समलैंगिकता को अपराध के दायरे से निकालने की सुप्रीम कोर्ट की पहल से पहले भी बहुत कुछ घट चुका है लेकिन सरकार का रवैया हमेशा हिचकिचाहट भरा रहा है. तमाम मसलों पर घंटों बोलने वाले बड़े नेताओं की स्पष्ट राय समलैंगिकता पर नहीं सुनने को मिली है. संसद को कानून बनाने का अधिकार है और वो जब चाहे धारा 377 के उस उपबंध में बदलाव कर सकती है जिससे समलैंगिकता अभी अपराध है. 2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने पहली बार समलैंगिकता को अपराध बनाने वाली आईपीसी की धारा 377 को संविधान के खिलाफ करार दिया. इस फैसले को आठ साल से ज्यादा का वक्त हो गया है. कांग्रेस-यूपीए की सरकार कार्यकाल पूरा कर गई अब भाजपा-एनडीए की सरकार भी चार साल पूरे करने वाली है- इस मुद्दे पर कानूनी बदलाव की हिम्मत किसी में नहीं पाई गई. इतना ही नहीं विधि आयोग ने धारा 377 पर 2013 में अपनी रिपोर्ट में बदलाव की सिफारिश की लेकिन सरकार ने इसपर तवज्जो नहीं दी. जाहिर है मुद्दा ऐसा है कि बोलते ही राजनीति होगी और कोई भी पार्टी अपनी फजीहत नहीं कराना चाहती.
इसके अलावा हिंदू-मुस्लिम धार्मिक संगठनों का रुख भी सरकार के रुख को प्रभावित करता है लेकिन समाज का नजरिया इस पर अस्पष्ट रहा है. समाज समलैंगिकों को कभी तो स्वीकार करता है और कभी खारिज. लोगों का रुख हर घटना के मुताबिक बदलता रहता है.
इसे कुछ घटनाओं से आसानी से समझा जा सकता है. पंजाब पुलिस की एक समलैंगिक दारोगा ने अप्रैल 2017 में अपनी सहेली से धूमधाम से शादी की. बेहतर काम के लिए सम्मानित हो चुकी मंजीत कौर संधू नामक इस दारोगा की शादी के जश्न में दर्जनों लोगों ने शिरकत की. कहीं कोई विरोध नहीं हुआ. 12 साल पहले की बनारस की एक घटना है. वहां एक शादीशुदा पुरुष दारोगा घर में एक युवक को अपने साथ रखता था. उन दोनों के समलैंगिक संबंध थे और पूरे मोहल्ले के लोग उस युवक को 'छोटी बहू' कहते...
समलैंगिकता को अपराध के दायरे से निकालने की सुप्रीम कोर्ट की पहल से पहले भी बहुत कुछ घट चुका है लेकिन सरकार का रवैया हमेशा हिचकिचाहट भरा रहा है. तमाम मसलों पर घंटों बोलने वाले बड़े नेताओं की स्पष्ट राय समलैंगिकता पर नहीं सुनने को मिली है. संसद को कानून बनाने का अधिकार है और वो जब चाहे धारा 377 के उस उपबंध में बदलाव कर सकती है जिससे समलैंगिकता अभी अपराध है. 2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने पहली बार समलैंगिकता को अपराध बनाने वाली आईपीसी की धारा 377 को संविधान के खिलाफ करार दिया. इस फैसले को आठ साल से ज्यादा का वक्त हो गया है. कांग्रेस-यूपीए की सरकार कार्यकाल पूरा कर गई अब भाजपा-एनडीए की सरकार भी चार साल पूरे करने वाली है- इस मुद्दे पर कानूनी बदलाव की हिम्मत किसी में नहीं पाई गई. इतना ही नहीं विधि आयोग ने धारा 377 पर 2013 में अपनी रिपोर्ट में बदलाव की सिफारिश की लेकिन सरकार ने इसपर तवज्जो नहीं दी. जाहिर है मुद्दा ऐसा है कि बोलते ही राजनीति होगी और कोई भी पार्टी अपनी फजीहत नहीं कराना चाहती.
