इतिहास पर इधर कितनी जानकारियां सोशल मीडिया ने मुहैया कराई है. कभी इतिहास ना पढ़ने वाले भी दिलचस्पी ले रहे हैं. अलग-अलग नजरिए से अलग-अलग इतिहास. स्वाभाविक है कि बहुत सारे सच और झूठ के साथ भी तथ्य आ रहे हैं. क्योंकि जितने सच के प्रमाण और आंकलन हैं उससे कहीं ज्यादा प्रमाण और आंकलन झूठ के भी हैं. लोग खूब लिख रह रहे हैं. खूब प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. आगे कुछ लिखने से पहले औरंगजेब के उत्तराधिकारियों की एक दिलचस्प प्रतिक्रिया साझा करना चाहूंगा.
राजपूत घरानों में विवाह करने भर से उदार होने का दर्जा पा चुके मुगलों के वंश में लगातार औरंगजेब जैसे बर्बर बादशाह कैसे जन्म लेते हैं- इसपर एक भक्त ने प्रतिक्रिया दी कि वैसे ही जैसे रावण के घर में विभीषण. काश कि सौ में से एक भी अंश औरंगजेब ने रावण का पाया होता तो शायद मुगलों का इतिहास कुछ दूसरा होता. लेकिन भारत इतने पर भी खुश हो सकता है कि कम से कम रावण और विभीषण का दर्शन समझें बिना भी कोई विधर्मी उनकी अच्छाई देख पा रहा है तो यह कुछ कुछ कम मानवीय नहीं है. राम से इर्ष्या में कहां तो वह रामायण ही भूल गए थे. उन्हें रावण याद आ रहा तो यह सनातन सभ्यता की जीत है.
ज्ञानवापी प्रकरण में औरंगजेब के ही बचाव में एक विद्वान ने सोशल मीडिया पर सवाल किया कि कैसे कुछ हजार मुग़ल टहलते हुए बनारस तक पहुंच गए. और भारत के लाखों शूरवीर कहां थे? रिश्तेदारियां क्यों कर ली? दरबारी क्यों बन गए? जमींदारियां क्यों ले ली? आम जनता क्यों नहीं लड़ी? और सबसे अहम सवाल कि क्या उस समय तलवार उठाने का हक़ कई जातियों को क्यों नहीं था? किस वजह से जनता के मन में राष्ट्रीय चेतना नहीं थी?
इतिहास खोजने पर सभी सवालों का जवाब मिल जाता है. लेकिन इतिहास का दुर्भाग्य यह भी है कि लोग अपने मतलबभर का जवाब और उसके साथ सवाल...
इतिहास पर इधर कितनी जानकारियां सोशल मीडिया ने मुहैया कराई है. कभी इतिहास ना पढ़ने वाले भी दिलचस्पी ले रहे हैं. अलग-अलग नजरिए से अलग-अलग इतिहास. स्वाभाविक है कि बहुत सारे सच और झूठ के साथ भी तथ्य आ रहे हैं. क्योंकि जितने सच के प्रमाण और आंकलन हैं उससे कहीं ज्यादा प्रमाण और आंकलन झूठ के भी हैं. लोग खूब लिख रह रहे हैं. खूब प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. आगे कुछ लिखने से पहले औरंगजेब के उत्तराधिकारियों की एक दिलचस्प प्रतिक्रिया साझा करना चाहूंगा.
राजपूत घरानों में विवाह करने भर से उदार होने का दर्जा पा चुके मुगलों के वंश में लगातार औरंगजेब जैसे बर्बर बादशाह कैसे जन्म लेते हैं- इसपर एक भक्त ने प्रतिक्रिया दी कि वैसे ही जैसे रावण के घर में विभीषण. काश कि सौ में से एक भी अंश औरंगजेब ने रावण का पाया होता तो शायद मुगलों का इतिहास कुछ दूसरा होता. लेकिन भारत इतने पर भी खुश हो सकता है कि कम से कम रावण और विभीषण का दर्शन समझें बिना भी कोई विधर्मी उनकी अच्छाई देख पा रहा है तो यह कुछ कुछ कम मानवीय नहीं है. राम से इर्ष्या में कहां तो वह रामायण ही भूल गए थे. उन्हें रावण याद आ रहा तो यह सनातन सभ्यता की जीत है.
