बम्पर उपज खरीद ली जाती है, जिसकी वजह से किसान आत्महत्या के लिए मजबूर होते हैं.
ऐसे मामलों में किसानों को बिना किसी विकल्प के छोड़ दिया जाता है. 2011 में उत्तर प्रदेश की एक घटना है, जहां आगरा के आलू किसानों ने अपनी फसल को सड़कों पर फेंक दिया था. क्योंकि देश भर में आलू की बम्पर पैदावार की वजह से कीमतें बिल्कुल जमीन पर आ गई थी.
अब समय आ गया है कि किसानों को खुद के बारे में सोचना चाहिए और देश की चिंता करना बंद कर देना चाहिए. इससे केवल फसलें ही नाकाम नहीं होती बल्कि उन पर कर्ज का बोझ भी बढ़ता है और उनकी जान भी जाती है. विदर्भ की तरह परेशानी का सामना करने वाले इलाकों में किसानों को सामान्य बीज और उर्वरकों पर आधारित निर्वाह खेती की तरफ लौटना होगा. उन्हें वही उगाना होगा जो वे खा सकते हैं, वो नहीं जिससे उन्हें बेहतर लाभ की उम्मीद हो. दिन के अंत में, हमारी जमीन की उर्वरता इस बात पर निर्भर करती है कि हम वर्षों से इसका इस्तेमाल कैसे करते आए हैं.
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