इसके अलावा हिंदू-मुस्लिम धार्मिक संगठनों का रुख भी सरकार के रुख को प्रभावित करता है लेकिन समाज का नजरिया इस पर अस्पष्ट रहा है. समाज समलैंगिकों को कभी तो स्वीकार करता है और कभी खारिज. लोगों का रुख हर घटना के मुताबिक बदलता रहता है.
इसे कुछ घटनाओं से आसानी से समझा जा सकता है. पंजाब पुलिस की एक समलैंगिक दारोगा ने अप्रैल 2017 में अपनी सहेली से धूमधाम से शादी की. बेहतर काम के लिए सम्मानित हो चुकी मंजीत कौर संधू नामक इस दारोगा की शादी के जश्न में दर्जनों लोगों ने शिरकत की. कहीं कोई विरोध नहीं हुआ. 12 साल पहले की बनारस की एक घटना है. वहां एक शादीशुदा पुरुष दारोगा घर में एक युवक को अपने साथ रखता था. उन दोनों के समलैंगिक संबंध थे और पूरे मोहल्ले के लोग उस युवक को 'छोटी बहू' कहते थे.
समलैंगिकों को मान्यता देने वाली खबरों के अलावा इन पर हमले और यौन हमले की खबरें भी अक्सर आती रहती हैं. बागपत के बलवीर कृष्ण के उत्पीड़न की पूरी दास्तां रोंगटे खड़े करने वाली है. इसी वजह से वे अपने समलैंगिक जीवनसाथी के साथ अमेरिका में रह रहे हैं. उनपर कितने यौन हमले हुए. (इनकी व्यथा-कथा इन्हीं की जुबानी आप इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी-2017 में पढ़ सकते हैं). लेकिन समाज पर गहरा असर रखने वाला धर्म इस पर गंभीर आपत्ति करता है. हिंदू और मुसलिम धार्मिक संगठनों ने अदालत में समलैंगिकता का खुला विरोध किया है और इसे अधर्म करार दिया है. इसी रुख का असर नेताओं पर पड़ा जो कि खुलकर कुछ भी बोलते नहीं कानून बदलना तो दूर की बात है.
विदेशों में तो हालत और भी गंभीर है. इसी महीने (जनवरी 2017) में सऊदी अरब का गे-पुरुषों की शादी का एक वीडियो वायरल हो रहा है. ये शादी मक्का से 300 किलोमीटर दूर हुई है और इसमें शामिल लोगों को पुलिस पकड़कर ले गई, ऐसी भी खबरें आई हैं. तमाम इसलामिक देशों में समलैंगिकों के लिए मृत्युदंड तक के प्रावधान हैं लेकिन आमतौर पर इन्हें लागू नहीं किया जाता है या कुछेक मामलों में हल्की सजा दी जाती है. लेकिन धारणा के विपरीत इटली और अमेरिका में भी इसका विरोध होता है. 40 साल से समलैंगिकों का इलाज कर रही इटली की चचिर्त महिला डॉक्टर सिल्वाना डि मारी ने समलैंगिकों को मानसिक तौर पर बीमार और इनके कृत्य को अप्राकृतिक करार दिया तो उस पर मानहानि का मुकदमा कर दिया गया हालांकि दिसंबर 2017 में उन्हें कोर्ट ने बरी कर दिया. डि मारी की तरह भारत में चिकित्सा विज्ञान के लिहाज से अभी तक कोई स्वतंत्र राय या अध्ययन कोर्ट के सामने नहीं लाया गया है. इसे मान्यता देने की स्थिति में सामाजिक असर का कोई आकलन सरकार के पास नहीं है. मान लीजिए अगर ये लागू हो गया तो स्कूल-कॉलेजों, पार्कों, दफ्तरों समेत अन्य सार्वजनिक स्थानों पर समलैंगिकों की भाव भंगिमा को समाज किस तरह लेगा- इसका इंतजाम सरकार को पहले सोच लेना चाहिए. अन्यथा कानून के सदुपयोग और दुरुपयोग की महीन रेखा कभी भी खत्म होती दिख सकती है.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.