ज्ञानवापी प्रकरण में औरंगजेब के ही बचाव में एक विद्वान ने सोशल मीडिया पर सवाल किया कि कैसे कुछ हजार मुग़ल टहलते हुए बनारस तक पहुंच गए. और भारत के लाखों शूरवीर कहां थे? रिश्तेदारियां क्यों कर ली? दरबारी क्यों बन गए? जमींदारियां क्यों ले ली? आम जनता क्यों नहीं लड़ी? और सबसे अहम सवाल कि क्या उस समय तलवार उठाने का हक़ कई जातियों को क्यों नहीं था? किस वजह से जनता के मन में राष्ट्रीय चेतना नहीं थी?
इतिहास खोजने पर सभी सवालों का जवाब मिल जाता है. लेकिन इतिहास का दुर्भाग्य यह भी है कि लोग अपने मतलबभर का जवाब और उसके साथ सवाल उठा लाते हैं इतिहास से बस. यहां आख़िरी लाइन तक कुछ सवालों के जवाब मिल सकते हैं, तमाम सवाल जिनके जवाब यहां नहीं हैं उन्हें कहां खोजा जा सकता है? उसका रास्ता भी मिल सकता है. हमलों और गुलामी को समझने से पहले हमले क्यों हुए इसे सरसरी तौर पर जानना चाहिए. विदेशी ताकतें भारत में क्यों जीतती रहीं, उसको जानने के लिए सबसे पहले प्राचीन समाज व्यवस्था और उसमें हुए कुछ बदलाव को भी समझ लेते हैं.
कबीले से राज्य बनने तक समाज कैसा रहा होगा?
1) परिवार और समाज को लेकर भय-भूख और भ्रष्टाचार से मुक्त दिखता है. हालांकि भारतीय समाज में नियंत्रण और विस्तार का संघर्ष भी है. निष्कर्ष भी है. पुराणों और प्राचीन धर्म दर्शनों में संकेत प्रमाण है. और यह एक दो महीने या साल में नहीं हुआ होगा. कई दशकों में हुआ और धारणाएं मनमस्तिष्क में बैठती गईं. जैसे तमाम क्षत्रीय जनजातियां सैकड़ों साल से इस तरह दरबदर, दमित हुईं कि उन्होंने अपने वर्तमान को ही अपना इतिहास मान लिया है. चूंकि नियंत्रण की कोशिशें थीं तो नियमों का मनमाना उल्लंघन हुआ. इस मनमाने उल्लंघन से उपजे असंतोष का नतीजा समय के साथ आज की तारीख में हिंदुओं की हजारों जातियों के रूप में देखी जा सकती हैं.
2) निजी संघर्षों में निजी इच्छाएं संस्थागत रूप लेती गई. कबीलों में पुरोहित, नेता, व्यापारी और कृषक होने का मतलब और दायित्व बदलते गया. उनका चक्रण भी प्रभावित होने लगा. चक्रण प्रभावित होने और दायित्व बदलने के क्रम में ना जाने कितनी जातियों के बनने और बिगड़ने के सूत्र पाए जा सकते हैं. इसका एक उदाहरण तो देवदासी प्रथा से भी उठाया जा सकता है. यह सोचने वाली बात है कि वेश्यावृत्ति भारतीय समाज में किसी भी दृष्टि से हेय नहीं था. यह बहुत स्वतंत्र, मान्यताप्राप्त, स्वच्छंद और बेहद सम्मानित पेशा था. दुनिया की तमाम जनजातियों में प्राचीन दौर से मिलता है.
