मौन एक ऐसी अवस्था जिसे सुनने की कला सबके पास नही होती. मैं मौन हूँ 26 सालों से उस हालात पर जिसे हर बार देखकर-सुनकर अनदेखा और अनसुना कर दिया जाता है. मेरे अंदर उस मौन ने जगह बना ली है पर कभी ना कभी तो फैलेगा मेरा मौन.. मैं कश्मीर से हूँ मैं आजकल कश्मीर के बनाए हुए अमन के गीतों में गुम हूँ, मैं कश्मीर पर बनाए हुए विज्ञापनों में भी नहीं हूँ मैं कहीं नही हूँ इसीलिए शायद मेरा मौन दब गया है पिचक गया है.. शायद इसीलिए इस संसार में मुझे कोई देख नहीं पाया मैं शरणार्थी हूँ पर किसी ने मुझे शरण में भी नहीं लिया..
मेरे घर की दीवारें चीख-चीख कर मुझे अपने पास बुलाती हैं वो दीवारें छाती पीट-पीटकर रोती है.. पर वो भी मौन है इसीलिए सब मौन है.. 19 जनवरी 1990 कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ उससे शर्म से सबको झुक जाना चाहिए. जब भी मेरे समुदाय के विस्थापन याद आता है तो मुझे उस कश्मीरी हिन्दू की याद आ जाती है जिसने मुझसे कहा था कि ''मेरे बचपन को मुझसे छीनने का हिसाब मुझे कौन देगा'' ''काट-काटकर फैंकी गई लाशों का हिसाब कौन देगा'' जब मैंने ये सुना तो फिर मौन की अवस्था जाग गई फिर उस दबे हुए मौन से चीखें निकलने लगी. हाँ! ये सही है कि हम अच्छे घरों में रहते है अच्छे कपड़े पहनते है पर कपड़े बांधकर कभी ये किसी को नहीं कह पाते कि ''गाँव जा रहे हैं'' अपने प्रदेश जा रहे हैं..
ये सच है कि मुझे वहां नही रहना पर मुझे वहां की स्थिति को देखकर अशांत भी नहीं रहना.. 2016 में कश्मीर घूमने गए थे.. जी हाँ!! हम अपनी ही धरती पर घूमने जाते हैं और अपने ही प्रदेश में पर्यटक बनकर जाते हैं.. जब मेरी माँ ने मुझे बताना शुरू किया कि कौन सी जगह में उन्होंने अपने बचपन के खूबसूरत पाल बिताए हैं तो टैक्सी के ड्राईवर ने फट से बोला- ''तोही माहरा छव सोरी जानान'' मेरी माँ ने गुस्से में बोला- ''मैंने अपना बचपन यहाँ बिताया है...
मौन एक ऐसी अवस्था जिसे सुनने की कला सबके पास नही होती. मैं मौन हूँ 26 सालों से उस हालात पर जिसे हर बार देखकर-सुनकर अनदेखा और अनसुना कर दिया जाता है. मेरे अंदर उस मौन ने जगह बना ली है पर कभी ना कभी तो फैलेगा मेरा मौन.. मैं कश्मीर से हूँ मैं आजकल कश्मीर के बनाए हुए अमन के गीतों में गुम हूँ, मैं कश्मीर पर बनाए हुए विज्ञापनों में भी नहीं हूँ मैं कहीं नही हूँ इसीलिए शायद मेरा मौन दब गया है पिचक गया है.. शायद इसीलिए इस संसार में मुझे कोई देख नहीं पाया मैं शरणार्थी हूँ पर किसी ने मुझे शरण में भी नहीं लिया..
मेरे घर की दीवारें चीख-चीख कर मुझे अपने पास बुलाती हैं वो दीवारें छाती पीट-पीटकर रोती है.. पर वो भी मौन है इसीलिए सब मौन है.. 19 जनवरी 1990 कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ उससे शर्म से सबको झुक जाना चाहिए. जब भी मेरे समुदाय के विस्थापन याद आता है तो मुझे उस कश्मीरी हिन्दू की याद आ जाती है जिसने मुझसे कहा था कि ''मेरे बचपन को मुझसे छीनने का हिसाब मुझे कौन देगा'' ''काट-काटकर फैंकी गई लाशों का हिसाब कौन देगा'' जब मैंने ये सुना तो फिर मौन की अवस्था जाग गई फिर उस दबे हुए मौन से चीखें निकलने लगी. हाँ! ये सही है कि हम अच्छे घरों में रहते है अच्छे कपड़े पहनते है पर कपड़े बांधकर कभी ये किसी को नहीं कह पाते कि ''गाँव जा रहे हैं'' अपने प्रदेश जा रहे हैं..
