इस दुनिया में जितनी भी लानतें हैं, हिप्पोक्रेसी उन सब की अम्मा है, और आज का मुसलमान अपने आप में हिप्पोक्रेसी की एक आला मिसाल है. इसकी पेशानी पर जो सजदों (माथा टेकना) के निशान हैं वो इसकी अक़ीदत (श्रद्धा) की तरह बनावटी हैं. ये हराम की कमाई दौलत जेब में भर हलाल गोश्त की दुहाई दिया करता है.
इसकी हिप्पोक्रेसी के चलते, कई बरस पहले इन मजहब के मुहाफिज़ों (अभिभावक) ने इस्लाम को एक हसीन महबूबा बना दिया था, इक ऐसी महबूबा जिसकी पाक़ीजगी की दुहाइयां देकर, ये काग़ज के मज़हब परस्त अपनी नापाकियों को अंजाम दिया करते हैं. खुलासा मेरी फिक्र का ये है के खुदा के बंदे अब खुदावंद हो गए हैं और रही बात खुदा की, जो बकौल कुरान-ए-पाक, अहद-ओ-समद है, रहमान-ओ-रहीम है, उसको भी इस जाहिल क़ौम ने सैंकड़ों नाम दे दिए हैं. समझ नहीं आता कि खुदा शिया है या सुन्नी. कहीं वो देवबंदी तो नहीं? या फिर कोई बरेलवी है? भाई, अह्ल-ए-हदीस हुआ तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी. इस मजमून (लेख) को वो काफिर का कलाम ना क़रार दे कहीं.
अल-मा'मुन का ख्वाब
इस्लाम की तारीख पर आप अगर नज़र डालें तो गुज़िश्ता ज़मानों में मुसलमान का हाल हमेशा से ऐसा न था. इस्लाम की तस्करी और मुल्ला-मौलवियों का अज़ाब जियादतन गई दो सदियों में ही नाज़िल (आया हुआ) हुआ है. उस वक्त का मुसलमान ज़ेहनी सलाहियत के साथ साथ दीन पर क़ायम रहने वाला मुसलमान था. मगर जब से इस कमबख्त ने रिजन और कुव्वत-ए-अक्ल-ओ-फैसले का साथ छोड़ा है, इज्तिहाद (खोज, innovation) की जगह जिहाद ने ली ली है. इस्लाम के सुनहरे वक़्फे (समय) में जब इस्लामी हुकुमत एक तिहाई दुनिया पर थी, उसी दौरान बगदाद के खलीफ अल-मा'मुन ने एक ख्वाब देखा. अल-मा'मुन को उस ख्वाब में ग्रीक फलसफ़े के आलिम-ओ-कामिल एरिस्टोटल नज़र आए.
इस दुनिया में जितनी भी लानतें हैं, हिप्पोक्रेसी उन सब की अम्मा है, और आज का मुसलमान अपने आप में हिप्पोक्रेसी की एक आला मिसाल है. इसकी पेशानी पर जो सजदों (माथा टेकना) के निशान हैं वो इसकी अक़ीदत (श्रद्धा) की तरह बनावटी हैं. ये हराम की कमाई दौलत जेब में भर हलाल गोश्त की दुहाई दिया करता है.
इसकी हिप्पोक्रेसी के चलते, कई बरस पहले इन मजहब के मुहाफिज़ों (अभिभावक) ने इस्लाम को एक हसीन महबूबा बना दिया था, इक ऐसी महबूबा जिसकी पाक़ीजगी की दुहाइयां देकर, ये काग़ज के मज़हब परस्त अपनी नापाकियों को अंजाम दिया करते हैं. खुलासा मेरी फिक्र का ये है के खुदा के बंदे अब खुदावंद हो गए हैं और रही बात खुदा की, जो बकौल कुरान-ए-पाक, अहद-ओ-समद है, रहमान-ओ-रहीम है, उसको भी इस जाहिल क़ौम ने सैंकड़ों नाम दे दिए हैं. समझ नहीं आता कि खुदा शिया है या सुन्नी. कहीं वो देवबंदी तो नहीं? या फिर कोई बरेलवी है? भाई, अह्ल-ए-हदीस हुआ तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी. इस मजमून (लेख) को वो काफिर का कलाम ना क़रार दे कहीं.
अल-मा'मुन का ख्वाब
इस्लाम की तारीख पर आप अगर नज़र डालें तो गुज़िश्ता ज़मानों में मुसलमान का हाल हमेशा से ऐसा न था. इस्लाम की तस्करी और मुल्ला-मौलवियों का अज़ाब जियादतन गई दो सदियों में ही नाज़िल (आया हुआ) हुआ है. उस वक्त का मुसलमान ज़ेहनी सलाहियत के साथ साथ दीन पर क़ायम रहने वाला मुसलमान था. मगर जब से इस कमबख्त ने रिजन और कुव्वत-ए-अक्ल-ओ-फैसले का साथ छोड़ा है, इज्तिहाद (खोज, innovation) की जगह जिहाद ने ली ली है. इस्लाम के सुनहरे वक़्फे (समय) में जब इस्लामी हुकुमत एक तिहाई दुनिया पर थी, उसी दौरान बगदाद के खलीफ अल-मा'मुन ने एक ख्वाब देखा. अल-मा'मुन को उस ख्वाब में ग्रीक फलसफ़े के आलिम-ओ-कामिल एरिस्टोटल नज़र आए.