3) समय के साथ जब कबीले बड़े और विशाल राज्य का रूप धरने लगे सभी चीजों पर नियंत्रण की एकध्रुवीय कोशिशें शुरू होने लगीं. उसी दौर में रक्षक वर्ग जो आर्म्ड था हिंसक था और नेता था- उसकी मनमानियां देखने को मिलती हैं. सुंदर और कमनीय स्त्रियों पर नजरें थीं. भारत के प्राचीन विकसित राज्यों में वेश्यावृत्ति उद्योग और मनोरंजन के रूप दिखती है. नगरवधू, गणिका, नर्तकी, गायक उसी समय निकले. इसने एक नए तरह के कारोबार और अपने आसपास व्यभिचार को जन्म दिया. यह पुराने नियमों के अनुकूल नहीं था. चूंकि यह आर्म्ड लोगों के मातहत था कौन नियम की दुहाई देता. पतन शुरू हो गया.
4) सशस्त्र समूह कमनीय स्त्रियों के लिए मनमानियां करने लगे. उसे जबरन भोगने लगे. कुछ सौ साल पहले स्थिति ऐसी आई कि कमजोर परिवारों ने अपनी सुंदर बेटियों को मंदिरों को दान देना शुरू किया. उन्हें बचाने के लिए उनका विवाह ईश्वर से कर दिया गया. कुछ समय तक ईश्वर की ओट में नियम से सुंदर महिलाएं सुरक्षित रहीं, मगर कई जगह खुद को ईश्वर का प्रतिनिधि बताकर पुजारियों ने ही नियम का दुरुपयोग शुरू कर दिया. ऐसा माना जाता है. पुजारी धार्मिक रूप से कम शक्तिशाली था.
5) चक्रण का नियम पूरी तरह से बाधित हो चुका था. उसकी जगह प्रभावशाली परिवारों को और समूहों की गोलबंदी लेने लगी. व्यभिचार ने ले लिया. प्राचीन समाज व्यवस्था में जो बंटवारा किया गया था उसके नियम और बुरी तरह प्रभावित हुए क्योंकि प्रभावशाली गोलबंदियों ने समाज पर और तेज प्रहार किए. व्यभिचारों ने भी एक अलग ही तरह का समाज बनाया, और उसके लिए हमारा ही समाज जिम्मेदार है. अलग अलग व्यभिचारों ने ही हजारों जातियों का समूह खड़ा कर दिया. वर्ना तो कृष्ण ने चार ही जाति बनाई और साफ साफ़ कहा कि इसका मतलब यह नहीं कि मैं उन्हें बाँट रहा हूं.
6) सामजिक पतन में जड़ता का भाव स्थायी होता गया. उसकी जगह नियमों की सुविधाजनक और मनमानी व्याख्याओं, धार्मिक कुरीतियों ने ले ली. समाज में सटी प्रथा की शुरुआत कैसे हुई भला. हालांकि समाज में मानवीय मूल्य थे और मानवीय मूल्यों का जड़ता से लगातार संघर्ष हुआ. संघर्ष ने मुद्दे बनाए और चुनौतियां पेश की. अरबों के आक्रमण के पहले तक का समाज शायद इसी अवस्था में रहा होगा.
- कुछ प्रभावशाली जातियों की व्यापक नियंत्रण की इच्छा.
- कुछ जातियों की गोलबंदी, नियमों की मनमानी व्याख्या.
- समाज को धर्म के कोड़े से हांकने के लिए अंधविश्वासों का सहारा.
विदेशी ताकतों को न्यौता कैसे मिला?
भारतीय शासकों के संबंध विदेशी जनजातियों और सभ्यताओं में थी. सत्ता विस्तार की महत्वाकांक्षा में विदेशी ताकतों को निमंत्रण दिया गया. मुगलों तक कई विदेशी ताकतों को न्यौता देकर बुलाया गया. इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि चौथी सदी के आसपास भारत के एक ताकतवर अभीर राजा के राजकीय समारोह में यमन के मेहमान पहुंचे थे. वैदिक भारत के समय से ही अभीरों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बहुत प्रबल थी. यह राजनीतिक रूप से सबसे ताकतवर जाति थी. लेकिन समाज में इनकी मनमानियों के खिलाफ गुस्सा भी दिखता है.