ये सच है कि मुझे वहां नही रहना पर मुझे वहां की स्थिति को देखकर अशांत भी नहीं रहना.. 2016 में कश्मीर घूमने गए थे.. जी हाँ!! हम अपनी ही धरती पर घूमने जाते हैं और अपने ही प्रदेश में पर्यटक बनकर जाते हैं.. जब मेरी माँ ने मुझे बताना शुरू किया कि कौन सी जगह में उन्होंने अपने बचपन के खूबसूरत पाल बिताए हैं तो टैक्सी के ड्राईवर ने फट से बोला- ''तोही माहरा छव सोरी जानान'' मेरी माँ ने गुस्से में बोला- ''मैंने अपना बचपन यहाँ बिताया है आप कौन सी कहानी सुना रहे हो, मेरी शादी तक यहीं हुई है'' याद रखना हम यहीं के है...
देखिए मैं फिर भी मौन हूँ.. ना कभी बंदूक उठाई ना ही कभी पत्थर उठाया ना ही कभी देश को गाली दी, हर बार यही विचार आता है कि क्या मेरा मौन मुझ पर हावी हो गया पर सच्चाई ये है कि मुझे कभी अपने हक के लिए लड़ने का समय नहीं मिला बस खुदको फिर खड़ा करने की होड़ लगी थी.. दिल पसीज गया जब उस कश्मीरी हिन्दू ने कहा कि- ''मेरी माँ मुझे कपड़े के झूले पर झुलाती थी और मैं दूध के लिए रोता था पर दूध नहीं होता था'' अपने ही देश में देश के दुश्मनों ने कश्मीरी हिन्दू समाज को सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया खुलेआम हत्या होती रही रेप होते रहे पर उस समय पूरा देश मौन की अवस्था में था.
प्रधानमंत्री से लेकर देश को अपना सिपाही कहने वाला हर वो व्यक्ति मौन था और ये मौन पिचका और दबा हुआ नहीं था मजबूरी की मिटटी में धसा हुआ नहीं था.. वो मौन अंधा था बहरा था नंगा था अपहिज था जो किसी का दर्द किसी की हत्या किसी का हक मरता हुआ देख रहा था हर चीज़ को ताड़ रहा था... उम्मीद सूख गई है ... क्योंकि आवाज़ दलित समुदाय और रोहिंग्या मुसलमानों पर अटक गई है.. अब आगे कुछ नहीं कहना है. मैं कश्मीरी पंडित हूँ फिर एक बार मौन की अवस्था में जाने को तैयार हूँ. नीचे एक कविता है जो बचा-कुचा सब कह देगी ..
जैसा भी था मेरा घर मेरा था (कश्मीर), उस छत पर मैले धब्बे बहुत थे, कुछ पत्थर उसके टूटे हुए थे,उस पर लिखी जीवन की कई कहानियां थीं,दुखी माँ की कई मूक स्मृतियाँ थी,जैसी भी थी, वो छत अपनी थी, घर की अधीर दीवारों पर, पिता के संघर्ष से भरी सीलन थी, जैसी भी थी, वो दीवारें अपनी थी....
रसोई घर में छिपकली बहुत चिपकती थी, मिट्टी के चूल्हे से निकली, धुंए की बदबू भी पुरानी हो पड़ी थी, माँ ये देखकर बहुत चिल्लाती थी, पल-पल में उसे ठीक करने को कहती थी, पर जैसी भी थी, वो रसोई अपनी थी, बर्तनों पर पड़े बुढ़ाई गढ़े,जिसे दादी अपनी..अनुरागी बरौनी से लगाकर रखती थी, जिसे देखकर सब हंसी उड़ाते थे, फिर क्या हुआ ,जैसे भी थे वो बर्तन अपने थे,जो शोर मचाते थे...
जिस दिन सब छोड़, भागे थे कदम, ना वो रसोई थी साथ, ना वो दीवारें थीं,कानों में चीखें थी और क़दमों में डर, हाथों में माँ की विक्षोभ कलाई थी,कन्धों पर पिता की छल के कतल, से निकली खून की बूंदे थी, बस बचपन में एक बार ली हुई ,एक पुरानी जली हुई कंबल थी ,बहन के यातना भरे दुपट्टे की झलक थी,कुछ और नहीं था मन की रुदाली तरंग थी और कुछ नहीं था घर की मिट्टी में बसे कणों की पुकार थी ...
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