केन्द्र सरकार ने कानून बदल दिया है. फिर वही पुरानी कातिल व्यवस्था लौट रही है जिसमें रिजल्ट खराब होने से परेशान बच्चे सुसाइड कर लेते थे. फिर वही नंबर गेम शुरू होगा. बच्चों को नंबर मिलेंगे परसेंटेज का कंपटीशन होगा. सीबीएसई ने इसी साल से कानून बना दिया है कि पहली से आठवीं तक के जो बच्चे तीन विषयों में फेल होंगे उन्हें अब उसी कक्षा में पढ़ना होगा. इसी तरह पांचवी से नौवीं तक के बच्चे दो सब्जेक्ट में फेल होंगे तो उन्हें उसी क्लास में दोबारा पढ़ना होगा. लेकिन बात इतनी सी ही नहीं है.
आखिर स्कूल फेल क्यों नहीं होते?
दूसरी कक्षा का मासूम बच्चा जो ठीक से बोल तक नहीं सकता. पढ़ाई में कमज़ोर होने के लिए दंडित क्यों किया जाता है. बच्चे की पढ़ाई की प्रक्रिया में सिर्फ वो ही तो शामिल नहीं होता. एक तरफ बच्चा है तो दूसरी तरफ शिक्षा के क्षेत्र में शोहरत लिए घूम रहे अमीर स्कूल. ये स्कूल शिक्षा के विशेषज्ञ होने का दावा करते हैं. शिक्षक खास पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित होते हैं. बच्चे की कुल उम्र से ज्यादा उनके पास तजुर्बा होता है. उनकी ट्रेनिंग होती है.
स्कूल हज़ारों रुपये वसूलते हैं. लोगों की कमाई का बड़ा हिस्सा स्कूल लेते हैं लेकिन जब नतीजे खराब आते हैं तो स्कूल क्यों नहीं जिम्मेदार होता, मासूम बच्चा फेल हो सकता है स्कूल क्यों नहीं हो सकता. क्यों स्कूल पेरेन्ट टीचर मीटिंग में बुलाकर बच्चे की माता पिता के सामने प्रताड़ना की हद तक निंदा करके अपने कर्तव्य को पूरा कर लेते हैं. पेरेन्ट भी बच्चों पर ही भड़ास निकालकर चुप हो जाते हैं लेकिन फेल बच्चा ही होता है. पढ़ाने के एक्सपर्ट असफल नहीं होते, पढ़ाने का सबसे बड़ा नामी महंगा संस्थान असफल नहीं होता.
बच्चा फेल होता है. स्कूल में...
केन्द्र सरकार ने कानून बदल दिया है. फिर वही पुरानी कातिल व्यवस्था लौट रही है जिसमें रिजल्ट खराब होने से परेशान बच्चे सुसाइड कर लेते थे. फिर वही नंबर गेम शुरू होगा. बच्चों को नंबर मिलेंगे परसेंटेज का कंपटीशन होगा. सीबीएसई ने इसी साल से कानून बना दिया है कि पहली से आठवीं तक के जो बच्चे तीन विषयों में फेल होंगे उन्हें अब उसी कक्षा में पढ़ना होगा. इसी तरह पांचवी से नौवीं तक के बच्चे दो सब्जेक्ट में फेल होंगे तो उन्हें उसी क्लास में दोबारा पढ़ना होगा. लेकिन बात इतनी सी ही नहीं है.
आखिर स्कूल फेल क्यों नहीं होते?
दूसरी कक्षा का मासूम बच्चा जो ठीक से बोल तक नहीं सकता. पढ़ाई में कमज़ोर होने के लिए दंडित क्यों किया जाता है. बच्चे की पढ़ाई की प्रक्रिया में सिर्फ वो ही तो शामिल नहीं होता. एक तरफ बच्चा है तो दूसरी तरफ शिक्षा के क्षेत्र में शोहरत लिए घूम रहे अमीर स्कूल. ये स्कूल शिक्षा के विशेषज्ञ होने का दावा करते हैं. शिक्षक खास पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित होते हैं. बच्चे की कुल उम्र से ज्यादा उनके पास तजुर्बा होता है. उनकी ट्रेनिंग होती है.
स्कूल हज़ारों रुपये वसूलते हैं. लोगों की कमाई का बड़ा हिस्सा स्कूल लेते हैं लेकिन जब नतीजे खराब आते हैं तो स्कूल क्यों नहीं जिम्मेदार होता, मासूम बच्चा फेल हो सकता है स्कूल क्यों नहीं हो सकता. क्यों स्कूल पेरेन्ट टीचर मीटिंग में बुलाकर बच्चे की माता पिता के सामने प्रताड़ना की हद तक निंदा करके अपने कर्तव्य को पूरा कर लेते हैं. पेरेन्ट भी बच्चों पर ही भड़ास निकालकर चुप हो जाते हैं लेकिन फेल बच्चा ही होता है. पढ़ाने के एक्सपर्ट असफल नहीं होते, पढ़ाने का सबसे बड़ा नामी महंगा संस्थान असफल नहीं होता.