हालांकि यह अंतिम निष्कर्ष नहीं है- लेकिन शोध का विषय है. हैहय क्षत्रियों को ही अभीरा जनजाति या उनके लिए युद्ध करने वाला माना जाता है. ये वही हैहय क्षत्रिय हैं जिनका परशुराम ने पूरी तरह से सफाया कर दिया था. कुछ पौराणिक संदर्भ मिलते हैं जिससे पता चलता है कि परशुराम के हाथों कुछ हैहय बच गए थे. 10वीं शताब्दी में परमार शासकों का एक दिलचस्प शिलालेख प्राप्त हुआ है. शिलालेख में अभीरा जनजाति को खतरा बताया गया है और इनका शीघ्र निराकरण करने की बात है.
मानवीयता, सामाजिक, पारिवारिक मूल्य
समझा जा सकता है कि हजारों साल की प्रक्रिया के बाद मध्यकाल तक कुछ सौ छोटे कबीले कैसे बड़े बड़े सामाजिक समूहों और फिर बड़े जनपदों की स्थिति तक पहुंच गए होंगे. जो एक बढ़िया चीज थी वह सामजिक पारिवारिक मूल्यों का आदर्श और धर्मों का दर्शन था. जहां तक विदेशी ताकतों से हारने का सवाल है यही चीजें बहुत प्रभावी हुईं. इसे लेकर खूब सारे शोध हुए हैं और लगातार हो रहे हैं.
आक्रमणकारी जनजातीय परिवारों और यहां के निवासी परिवारों के मूल्यों और सामाजिक ढाँचे के फर्क को देखें तो समझना ज्यादा मुश्किल नहीं. भारतीय परंपरा अभी भी आदर्श स्थिति में है और उनकी तुलना में बहुत आगे नजर आती है. स्वतंत्रता के लिहाज से. उदाहरण के लिए राजाओं में उत्तराधिकार के भारतीय नियम पर गौर किया जाना चाहिए. राजा की पटरानी का सबसे बड़ा बेटा ही राजा बनेगा. वह सक्षम है या नहीं यह बाद की बात है. और जो राजा का बेटा नहीं है उसका तो सवाल ही नहीं. सबसे बड़ा सवाल है कि चक्रिय ढाँचे वाले समाज में यह स्थिति आई तो आई कैसे और उसके पीछे मनमानियां क्या रही होंगी. खैर, हम इस विषय को छोड़कर आगे बढ़ते हैं और उसके आगे पौराणिक इतिहास में दो बड़े उदाहरण उठाते हैं. भगवान राम और धृतराष्ट्र के उदाहरण.
राम बड़े हैं, लेकिन अपने चार भाइयों में सर्वगुण संपन्न हैं. उनमें भारत जैसा धैर्य है, लक्षमण जैसी क्रोध और शक्ति है शत्रुघ्न जैसा भ्रातृत्व का अप्रतिम समर्पण है. लेकिन राम जैसा गुण उनके किसी एक भाई में नहीं दिखता है. राम अपने समय के समाज में उत्तराधिकार नियम के अनुकूल हैं. पूरी तरह से. धृतराष्ट्र और उनके भाई पांडू का उदाहरण देखिए. धृतराष्ट्र ताकतवर है पारिवारिक है बावजूद उसमें घृणा है, लालच है, स्वार्थी है. सबसे बड़ी बात अपंग भी है. इसलिए उत्तराधिकार के नियम का उल्लंघन कर धृतराष्ट्र की जगह पांडू को राजा बनाया गया.
