धर्म के नाम पर जीता-जागता बकरा काटेंगे, तो मैं इसे हैवानियत कहूंगा. प्रतीकात्मक रूप से तिल, गुड़ या चीनी का बकरा काटेंगे, तो मैं इसे पोंगापंथ और अंध-परम्परा कहूंगा. बाबा कबीरदास ने ऐसे ही पोंगापंथियों का मखौल उड़ाते हुए कहा था- "पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़’" यानी अगर पत्थर पूजने से भगवान मिलते होते, तो मैं पत्थर को क्यों, पहाड़ को पूजूंगा!
जाहिर तौर पर अगर बाबा कबीरदास आज जीवित होते तो यही कहते कि ’अगर बकरे काटने से पुण्य मिलता होता, तो आदमी काटने से तो और भी ज्यादा पुण्य मिलेगा’ फिर तो आइसिस के आतंकवादी इस वक्त दुनिया में सबसे ज्यादा पुण्य कमा रहे होंगे, जो आदमियों को बकरों की तरह काट रहे हैं
बाबा कबीरदास ने तो कहा भी था-
"बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल’, जे नर बकरी खात हैं, तिनको कौन हवाल?"
अर्थात् बकरी तो सिर्फ पत्तियां खाती है, फिर भी उसे पाप लगता है और उसकी खाल खींची जाती है’ फिर सोचिए कि जो लोग बकरियों को मार-मार कर खाते हैं, उनका क्या हाल होगा?
ये भी पढ़ें- कौन कहेगा कि इंसानों के भेस में ये जानवर नहीं हैं !
दुर्भाग्य यह कि क्रूर और कुटिल लोग मरने-मारने वाले साहित्य से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं, जबकि बाबा कबीर की ऐसी मानवतापूर्ण बातों का उनपर कोई असर नहीं होता.
ऐसे ही लोग आजकल गांधी की फोटो के लिए जान दिये जा रहे हैं, जबकि गांधी के रास्ते पर चलने का उनमें ज़रा भी साहस नहीं’ गांधी जी सिर्फ़ चरखे से सूत ही नहीं कातते थे, बकरी भी पालते थे, लेकिन उसकी हत्या करने के लिए नहीं, गिद्ध की तरह अपने नाखूनों और दांतों से नोंच-नोंच कर उसका मांस खाने के लिए नहीं, बल्कि उसका दूध...
धर्म के नाम पर जीता-जागता बकरा काटेंगे, तो मैं इसे हैवानियत कहूंगा. प्रतीकात्मक रूप से तिल, गुड़ या चीनी का बकरा काटेंगे, तो मैं इसे पोंगापंथ और अंध-परम्परा कहूंगा. बाबा कबीरदास ने ऐसे ही पोंगापंथियों का मखौल उड़ाते हुए कहा था- "पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़’" यानी अगर पत्थर पूजने से भगवान मिलते होते, तो मैं पत्थर को क्यों, पहाड़ को पूजूंगा!
जाहिर तौर पर अगर बाबा कबीरदास आज जीवित होते तो यही कहते कि ’अगर बकरे काटने से पुण्य मिलता होता, तो आदमी काटने से तो और भी ज्यादा पुण्य मिलेगा’ फिर तो आइसिस के आतंकवादी इस वक्त दुनिया में सबसे ज्यादा पुण्य कमा रहे होंगे, जो आदमियों को बकरों की तरह काट रहे हैं
बाबा कबीरदास ने तो कहा भी था-
"बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल’, जे नर बकरी खात हैं, तिनको कौन हवाल?"
अर्थात् बकरी तो सिर्फ पत्तियां खाती है, फिर भी उसे पाप लगता है और उसकी खाल खींची जाती है’ फिर सोचिए कि जो लोग बकरियों को मार-मार कर खाते हैं, उनका क्या हाल होगा?
ये भी पढ़ें- कौन कहेगा कि इंसानों के भेस में ये जानवर नहीं हैं !
दुर्भाग्य यह कि क्रूर और कुटिल लोग मरने-मारने वाले साहित्य से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं, जबकि बाबा कबीर की ऐसी मानवतापूर्ण बातों का उनपर कोई असर नहीं होता.
ऐसे ही लोग आजकल गांधी की फोटो के लिए जान दिये जा रहे हैं, जबकि गांधी के रास्ते पर चलने का उनमें ज़रा भी साहस नहीं’ गांधी जी सिर्फ़ चरखे से सूत ही नहीं कातते थे, बकरी भी पालते थे, लेकिन उसकी हत्या करने के लिए नहीं, गिद्ध की तरह अपने नाखूनों और दांतों से नोंच-नोंच कर उसका मांस खाने के लिए नहीं, बल्कि उसका दूध पीने के लिए.
गांधी जी सिर्फ़ चरखे से सूत ही नहीं कातते थे, बकरी भी पालते थे |
अब ऐसे लोगों के बारे में मैं क्या कहूं, जिन्हें गांधी की फोटो से तो मोहब्बत है, लेकिन जो गांधी की बकरियों के दुश्मन बने हुए हैं. अफसोस की बात यह कि दूध देने वाली गाय तो हिन्दूवादियों के लिए मां बनी हुई है, लेकिन दूध देने वाली भैंस और बकरियों के लिए उनका भी कलेजा नहीं कांपता.
हैवानी और पोंगापंथी अंध-परम्पराएं सर्व-धर्म-व्यापी हैं. आदमी की पाशविक प्रवृत्तियों का शामियाना भी सभी समुदायों पर तना हुआ है. दुख होता है यह देखकर कि देश में असहिष्णुता का शोर मचाने वाले तथाकथित प्रगतिशील भी बेगुनाह बेजुबान मासूम पशु-पक्षियों के खिलाफ हिंसा और असहिष्णुता का कभी विरोध नहीं करते. तुर्रा यह कि ये सभी गांधी की राह पर चलने वाले लोग हैं!
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.