सुरों के संत कहें या फिर सुरीले संत, रागों के रसिया और पद्म विभूषण जैसे सम्मानों से अलंकृत संगीत मार्तण्ड पंडित जसराज के सुरीले सफर की दास्तान कागजों पर उतर गई है. जितना दिलचस्प और मनमोहक पंडित जी का गाना और घराना है उतने ही दिलफरेब अंदाज में लिखी गई ये दास्तान है. मेवाती घराने के सबसे चमकते सितारे संगीत के सूर्य पंडित जसराज जी की कथा लिखी है जानी-मानी लेखिका सुनीता बुद्धिराजा ने.
'रसराज पंडित जसराज' लिखने की रामकहानी भी कम दिलचस्प नहीं. सालों पंडित जी से बातें कर उनकी बचपन से अब तक की सुरीली, रसीली और छबीली बातें निकलवाना, घंटों की रिकॉर्डिंग डिक्टाफोन में दर्ज करना, पंडित जी के शिष्यों से घंटों बात कर उनसे थाह लेना कि आखिर पंडित जी के रोपे बिरवों की जड़ें कितनी गहरी हुई हैं.
534 पेज का ये ग्रंथ 'रसराज पंडित जसराज' पंडित जी के बचपन से लेकर अब तक के सभी मोड़ से होकर गुजरता है. कहानी जन्म से पहले शुरू होती है इसके बाद तो बचपन की कई धुंधली यादों पर पड़ी धूल साफ होती है और दिखाई देते हैं नायाब किस्से. कैसे पीली मंदोरी गांव की धूल में खेलते ढाई साल के जसराज को देखकर महीनों बाद गांव लौटे पंडित मोतीराम ने देखा तो पहचान ही नहीं पाए. ऊंट पर बैठे पंडित मोतीराम ने पास से गुजरते लोगों से पूछा भई ये इतना सुथरा किसका बालक है? जवाब मिला कि ये तो आपका ही है. तो पंडित जी ने कैसे अपने सफेद झक्क कपड़ों की परवाह किए बगैर धूल में खेल रहे जसराज को गोद में उठा लिया और पैदल ही घर तक चल पड़े. कैसे गांव से हैदराबाद आए फिर नागपुर में सूफी संत ताजुद्दीन बाबा की सेवा में और फिर हैदराबाद के निजाम के दरबार तक...
कहानी रियल है लेकिन रील लाइफ जैसी लगती है. मोड़ जिंदगी में आये तो किताब में भी, पंडित मोतीराम जी...
सुरों के संत कहें या फिर सुरीले संत, रागों के रसिया और पद्म विभूषण जैसे सम्मानों से अलंकृत संगीत मार्तण्ड पंडित जसराज के सुरीले सफर की दास्तान कागजों पर उतर गई है. जितना दिलचस्प और मनमोहक पंडित जी का गाना और घराना है उतने ही दिलफरेब अंदाज में लिखी गई ये दास्तान है. मेवाती घराने के सबसे चमकते सितारे संगीत के सूर्य पंडित जसराज जी की कथा लिखी है जानी-मानी लेखिका सुनीता बुद्धिराजा ने.
'रसराज पंडित जसराज' लिखने की रामकहानी भी कम दिलचस्प नहीं. सालों पंडित जी से बातें कर उनकी बचपन से अब तक की सुरीली, रसीली और छबीली बातें निकलवाना, घंटों की रिकॉर्डिंग डिक्टाफोन में दर्ज करना, पंडित जी के शिष्यों से घंटों बात कर उनसे थाह लेना कि आखिर पंडित जी के रोपे बिरवों की जड़ें कितनी गहरी हुई हैं.