इतिहास में उत्तराधिकार के आदर्श ढोने की कोशिश, दो कहानियों से समझिए
अब देखिए. पांडु के निधन के बाद विकल्पों की दुहाई देकर धृतराष्ट्र को राजा बना दिया गया. जबकि विदुर भी धृतराष्ट्र की बजाए योग्य उत्तराधिकारी हो सकते थे. लेकिन विदुर दासी के बेटे थे, जो तत्कालीन समाज के व्यभिचार से जन्मे थे. शायद तब नियम बदला गया होता और विदुर पांडु की जगह लेते तो लीलाधर गोपाल की महाभारत का प्रसंग कम से कम उस तरह से नहीं आता जैसा कुरुक्षेत्र में दिखा. ना जाने कितनी भारतीय जनजातियों का अंत हुआ था उस महाभारत में. विदुर के विकल्प का ध्यान ही नहीं आया या जानबूझकर किसी ने चालाकी की. याद रखिए, कृष्ण का ही दौर है वह. महाभारत हुआ ही इसलिए कि धृतराष्ट्र ने उत्तराधिकार के नियम बदलने की कोशिश की. धर्मराज से बेहतर राजा भला दुर्योधन कैसे हो सकता है. जब पांडु के लिए नियम बदला तो धर्मराज के लिए क्या दिक्कत थी?
भारतीय परंपरा में आंख मूंदकर रजवाड़ों में उतराधिकार पारंपरिक रूप से चलता रहा. आदर्श जरूर हमेशा मर्यादा पुरुषोत्तम राम का रहा. उत्तराधिकार में हमेशा पटरानी और बड़े बेटे का ध्यान दिया गया लेकिन अन्य शर्तों का ख्याल किसे को नहीं आया. राम की आड़ लेकर एक मनमाना नियम बनाया गया. इस वजह से योग्य और भविष्य देखने वाले शासकों की कमी हुई. लगभग यही स्थिति राजा के नीचे की व्यवस्था में भी बन चुकी थी. मसलन मंत्री सेनापति कारीगर व्यापारी किसान और सेवक वर्ग. भारत का मध्यकाल इसीलिए संकटग्रस्त दिखता है.
आक्रमणकारी जनजातियों के उत्तराधिकार मूल्य देखिए
अरबों या दूसरी आक्रमणकारी जनजातियों की परिवार व्यवस्था देखिए. वहां कोई भी स्थिति आदर्श नहीं है. खूब विद्रोह दिखता है. भाई को राजा बना दिया गया तो दूसरा बेटा असहमत हो गया. अलाऊद्दीन खिलजी ने अपने चाचा को मार दिया. औरंगजेब ने भाई को मार दिया पिता को कैद किया. सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं. वहां हर कोई प्रतिस्पर्धा करने को आतुर है. गुलाम तक. यह कोई नियम नहीं, लेकिन खानाबदोश प्रतिस्पर्धा में हमेशा उनका सबसे बेहतर योद्धा और शासक ही बाहर निकला. रजवाड़ों के दौर में इसीलिए वे अजेय बने रहे. जो जितना बर्बर था उसके वंश का उतना शासन चला. औरंगजेब को ही ले लीजिए. उनकी सेनाओं में विद्रोह हुए. बाबर की सेना में रहे शेरशाह सूरी को ले लीजिए. सूरी किसी रानी के पेट से पैदा नहीं हुआ था. बादशाह बना. और भारत का झूठा इतिहास उसके चरणों में लोट गया.
मध्यकाल में मुगलों को मिले तीन जवाब से समझें भारत कहां और क्यों कमजोर था?