बच्चा फेल होता है. स्कूल में जिल्लत से रहता है. पीछे की बैंच पर बैठाया जाता है. सांस्कृतिक और खेल गतिविधियों से स्कूल उसे दूर धकेल देता है. और ऐसे हालात में बच्चे जान दे देते हैं. लेकिन स्कूल तरक्की करता रहता है. फीस बढ़ाता रहता है. उसके ब्रोशर और रंगीन हो जाते हैं. बच्चा फेल हो जाता है स्कूल का प्रमोशन हो जाता है.
ग्रेडिंग सिस्टम की क्या गलती?
देश में अब तक चल रहा सतत मूल्यांकन सिस्टम ये कहकर बदनाम किया जाता है कि उसमें सभी बच्चे पास हो जाते हैं. सवाल इस बात का है कि बच्चे फेल हों क्यों. साल भर, हर महीने, हर तीन महीने, छमाही, और सालाना. पूरे साल इतनी बार परीक्षाएं और बच्चों का मूल्यांकन. एक बार बच्चा अगर कमज़ोर हो तो उसे सपोर्ट करके उसकी कमजोरी पर ध्यान देकर अगली परीक्षा से पहले उसे ठीक कर सकते थे लेकिन स्कूल ऐसा नहीं करते. इम्तिहान के बाद इम्तिहान बीतते जाते हैं. साल के बाद साल, बच्चा कमज़ोर होता चला जाता है. ऐसे में एक्शन किस ओर होना चाहिए. स्कूल पर नहीं तो किस पर, लेकिन अब सरकार ने इसका ठीकरा भी बच्चों के सिर फोड़ दिया है. यानी जीवन का सबसे अहम समय प्रताड़ना से भरा हुआ. लेकिन स्कूल की कोई जिम्मेदारी नहीं. टीचर की कोई जिम्मेदारी नहीं. यहां तक कि पेरेन्ट्स की भी कोई जिम्मेदारी नहीं.
और बढ़ेगा शोषण
बच्चे जब फेल होते हैं तो स्कूल के पास कमाई के और ज़रिए खुल जाते हैं, बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर. स्कूल पेरेन्ट्स के पास प्रस्ताव रखते हैं कि बच्चा कमजोर है रिपीट करवा दो. यानी एक साल में दो बार पढ़ाओ. इससे स्कूल की मोटी कमाई हो जाती है. एक साल बच्चा पढ़ता लो लाख डेढ़ लाख मिलते. दो साल पढ़ेगा तो डबल कमाई.
बच्चों को क्या मिलेगा?
बच्चों की पढ़ाई पर ऐसी सख्ती से कभी कोई फर्क नहीं पड़ता. बच्चे परीक्षा के दौरान पढ़ाई पर ज़ोर देते हैं. रट्टू तोते तैयार होते हैं. विषय की समझ नहीं आती क्योंकि सालभर नहीं पढ़ते. जितने बच्चे पास अभी होते हैं तब भी होंगे लेकिन जो बच्चे पढ़ाई के अलावा दूसरी चीज़ों जैसे स्पोर्ट्स, कला बगैरह में तेज़ होते हैं वो हतोत्साहित होते हैं. उनकी प्रतिभाओं का विकास नहीं हो पाता. नौकर, कर्मचारी, सब ऑर्डिनेट तो तैयार होते हैं लेकिन इस व्यवस्था में नौकरी देने वाले यानी आंत्रप्रोन्योर कभी विकास नहीं कर पाते. पेन्टर सिंगर और खिलाड़ी जैसे लोग अपनी कला और अपने जीवन को व्यर्थ मानने लगते हैं. कई बार आत्महत्या कर लेते हैं. दुख की बात है कि अंग्रेज़ों की गुलाम और नौकर तैयार करने वाली शिक्षा व्यवस्था आ गई है. बच्चों को फेल करने वाली व्यवस्था किसी क्लास में नहीं बल्कि जीवन के हर पहलू पर उन्हें फेल बनाने वाली. दुखद है बच्चे फेल होते हैं. सुसाइड करते हैं और स्कूल फलते फूलते हैं. स्कूल को बच्चों के लिए होना चाहिए लेकिन बच्चे स्कूल के लिए नोट छापने की मशीन बन जाते हैं.
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