534 पेज का ये ग्रंथ 'रसराज पंडित जसराज' पंडित जी के बचपन से लेकर अब तक के सभी मोड़ से होकर गुजरता है. कहानी जन्म से पहले शुरू होती है इसके बाद तो बचपन की कई धुंधली यादों पर पड़ी धूल साफ होती है और दिखाई देते हैं नायाब किस्से. कैसे पीली मंदोरी गांव की धूल में खेलते ढाई साल के जसराज को देखकर महीनों बाद गांव लौटे पंडित मोतीराम ने देखा तो पहचान ही नहीं पाए. ऊंट पर बैठे पंडित मोतीराम ने पास से गुजरते लोगों से पूछा भई ये इतना सुथरा किसका बालक है? जवाब मिला कि ये तो आपका ही है. तो पंडित जी ने कैसे अपने सफेद झक्क कपड़ों की परवाह किए बगैर धूल में खेल रहे जसराज को गोद में उठा लिया और पैदल ही घर तक चल पड़े. कैसे गांव से हैदराबाद आए फिर नागपुर में सूफी संत ताजुद्दीन बाबा की सेवा में और फिर हैदराबाद के निजाम के दरबार तक...
कहानी रियल है लेकिन रील लाइफ जैसी लगती है. मोड़ जिंदगी में आये तो किताब में भी, पंडित मोतीराम जी का देहांत हुआ तो चार साल के जसराज के लिए राह आसान नहीं थी. लेकिन कलकत्ता से गुजरात के साणंद तक की यात्रा और इसके बाद पंडित जसराज के रसराज बनने तक की गाथा को सुनीता बुद्धिराजा ने बड़े करीने से पिरोया है.
एक दिलचस्प किस्सा भी इसमें दर्ज है. जब करीब पंद्रह साल के तरुण जसराज अपने बड़े भाई पंडित मणिराम जी के साथ तबले पर संगत करते थे, तब लाहौर में सरस्वती कॉलेज में पंडित मणिराम जी गाना सिखाते थे. 1945 का किस्सा है, महीना शायद अगस्त का रहा होगा. ऑल इंडिया रेडियो के कार्यक्रम में जसराज पंडित कुमार गंधर्व के साथ तबले पर संगत कर रहे थे. कुमार जी ने राग भीम पलासी गाया. अगले दिन पंडित अमरनाथ ने पंडित मणिराम जी के साथ बातचीत के दौरान कुमार जी के गाये भीमपलास की नुक्ताचीनी कर दी. उसी बीच जसराज जी बोल पड़े कि कुमार जी के गाये भीमपलासी में कोई गड़बड़ नहीं थी. इस पर पंडित अमरनाथ ने तीखे अंदाज में कह दिया कि जसराज तुम मरा चमड़ा पीटते हो तुम्हें रागदारी का क्या पता.. तुम चमड़ा ही पीटो. बात मर्म में लग गई लेकिन खून का घूंट पी गए. अगले दो तीन दिन बाद जन्माष्टमी का त्योहार था. तब जसराज और पंडित मणिराम जी लाहौर के निसबत रोड के मकान नंबर 33 में रहते थे. शालमी गेट पर जन्माष्टमी के मौके पर गाने बजाने का कार्यक्रम था. पंडित मणिराम जी को गाना था और तबला संगत करनी थी जसराज जी को. जसराज जी कार्यक्रम से पहले ऑडिटोरियम का मुआयना करने गये थे.
स्टेज पर गायक के लिए तो विमान जैसी पालकी बनाई गई थी लेकिन साजिंदों के लिए कोई जगह न देख जसराज पूछ बैठे भइया तबले वाले कहां बैठेंगे. उस आदमी ने नीचे की जगह दिखाकर कहा उत्थे खड्डे विच वैहो. ये दूसरा तीर था जो उसी जख्म पर लगा था. उसी रात तय कर लिया कि अब तबला नहीं, गायक बनना है. भइया मणिराम जी से भी कह दिया और भइया ने उनकी बात मान भी ली. सरस्वती कॉलेज में पहले सा लगाया और गाना सीखना शुरू कर दिया.
ऐसे बहुत से किस्सों से भरी है ये किताब. बस पन्ना खोलने भर की देर है कि कब एक से दूसरे किस्से पर पहुंच जाएंगे जैसे विलंबित खयाल से द्रुत तक पहुंचते हैं. या फिर आलाप जोड़ झाला तक. एक दिलफरेब गायक के दिलचस्प रास्तों की दास्तान.
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