पारिवारिक मूल्य होना ठीक बात है लेकिन उसे हर जगह नहीं थोपा जा सकता. खासकर राजनीति में. महाभारत राजनीतिक लिहाज से ही भारत को रास्ता दिखाता है और मकसद बताता है. मध्यकाल में सिर्फ तीन योद्धा मिलते हैं जो मुगलों को उनकी ही भाषा में जवाब देते हैं. छत्रपति शिवाजी महाराज, छत्रपति संभाजी महाराज और कीका यानी महाराणा प्रताप. अब इतिहास में तीनों योद्धाओं के बैकग्राउंड तलाशिए. शिवाजी महाराज कौन थे कैसे राजा बने. शिवाजी महाराज के लिए युद्ध, योग्यता और पारिवारिक मूल्य अलग थे. यहां तक कि बेटे के खिलाफ उनके कान भर दिए गए. उन्होंने संभाजी को दुत्कार दिया. और उनकी जगह एक दूसरा बेटा उत्तराधिकार में बाजी मारता दिखता है. पर संभाजी हारकर बैठे नहीं, बल्कि उन्होंने साबित किया कि वे ही सबसे योग्य हैं. हर लिहाज से.
शिवाजी के बाद जो मराठे बिखराव का शिकार हो गए थे संभाजी के महान शौर्य और शहादत ने उन्हें एकजुट कर दिया अंग्रेजों के आने तक महाराष्ट्र का सबसे बड़ा भूभाग इतिहास के चैम्पियन मुगलों से अछूता ही रहा. संभाजी ने अपने समाज को एक नया धार्मिक राजनीतिक मूल्य दिया. उनका समाज आज भी उस पर अडिग है. सोचने वाली बात है कि 1300 साल की गुलामी में दक्षिण के तमाम रजवाड़ों का इतिहास उत्तर की तुलना में आखिर क्यों बहुत बेहतर बना हुआ है. आपको मालूम नहीं होगा कि मराठे मुगलों को एक युद्ध में हराकर मथुरा के कृष्ण मंदिर का जीर्णोद्धार करते हैं. पुणे से आए हुए मराठे. मथुरा को इतनी बार ढहाया गया है कि आप समझ भी नहीं सकते.
शिवाजी महाराज से पहले राणा प्रताप का इतिहास देखिए. कभी इत्मीनान से सोचिए कि वह कैसा समाज था कि एक राजा का बेटा एक भील के परिवार में पल रहा था. भारतीय इतिहास के महान शूरमा कीका ने भील शेरनी का दूध पिया था. उस दूध की ताकत इतनी थी कि घास की रोटी खाकर भी कीका अपने स्वाभिमान के लिए अकबर को रौंदते रहें. उसे आजन्म तुर्क ही कहा. राणा के परिवार का घास की रोटी खाना प्रतीक भर नहीं है.
राणा प्रताप को गद्दी नहीं मिली. उन्हें सरदारों के दबाव के बाद राजा बनाया गया और जीवन भर उनके शौर्य ने इसे साबित किया. इसी चक्कर में राणा के एक भाई मुगलों से मिल गए. हल्दीघाटी में जब राणा को मैदान से निकलना पड़ा कुछ मुगलों ने उनका पीछा किया. जो भाई राणा से सत्ता की वजह से अलग हुआ था उससे रहा नहीं गया. वह भी पीछे पीछे चल पड़ा.
इससे पहले कि मुग़ल राणा को निशाना बनाते उनके भाई ने दुश्मनों से जूझ पड़ा. मुग़ल मारे गए. राणा का भाई और भारत के इतिहास का सबसे महान घोड़ा चेतक भी शहीद हुआ. राणा भाई के प्रेम से रो पड़े. उनका अंतिम संस्कार किया. राणा के भाई की समाधि पर लोग पूजा करते हैं.
दूध की नदियाँ बहाने वाले अभीरा के बेटों से पूछिएगा कभी मिले तो- कैसे और क्यों हजारों साल की परंपरा टूटी थी और देवता के प्रसाद "लपसी" में दूध और जौ की जगह गेहूं, पानी और चीनी ने ले लिया था. यह नियम तो उन्होंने ही लिखा था वेदों में दूध दही छाछ घी भात और जौ की विशेषता बताते हुए. फिर लपसी का नियम प्रतीक भर में क्यों बचा रहा गया. उत्तर के ग्रामीण भारत में हजारों साल से 2022 तक लपसी ग्राम देवता के प्रसाद के रूप में जिंदा है. कब उत्तर में हमारी अवर्ण सवर्ण माताएं महुए को कूट-कूटकर खाने को विवश हुईं और हरे पेड़ों का छाल पीसकर पीने को मजबूर हुईं. बच्चों को दूध की जगह आटे घोलकर पिलाए गए.