अल-मा'मुन की मुश्किल ये थी के वो मौलवियों का कहा मानें या फिर उन अदीब हजरात का जो रिजन और इज्तिहाद की पैरवी करते हैं. एरिस्टोटल ने जवाब में कहा के खुदा तक पहुंचने का सही रास्ता इल्म-ओ-इज्तिहाद और रिजन से ही होकर गुजरता है. इसी नसीहत के मद्द-ए-नज़र, अल-मा'मुन ने यही रास्ता इख्तियार कर, इस्लाम का परचम सारे आलम में लहराया और बगदाद को इल्म और साइंस-दानो का मार्कज़ बनाया. ये अल-मा'मुन का ख्वाब ही था जिसे मगरिबी रेनेसां की बुनियाद बना.
आज के मुसलमान के ख्वाब में या तो बाबरी की दीवारों पर हथौड़ा चलाते भगवा दहशतगर्द होते हैं या फिर तीन तलाक, हिजाब और टखनों से ऊपर पैजामे. ये अपनी बेज़ारी और बदहाली में खुश हैं, ये ग़ैर तरक्की याफ्ता आवाम जमाने के साथ नहीं, ज़माने के पीछे चलना पसंद करती है. ये अपनी मुफ़लिसी और मुश्किल हालात को बेहतर करने के बजाए इस ग़म में मुब्तला है कि किसी सलमान रुश्दी ने कोई किताब लिखी है जिससे इस्लाम खतरे में आ गया है.
इस क़ौम को अपने ज़ाति मसायिल हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं, ये मज़हब की गिरफ्त में जकड़ी हुई शरिया के तारों से बंधी हुई है, इसे अपनी आने वाली नस्लों की तरक्की, उनके इल्म-ओ-रोजगार की फिक्र ज़र्रे बराबर नहीं है.
इस्लाम के तस्कर
चुनांचे, मजहब और दीन से मुल्ला-मौलवियों का रिश्ता वही ही है जो कच्ची शराब का तस्करों से होता है. इनकी अकीदत मिलावटी होती है और ये नशे के नाम पर ज़हर बेचते हैं मगर बदनाम शराब होती है. अगर हम मौलनाओं और क़ादरियों की शान में क़सीदें पढ़ सकते हैं, उनकी खुदा परस्ती की मिसालें दे सकते हैं तो फिर इन्हीं आलिम-ओ-कालिम हजरात की दरिंदगी पर कोई बात क्यों न करे, क्यों कोई न लिखे? क्यों मैं उस मौलाना की बात न कहूं जिसके दीन और दाढ़ी में ऐसी कितनी कहानियां दफ्न हैं, जहां मदरसों और इदारों में आने वाले मासूम बच्चे इनकी जिन्सी ज़ियादती का शिकार हुए हैं?
क्यों इस मुआशरे में मौलानाओं और हफिज़ों की गलाज़त भरे कीचड़ से सने उस दामन को कुरान की आयतों से छुपाया जाता रहा है? क्या वजह है कि अल-काबा अल-मुशर्ऱफ और मस्जिद-अल हरम जैसी जगहों पर भी ख्वातिन के साथ जीन्सी जबर्दस्तियों के वाकयात आम हैं? शायद यही वजह है कि आज के दौर में हज अकीदद का नहीं, प्रीविलेज और इस्तेहकाक का सबब बन गई है, इसलिए "फलां साहब पांचवी बार हज करने जा रहे हैं...." जैसे जुमले आज बहुत आम हैं, मानो हज न हुई पिकनिक हो गई. या फिर शायद ये उनकी जरूरत है, इसलिए के उनके गुनाहों की फेहरिस्त इतनी लंबी है के एक हज से काम नहीं बनता.
कुल जमा बात ये है कि जबसे ईमान वालों ने ईमान छोड़ा है, यकीन मानिएगा मुझ जैसे इब्लिस-नुमा आदम-जातों की निकल पड़ी है. सुनिए साहब, अव्वल तो मेरी मज़हबी नुक्ताचीनी की आदत नहीं है और ना ही मुझमें इतनी ज़ेहनी सहालियत, मगर इतना जरुर कहना चाहूंगा कि मुसलमानों को चाहिए कि वो अपनी हिपोक्रेसी को दरकिनार करके अमालों से भी बने उम्मत-ए-रसूल, कहते हैं, पढ़ता था नमाज इब्लीस भी.
अगर इस गुस्ताख इब्लीस की न सही, अल्लामा की तो सुनो, जो कह गये थे "कि तेरे आमाल से ही तेरा परेशान होना, वरना मुश्किल नहीं मुश्किल आसान होना..."
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