अपने आदर्श और मूल्यों की वजह से हारता रहा भारत, अब नहीं हारेगा
हमारी स्थिति की वजह हमारे पारिवारिक सामजिक और मानवीय मूल्य थे. सामाजिक वर्णक्रम का रुका हुआ चक्रण था. वेदों-पद्म पुराण में अभीरा के बेटों से किया वादा भगवान् विष्णु ने पूरा किया. अभीरा के बेटों को भारत ने सबसे बड़े देवी-देवता के रूप में पूजा. अभीरा के घर में शिशुपाल कैसे पैदा होने लगे.
समुद्र यात्राओं पर तात्कालिक प्रतिबंध किस वजह से लगा था. अभीरा के बेटों को भविष्य का वह कौन सा डर सता रहा था कि उन्होंने समुद्री यात्राओं को हमेशा के लिए प्रतिबंधित कर दिया. भारत इसलिए नहीं हारा कि वह कमजोर था. इसलिए हारा कि किसी ने बताया- गायों को आगे करने पर वे हथियार नहीं चलाएंगे. उनपर रात में हमला करो और भीषण दमन करो. अमानवीयता से उन्हें डर लगता है. गांव के गांव लूटों और बलात्कार करो. वे सिर नहीं उठा पाएंगे.
जिस भी जाति के हों. शहरों का तो नहीं लेकिन गांव के लोगों को पता करना चाहिए कि उनके पुरखे अभी जहां हैं क्या दो सौ साल पहले भी वहीं थे. 1300 साल तक धरती का सबसे सभ्य और शिक्षित समाज दर दर भटकता रहा है. खानाबदोश बना और कुछ हद तक दूषित ही सही वैदिक परंपराओं की ओर ही गया. दूषित होने से बचने के लिए था भी क्या उसके पास. अंग्रेजों के आने के बाद ही उसके भटकाव का सिलसिला थमता है.
आप सोचते हैं भारत मुगलों से सिर्फ इसलिए हार गया क्योंकि भारत में वीर ही नहीं थे. खूब थे. दो चार को छोड़ सबके सब मुगलों के साथ थे. कथा कौतुकम पढ़ने के बाद तो लगता है कि उनमें से शायद मुग़ल भी बन है होंगे तमाम. उन्हें तो सत्ता चाहिए थी उसके आदर्श और लक्ष्य नहीं.
भारत सिर्फ इसलिए नहीं हारा कि उसकी युद्धनीति कमजोर थी. सेना की टुकड़ियों में आगे आगे हाथियों का दस्ता होता था. हाथी भड़क जाते थे भारत हार जाता था. भारत ठहराव का शिकार हो गया था अपने में ही छीना झपटी करने लगा था और हमीं लोगों ने प्लेट में भारत को सजाकर विदेशी हाथों में सौंप दिया. सत्ता के ही बदले सुरक्षा का जिम्मा अभीरा के बेटों ने लिया था. बाकी का गुलाम होना समझ में आता है अभीरा जिसे किसी तरह का भय ही ना हो उसके बेटे भला कैसे गुलाम बन गए?
शरारत भी जारी है और कृष्ण-गायत्री-दुर्गा का ठेका भी दूसरों को देंगे. नहीं चलेगा. बुजुर्ग सबके हैं. वचनबद्ध विष्णु हैं, आज का भारत नहीं.
भारत क्यों हारा समझाने की जरूरत नहीं शायद अब. राम-कृष्ण-गौतम व्यक्ति भर नहीं. वह अपनी जिम्मेदारी के साथ हर दौर में आते हैं. उन्हें महसूस करिए.
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